Last 24 hours of PM Lal Bahadur Shastri | What Really Happened in Tashkent?

Sourav Pradhan
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11 जनवरी 1966 सोवियत यूनियन के ताशकंद में रात के 1:00 बज रहे थे। सोवियत यूनियन द्वारा अलॉट कराए गए विला में भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री गहरी नींद में थे। कुछ घंटे पहले ही उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति अय्यूब खान के साथ एक ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। जिसने 1965 के भारतपाक युद्ध को ऑफिशियली एंड कर दिया था। यह समझौता दोनों देशों के बीच शांति की उम्मीद था। लेकिन उसी रात ताशकंद की सर्द हवा में एक और बड़ी घटना होने वाली थी। उस रात कुछ ऐसा होने वाला था जो हमेशा के लिए भारत के राजनीतिक गलियारों और आम जनता के दिलों में टीस बनकर रह गया। 

रात के करीब 1:20 पर उस विला के अंदर अचानक हंगामा मच गया। डॉक्टर, नर्सें और सुरक्षाकर्मी सब आनन-फानन में लाल बहादुर शास्त्री के कमरे की तरफ दौड़ पड़े। कुछ ही पल बाद हर कोई लाल बहादुर शास्त्री के कमरे में उनको घेरे खड़ा था। शास्त्री जी को सांस लेने में बहुत दिक्कत हो रही थी और उन्हें बहुत तेज खांसी उठ रही थी। शास्त्री जी के पर्सनल डॉक्टर आर्यन चुग और सोवियत डॉक्टर्स ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की। लेकिन 11 जनवरी 1966 की रात 1:32 पर भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को मृत घोषित कर दिया गया। यह खबर भारत पहुंची तो पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। लोग सदमे में थे। 

लाल बहादुर शास्त्री एक ऐसे नेता थे जो अपनी सादगी, ईमानदारी और निडर व्यक्तित्व के लिए जाने जाते थे। उनकी सडन डेथ ने हर किसी को हैरान कर दिया था। शास्त्री जी की मौत का कारण दिल का दौरा बताया गया था लेकिन बात इतनी सीधी नहीं थी। उनकी डेड बॉडी पर नीले निशान, उनकी गर्दन के पीछे से रिसता हुआ खून, उनकी बॉडी का सिर्फ 12 घंटे में असामान्य तरीके से फूल जाना यह सब कुछ ऐसा था जो उनकी डेथ को नेचुरल नहीं था। लेकिन हैरानी की बात यह है कि एक सिंग प्राइम मिनिस्टर की बॉडी का पोस्टमार्टम तक नहीं करवाया गया और यहीं से कांस्परेसी थ्योरीज का तूफान शुरू हो गया। 

कभी कहा गया कि शास्त्री जी की हत्या में इंडियन पॉलिटिकल सिस्टम के कुछ बड़े नाम शामिल थे। कभी शक अमेरिकी एजेंसी सीआईए पर गया और कभी रशियन इंटेलिजेंस एजेंसी केजीबी की तरफ उंगलियां उठी। तो क्या वाकई में शास्त्री जी की मौत सिर्फ एक हार्ट अटैक से हुई थी या फिर ताशकंद की उस सर्द रात में इंडिया के एक सच्चे लीडर की मौत किसी गहरी साजिश का हिस्सा थी? आइए जानते हैं इंडिया के दूसरे प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्री की मौत की अनसुलझी कहानी। 

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक स्कूल टीचर थे। जब शास्त्री जी केवल डेढ़ साल के थे तभी उनके पिता की मौत हो गई। उनकी मां रामदुलारी देवी ने उन्हें बेहद गरीबी और संघर्ष में पाला। बचपन से ही उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें अक्सर गंगा नदी पार करके तैर कर स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि उनके पास बोट में सवारी करने का किराया नहीं होता था। उनकी एजुकेशन में भी कई बाधाएं आई लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने काशी विद्यापीठ से फिलॉसोफी में ग्रेजुएशन की डिग्री प्राप्त की और उन्हें शास्त्री की उपाधि मिली जो एक विद्वान को दी जाती है। यहीं से उनका नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव से लाल बहादुर शास्त्री पड़ा। अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उस समय देश भर में गांधीवादी आंदोलन अपने चरम पर था। गांधी जयंती के दिन जन्मे लाल बहादुर शास्त्री ने अपने जीवन में गांधीवादी मूल्यों को हमेशा अपनाया। वो गांधी जी के नॉन कोऑपरेशन मूवमेंट से इंस्पायर्ड होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। उनको कई बार जेल जाना पड़ा। 

जेल में भी उन्होंने कई बुक्स को स्टडी किया और मल्टीपल सब्जेक्ट्स एंड आईडियोलॉजीस पर अपनी समझ विकसित की। आजादी के बाद शास्त्री जी ने कांग्रेस पार्टी के भीतर महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई। 1946 में उन्हें उत्तर प्रदेश का पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी, 1951 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का महासचिव और 1952 में रेलवे मिनिस्टर बनाया गया। जब लाल बहादुर शास्त्री रेल मंत्री बने, तब उन्होंने अपनी मां को यह नहीं बताया था कि वह रेल मंत्री हैं। उन्होंने अपनी मां से कहा था कि वह रेलवे में नौकरी करते हैं। 22 नवंबर 1956 को तमिलनाडु के अरियलूर में एक बड़ा ट्रेन एक्सीडेंट हुआ था, जिसमें 150 से ज्यादा लोगों की जान चली गई। इस घटना से शास्त्री जी बेहद आहत हुए और उन्होंने दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेलवे मिनिस्टर के पद से इस्तीफा दे दिया। उनका यह कदम उनकी ईमानदारी और हाई मोरल वैल्यूस का एक एग्जांपल था। 

रेलवे मिनिस्टर के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने "होम मिनिस्टर, मिनिस्टर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री और मिनिस्टर विदाउट पोर्टफोलियो" जैसे पदों पर रहकर काम किया। देश अभी अपनी समस्याओं से लड़ना सीख ही रहा था कि तभी 27 मई 1964 को देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद भारत की राजनीति में एक बड़ा पॉलिटिकल वैक्यूम क्रिएट हो गया। ऐसे में लाल बहादुर शास्त्री की सादगी, ईमानदारी और सबको साथ लेकर चलने की उनकी क्षमता को देखते हुए उन्हें भारत का अगला प्रधानमंत्री चुना गया। यह एक ऐसा समय था जब भारत कई आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना कर रहा था। पाकिस्तान कश्मीर पर दांत गड़ाए बैठा था। पहले से गरीबी की मार झेल रहे देश में फूड क्राइसिस एक बड़ी समस्या थी और भारत गेहूं के लिए भी अमेरिका पर निर्भर था। वहीं चीन के साथ 1962 के युद्ध का दर्द अभी भी ताजा था। जिसमें भारत को अपमानजनक हार मिली थी और देश का मनोबल गिरा हुआ था। 

इस बीच देश के मनोबल को ऊंचा करने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का एक ऐतिहासिक नारा दिया जिसने भारत के सैनिकों और किसानों दोनों को सम्मान और प्रेरणा दी। शास्त्री जी भले ही छोटे कद के थे, लेकिन उनके फैसले बहुत बड़े और साहसिक होते थे। उन्होंने फूड प्रोडक्शन बढ़ाने के लिए ग्रीन रेवोल्यूशन की नीव रखी। दूध की प्रोडक्शन और सप्लाई को बढ़ाने के लिए वाइट रेवोल्यूशन को प्रमोट किया और डॉक्टर होमी जहांगीर भाबा के जरिए भारत को न्यूक्लियर पावर बनाने की मुहिम चालू की। वो हर हाल में भारत को एक आत्मनिर्भर देश बनाना चाहते थे ताकि भारत को मदद के लिए किसी बाहरी देश की ओर ना देखना पड़े। लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री बने करीब 14 महीने ही हुए थे कि तभी उनके सामने एक और बड़ी चुनौती आ गई। पाकिस्तान ने अगस्त 1965 में कश्मीर को हड़पने की एक और नाकाम कोशिश करते हुए एक और युद्ध को न्योता दे दिया। 1947-48 के युद्ध में भारत से मुंह की खा चुके पाकिस्तान की अक्ल अब भी ठिकाने नहीं आई थी। 

1962 के भारत चीन युद्ध के बाद पाकिस्तान को लग रहा था कि भारतीय सेना कमजोर हो गई है और वो बड़े पैमाने पर सैन्य कार्यवाही का जवाब नहीं दे पाएगी। उस दौरान पाकिस्तान को अमेरिका से भर-भरकर एडवांस वेपंस, टैंक्स और फाइटर जेट्स मिल रहे थे। जिससे पाकिस्तान और भी ज्यादा हवा में था। इसलिए पाकिस्तान ने भारत की जमीन पर कब्जा करने के इरादे से अगस्त 1965 में ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू किया। जिसके तहत जम्मू कश्मीर में छोटी-छोटी टुकड़ियों में घुसपैठिए भेजे जाने थे। जिन्हें पाकिस्तानी सेना ने जिब्राल्टर फोर्स नाम दिया। लगभग 40 हजार मुजाहिद्दीन और रेगुलर फोर्स के हजारों सैनिकों को लाइन ऑफ कंट्रोल के पार जम्मू कश्मीर में घुसपैठ करवाई गई। यह पाकिस्तान की एक सीक्रेट प्लानिंग थी जिसमें कश्मीर की मुस्लिम कम्युनिटी में विद्रोह भड़का कर उन्हें भारत सरकार के खिलाफ करने और फिर हमला करने की तैयारी थी। लेकिन पाकिस्तान का यह प्लान तब चौपट हो गया जब कश्मीर के लोगों ने पाकिस्तानी घुसपैठियों को समर्थन देने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान लाल बहादुर शास्त्री को एक कमजोर नेता समझते थे। उन्हें लगता था कि 5 फीट 2 इंच के छोटे कद का आदमी पाकिस्तान के हमले का भला क्या ही मुकाबला करेगा। 

लेकिन यही सोच अयूब खान की सबसे बड़ी भूल साबित हुई। लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में भारतीय सेना ने वो काम किया जो उससे पहले कभी नहीं हुआ था। शास्त्री जी ने सेना को खुली छूट देते हुए कहा कि अगर वह हमारे देश में घुस रहे हैं तो तुम भी उनके देश में घुस जाओ। उन्होंने सेना को अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर लाहौर तक आगे बढ़ने का आदेश दे दिया। यह एक ऐसा बड़ा फैसला था जिसने दुनिया को चौंका दिया। कई देशों ने भारत के इस कदम की आलोचना भी की लेकिन शास्त्री जी अपने फैसले पर अटल रहे। उन्होंने साफ कर दिया था कि अगर पाकिस्तान अपनी सीमाओं का सम्मान नहीं करेगा तो भारत अपनी सोवनिटी और सिक्योरिटी के लिए किसी भी हद तक जाएगा। वो पहले ही देश को संबोधित करते हुए कह चुके थे कि "अगर तलवार की नोक पर या एटम बम्ब के डर से कोई हमारे देश को डराना चाहे दबाना चाहे तो यह देश दबने वाला नहीं है"। अपने प्रधानमंत्री की तरफ से फ्री हैंड मिलने के बाद भारतीय सेना ने भारी चुनौतियों के बावजूद इतनी बहादुरी से लड़ाई लड़ी कि जो पाकिस्तान कश्मीर लेने आया था उसकी लाहौर गवाने तक की नौबत आ गई। 

भारतीय सेना ने लाहौर के पास मौजूद बरकी की पोस्ट पर भारतीय तिरंगा लहरा दिया जिससे पाकिस्तान के होश उड़ गए। भारत को इस वॉर में अपर हैंड जरूर था लेकिन कोई निर्णायक जीत भारत को नहीं मिल पा रही थी और लड़ाई लगातार खींचती जा रही थी। जहां पाकिस्तान भारत की जवाबी कार्रवाई से हैरान था और युद्ध विराम चाहता था तो वहीं भारत इस युद्ध को लंबा खींचने के बजाय अपनी तरक्की पर ध्यान देना चाहता था। ऐसे में यूनाइटेड नेशंस के इंटरफेरेंस से सीज फायर की घोषणा हुई और भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू होने के 17 दिन बाद रुक गया। यह कोल्ड वॉर का समय था जब अमेरिका और सोवियत यूनियन में खुद को दुनिया का सबसे सुपीरियर देश साबित करने की होड़ मची हुई थी। 

सोवियत यूनियन भी दुनिया में शांति ला सकता है। यह साबित करने के लिए सोवियत ने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति समझौता कराने की पेशकश की। दोनों देश सोवियत के इस मीडिएशन के लिए तैयार हो गए। इस बातचीत के लिए उज़्बेकिस्तान के ताशकंद को चुना गया जो उस समय यूएसएसआर का एक महत्वपूर्ण शहर था। उस जगह को इसलिए भी चुना गया था क्योंकि यह दोनों देशों से ज्योग्राफिकली दूर था जिससे न्यूट्रलिटी बनी रहती। युद्ध 23 सितंबर 1965 को रुका था। जिसके लगभग 3 महीने बाद 3 जनवरी 1966 के आसपास प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद के लिए रवाना होते हैं। उनके साथ एक छोटा प्रतिनिधि मंडल था जिसमें उनके निजी डॉक्टर डॉ. आर एन चुग, पर्सनल असिस्टेंट एमएमए शर्मा, पर्सनल सेक्रेटरी जगन्नाथ सहाय, विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव एल के झा, मीडिया एडवाइजर कुलदीप नयर और सुरक्षा अधिकारी आर कपूर शामिल थे। ताशकंद में उन्हें सोवियत सरकार द्वारा अलॉट कराए गए विला में ठहराया गया। यह विला सोवियत संघ के स्टैंडर्ड्स के अकॉर्डिंग था, लेकिन बहुत शानदार या अत्याधुनिक नहीं था। ताशकंद में दोनों देशों के प्रतिनिधि जब बातचीत के लिए टेबल पर एक साथ बैठे तो बातचीत इतनी आसान नहीं रही। 

पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान अपनी मांगों पर अड़े हुए थे। वह चाहते थे कि कश्मीर समस्या का स्थाई समाधान निकाला जाए। जबकि भारत का रुख था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और इस पर कोई समझौता नहीं होगा। सोवियत प्रीमियर एलेक्से कोसगिन ने दोनों पक्षों के बीच मीडिएशन में इंपॉर्टेंट रोल निभाया। उन्होंने दोनों नेताओं के बीच कई बैठकें आयोजित कराई लेकिन कई बार ऐसा लगा कि यह पीस स्टोक्स किसी कंक्लूजन पर नहीं पहुंच पाएगी। शास्त्री जी भारत के हितों पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। दोनों ही देशों को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में पूरा एक हफ्ता लग गया और आखिरकार 10 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। इस समझौते में तय हुआ कि दोनों देश 1965 के युद्ध से पहले की स्थिति पर लौट जाएंगे और सभी कब्जे वाले क्षेत्रों को खाली कर देंगे। इस तरह इस समझौते के तहत भारत ने 1965 की जंग में जो हाजी पीर पास जैसा स्ट्रेटेजिक रीजन जीता था वो भी पाकिस्तान को वापस करना पड़ा। 

ताशकंद समझौते में यह भी तय हुआ कि दोनों देश एक दूसरे के इंटरनल मैटर्स में इंटरफेयर नहीं करेंगे और फ्रेंडली रिलेशंस बनाए रखेंगे। एग्रीमेंट पूरा होने की खुशी में उसी दिन शाम को एक पार्टी रखी गई। जहां सोवियत प्रीमियर एलेक्सी कोसगिन ने शास्त्री जी का गर्मज जोशी से स्वागत किया। हर कोई एक दूसरे को इस समझौते के लिए बधाई दे रहा था। करीब डेढ़ घंटे तक रिसेप्शन में पाकिस्तानी और सोवियत डेलीगेशंस के साथ समय बिताने के बाद शास्त्री जी वहां से निकलकर रात करीब 10:15 पर विला में वापस आ गए। लाल बहादुर शास्त्री को अपनी टीम के साथ अगली सुबह अफगानिस्तान के काबुल के लिए रवाना होना था। इसलिए वह टाइम से सोना चाहते थे। सोने से पहले कुछ देर उन्होंने अपने डेलीगेशन के मेंबर से बातचीत की। उन्होंने कहा कि अगर अयूब खान जैसा लीडर पाकिस्तान में रहा तो भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तों में नया चैप्टर शुरू हो सकता है। इसके बाद शास्त्री जी ने अपने स्टाफ मेंबर रामनाथ से कुछ हल्काफुल्का खाना लाने को कहा। जब से शास्त्री जी ताशकंद आए थे। उनके लिए खाना रशियन शेफ्स और एक इंडियन कुक जान मोहम्मद बनाता था। जान मोहम्मद मॉस्को में भारत के एंबेसडर टीएन कॉल का पर्सनल कुक था। जान मोहम्मद ने रामनाथ को आलू पालक की सब्जी और हल्की सी करी शास्त्री जी के लिए बना कर दी। 

जब शास्त्री जी खाना खा रहे थे तभी प्राइवेट सेक्रेटरी जगन्नाथ सहाय को दिल्ली से उनके सहयोगी वेंकट रमण का फोन आया। उन्होंने बताया कि ताशकंद समझौते को लेकर भारत में जनरली रिएक्शन ठीक है। लेकिन अटल बिहारी वाजपेई और सुरेंद्रनाथ द्विवेदी जैसे विपक्ष के लीडर्स इससे संतुष्ट नहीं है। शास्त्री जी ने इसे सीरियस नहीं लिया क्योंकि अपोजिशन का इस तरह का रिएक्शन उन्हें सामान्य लगा। लेकिन जब उन्होंने अपनी बेटी से फोन पर बात की तो उन्हें थोड़ा झटका लगा। उनकी बेटी ने साफ कहा कि उन्हें ताशकंद समझौता पसंद नहीं आया। यही नहीं उनकी पत्नी ललिता शास्त्री भी इस बात से नाराज थी कि भारत को इस समझौते के तहत हाजी पीर पास पाकिस्तान को लौटाना पड़ेगा। इस फीडबैक ने शास्त्री जी को अंदर से झकझोड़ दिया। वह बेचैन हो गए और अपने कमरे में टहलने लगे। उनकी ये पुरानी आदत थी जब भी वो कुछ गहराई से सोचते तो चुपचाप टहलने लगते थे। 

इसी दौरान डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर प्रेम वैद्य जो ताशकंद पीस टॉक्स में शास्त्री जी के डेलीगेशन का हिस्सा थे, वह शास्त्री जी की कुछ फोटोस लेना चाहते थे। लेकिन उन्हें उस समय अंदर जाने की इजाजत नहीं दी गई। इसलिए उन्होंने बाहर खिड़की से ही शास्त्री जी का एक शॉर्ट वीडियो रिकॉर्ड किया। किसी को क्या पता था कि यह वीडियो शास्त्री जी की जिंदगी का आखिरी वीडियो साबित होगा। कुछ देर बाद शास्त्री जी सोने चले गए। उनको सोने से पहले दूध पीने की आदत थी, इसलिए उन्हें दूध दिया गया। इस समय तक विला का माहौल शांत था और सब लोग समझौते की खुशी मना रहे थे। सोवियत सुरक्षाकर्मी विला के बाहर और भीतर तैनात थे। रात 1:00 बजे के बाद शास्त्री जी को खांसी उठी और वह बेड से उठ गए। घबराहट के बीच ही वह किसी तरह उठकर उस कमरे तक पहुंचे जहां उनके सहयोगी ठहरे थे। उस समय कमरे में मौजूद प्राइवेट सेक्रेटरी जे एन सहाय और उनके स्टाफ मेंबर रामनाथ अगले दिन काबुल रवाना होने के लिए पैकिंग कर रहे थे। तभी उन्होंने रात 1:20 पर अपने दरवाजे पर शास्त्री जी को देखा जो बेहद परेशान दिख रहे थे और अपने सीने को थामे हुए थे। शास्त्री जी के मुंह से डॉक्टर शब्द निकला और तुरंत वह मुड़कर जाने लगे। जैन सहाय और रामनाथ दोनों यह देखकर घबरा गए और वह तुरंत उन्हें उनके कमरे में वापस ले आए। 

शास्त्री जी को जब दोबारा बेड पर लेटाया गया तो उन्हें जोर-जोर से खांसी उठने लगी और सांस लेने में भी तकलीफ होने लगी। वो उठकर बेड पर बैठ गए और अपना सीना जोर से थामे हुए कुछ बुदबुदाने लगे और फिर बेड पर लेट गए। खबर मिलते ही रात करीब 1:25 पर डॉक्टर आर्यन चुग भी वहां आ पहुंचे। लेकिन तब तक शास्त्री जी की हालत पहले से भी काफी बिगड़ चुकी थी और उन्हें सांस लेने में बेहद तकलीफ हो रही थी। डॉक्टर चुग ने शास्त्री जी को इंट्रा मस्कुलर इंजेक्शन भी दिया लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। इसके ठीक 3 से 4 मिनट के भीतर शास्त्री जी बेहोश हो गए। एक आखिरी कोशिश करते हुए डॉक्टर चुक ने शास्त्री जी को सीपीआर भी दिया लेकिन सारी कोशिशें बेकार साबित हुई। डॉक्टर चुक की आंखें आंसुओं से भरी हुई थी। उन्होंने बेहोश लेटे हुए शास्त्री जी से रोते हुए कहा, बाबूजी आपने मुझे समय नहीं दिया। शास्त्री जी का कमरा जो थोड़ी देर पहले बिल्कुल खाली था, वह अब सोवियत डॉक्टरों, भारतीय अधिकारियों और सुरक्षा कर्मियों से भर चुका था। हर किसी के चेहरे पर एक अजीब सी शिक नजर आ रही थी। सोवियत प्रीमियर एलेक्सी कोसगिन को भी तुरंत सूचित किया गया और वह भी कुछ ही मिनटों में विला पहुंचे। 

उस समय तक शास्त्री जी की सांसे तेज हो चुकी थी और उनका शरीर कांपने लगा था। उनकी आंखें भी स्थिर होने लगी थी और उनके चेहरे पर दर्द साफ झलक रहा था। डॉक्टर्स ने उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की। लेकिन रात 1:32 पर शास्त्री जी ने अपनी अंतिम सांस ली। शास्त्री जी की मौत की खबर तुरंत दिल्ली पहुंचाई गई। यह खबर कुछ ही घंटों में पूरे देश में आग की तरह फैल गई और पूरे देश में मातम छा गया। ऑफिशियल तौर पर शास्त्री जी की मौत का कारण दिल का दौरा बताया गया। क्योंकि पिछले कुछ सालों में उन्हें पहले भी दो बार दिल का दौरा पड़ चुका था। इस वजह से ताशकंद में मौजूद भारतीय अफसरों को यह कारण सामान्य लगा। लेकिन एक प्राइम मिनिस्टर की एक बड़े इंटरनेशनल समझौते पर साइन करने के कुछ ही घंटों बाद विदेशी धरती पर अचानक मौत हो जाना यह बात अपने आप में एक बड़ा सवाल था। लेकिन इसके बावजूद उनकी मौत के कारण को कंफर्म करने के लिए उनका पोस्टमार्टम ना तो सोवियत यूनियन और ना ही भारत में हुआ। और जब शास्त्री जी की बॉडी को भारत लाया गया तो ऐसा कुछ देखने को मिला जिसने उनकी मौत के रहस्य को इतना गहरा दिया जो आज तक नहीं सुलझ सका। 

जब शास्त्री जी का शव भारत लाया गया तो उनकी पत्नी ललिता शास्त्री, उनके बेटे अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री ने देखा कि शास्त्री जी का शव नीला पड़ चुका था। उनकी बॉडी इतनी फूल गई थी कि जब हिंदू रीति रिवाज के अनुसार उनके शव को नहलाया जा रहा था तो उनकी बनियान को काटना पड़ा था। जब लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में डेथ हुई थी उस समय वहां का तापमान 0 से 1 डिग्री सेल्सियस था। यानी मौसम बेहद ठंडा था। इसके बाद बॉडी को एंबाम भी किया गया था। यानी स्पेशल फ्लूइड्स डालकर बॉडी को खराब होने से रोका गया था। इसके बावजूद महज 12 घंटे के अंदर दिल्ली पहुंचने पर बॉडी का रंग बदल जाना और बॉडी का फूलना यह सब कुछ बिल्कुल भी नॉर्मल नहीं था। इतना ही नहीं शास्त्री जी के पेट पर और गर्दन के पीछे कट के निशान भी थे। उनकी गर्दन पर जो कट था वहां से खून बह रहा था। चादरें, तकिए और कपड़े सब खून से सने हुए थे। उनकी टोपी तक खून से सनी हुई थी जिसे आज भी उनके परिवार ने संभाल कर रखा है। 

ऐसे में यह सवाल उठता है कि आखिर किस हार्ट अटैक में बॉडी नीली पड़ती है और किस हार्ट अटैक में शरीर पर कट्स आते हैं? जब उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने इन बातों पर सवाल उठाए तो वहां मौजूद किसी व्यक्ति ने तेजी से शास्त्री जी के शव पर चंदन पोत दिया ताकि बॉडी पर आया नीलापन छिपाया जा सके। बाद में उनकी पत्नी ने सार्वजनिक रूप से कहा भी कि उन्हें शक है कि उनके पति को जहर दिया गया था। उनका यह शक इसलिए भी पुख्ता होता है क्योंकि इतनी संदिग्ध परिस्थितियों में हुई मौत के बावजूद भारत सरकार ने शास्त्री जी का पोस्टमार्टम नहीं कराया था। ऐसा माना जाता है कि सोवियत सरकार ने शास्त्री जी की बॉडी का पोस्टमार्टम कराने की पेशकश की थी। लेकिन भारतीय अधिकारियों ने पोस्टमार्टम कराने से मना कर दिया था। लेखक अनुजधर और मल्टीपल सोर्सेस के अनुसार तत्कालीन भारतीय राजदूत टीएन कॉल ने पोस्टमार्टम कराने से मना कर दिया था। जिनके कुक जान मोहम्मद ने शास्त्री जी के लिए उनका आखिरी खाना तैयार किया था। कुछ रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि तत्कालीन रक्षा मंत्री वाईबी चौहान ने भी यह तर्क देते हुए पोस्टमार्टम से इंकार कर दिया था कि इससे अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर बुरा असर पड़ सकता है। शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री ने उनकी डेथ को अननेचुरल बताते हुए हाई लेवल इन्वेस्टिगेशन की मांग की। लेकिन सरकार की ओर से कोई कार्रवाई नहीं हुई। 4 अक्टूबर 1970 को फेमस वीकली मैगज़ीन धर्म युग को दिए एक इंटरव्यू में ललिता शास्त्री ने कई अहम बातें सामने रखी। उन्होंने बताया कि जब शास्त्री जी बेहोश हो रहे थे तब वह बार-बार उस थर्मस फ्लास्क की तरफ इशारा कर रहे थे जिससे उन्हें पानी दिया गया था। 

शुरुआत में वहां मौजूद डॉक्टर चुक को लगा कि शायद उन्हें प्यास लगी है। लेकिन जब पानी दिया गया तो उन्होंने उसे नहीं पिया। ललिता शास्त्री ने इसी पर संदेह उठाया कि क्या शास्त्री जी को एहसास हो गया था कि उस फ्लास्क में कुछ गड़बड़ है और वह यही बात इशारे से बताना चाह रहे थे। सबसे अहम बात यह थी कि उस थर्मस फ्लास्क को शास्त्री जी अपने साथ लेकर चलते थे। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उस बोतल को वापस भारत नहीं लाया गया और ना ही वह बोतल फिर कभी कहीं मिल सकी। शास्त्री जी की पर्सनल डायरी को भी उनके निधन के बाद गायब कर दिया गया। इसके अलावा एक और बात ने शक को और गहरा दिया। शुरुआत में शास्त्री जी को एक होटल में ठहराया जाना था और सभी तैयारियां वहीं की गई थी। लेकिन अचानक आखिरी वक्त पर उनके स्टे को वहां से बदलकर 250 गज दूर एक विला में शिफ्ट कर दिया गया। आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि ऐसा क्यों किया गया। इन तमाम अनसुलझे सवालों और पोस्टमार्टम ना कराने की वजह से यह शक गहरा होता चला गया कि क्या भारत के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की हत्या की गई थी? इसके बाद कई थ्योरी सामने आई। 

जिन्होंने इस मामले को एक जटिल और रहस्यमई पहेली बना दिया। इनमें से कई कांस्परेसी थ्योरीज में दावा किया गया कि शास्त्री जी को जहर दिया गया था जिससे उनके शरीर पर नीले निशान पड़ गए। इस थ्योरी को उनके परिवार के बयानों से बल मिला। इसके बाद शक की सुई सबसे पहले अमेरिका की इंटेलिजेंस एजेंसी सीआईए की ओर घूमी। उस समय भारत एक इंपॉर्टेंट जियोपॉलिटिकल मोड़ पर था। कोल्ड वॉर के दौरान अमेरिका नहीं चाहता था कि भारत सोवियत संघ के करीब जाए। खासतौर पर जब भारत अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम की ओर तेजी से बढ़ रहा था। इससे जुड़ा एक बड़ा दावा सीआईए के पूर्व अधिकारी रॉबर्ट क्राउली के हवाले से आया जिसे पत्रकार ग्रेगरी डगलस की बुक में कोट किया गया है। इन दावों के अनुसार सीआईए ने भारत के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए डॉ. होमी जहांगीर भाबा और लाल बहादुर शास्त्री दोनों की हत्या की साजिश रची थी। शास्त्री जी की मौत के ठीक दो हफ्ते बाद 24 जनवरी 1966 को होमी जहांगीर बाबा की भी एक प्लेन क्रैश में मौत हो गई थी। यह दोनों मामले लगभग एक ही महीने के भीतर होना कोई कोइंसिडेंस नहीं बल्कि एक सोची समझी साजिश जैसा प्रतीत होता है। 

इसके बाद एक थ्योरी सोवियत खुफिया एजेंसी केजीबी की भूमिका पर भी सवाल खड़े करती है। उस दौर में केजीबी को दुनिया की सबसे खतरनाक स्पाई एजेंसी माना जाता था। कहा जाता है कि केजीबी इतनी ताकतवर थी कि कभी-कभी सोवियत राष्ट्रपति भी उसके ऑपरेशन से अनजान रहते थे। कई इंटरनेशनल नेताओं की अससिनेशन केजीबी के लिए आम बात थी। कुछ रिपोर्ट्स में यह दावा किया गया कि सोवियत संघ भारत को कमजोर करना चाहता था या भारत में किसी ऐसे नेता को स्थापित करना चाहता था जो उनके लिए ज्यादा फेवरेबल हो। 

शास्त्री जी अपनी स्पष्ट सोच और मजबूती के लिए जाने जाते थे। उन्होंने वियतनाम युद्ध के दौरान अमेरिका की निंदा की थी यह जानते हुए भी कि इससे भारत को मिलने वाली फूड ग्रेन सप्लाई रुक सकती है। यानी वह किसी के दबाव में आने वालों में से नहीं थे। कहा जाता है कि सोवियत को डर था कि कहीं शास्त्री जी वापस भारत लौटकर इस समझौते से अपना रुख ना बदल ले। ऐसा होने पर सोवियत जो खुद को अमेरिका से सुपीरियर साबित करने में लगा था उसकी छवि पर बुरा असर पड़ता और इसी वजह से शायद शास्त्री जी को रास्ते से हटा दिया गया।

हालांकि इन दावों की पुष्टि करने वाला कोई स्ट्रांग एविडेंस नहीं मिलता। इसके उलट एक मत यह भी है कि अगर सोवियत को शास्त्री जी को मारना ही होता तो वह इसके लिए अपनी जमीन को नहीं चुनता और ना ही भारत सरकार से पोस्टमार्टम करने की इच्छा जताता। कुछ थ्योरीज में यह भी दावा किया गया कि भारत के कुछ शक्तिशाली लोग जो शास्त्री जी की लीडरशिप के अगेंस्ट थे या खुद पावर कंट्रोल करना चाहते थे, वह भी शास्त्री जी की हत्या की इस साजिश में शामिल थे। यह सबसे संवेदनशील आरोप है। लेकिन भारत सरकार की लाल बहादुर शास्त्री की डेथ को लेकर दिखाई गई नॉन सीरियसनेस से इन आरोपों को बहुत बल मिलता है। शास्त्री जी की मृत्यु के बाद भारत सरकार ने हमेशा यही कहा कि यह एक नेचुरल डेथ थी। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे विपक्ष के कई नेताओं ने इस मौत पर कई सवाल उठाए। राम मनोहर लोहिया ने तो यहां तक कहा था कि शास्त्री मरे नहीं मारे गए थे। उन्होंने भारत सरकार से इन्वेस्टिगेशन की भी मांग की। लेकिन सरकार ने ना तो जांच की और ना ही सवालों के जवाब दिए।

शास्त्री जी का परिवार लगातार जांच की मांग करता रहा लेकिन हर बार ये मांगे ठुकरा दी गई। लेकिन साल 1977 में जब भारतीय राजनीति में एक बड़ा बदलाव हुआ और चुनाव में कांग्रेस को पछाड़कर जनता पार्टी सरकार में आई तो ललिता शास्त्री की मांग पर 1977 में समाजवादी नेता राज नारायण के नेतृत्व में शास्त्री जी की मृत्यु की जांच के लिए एक कमेटी का गठन किया गया। जिसे राज नारायण कमेटी के नाम से जाना जाता है। इस कमेटी ने कुछ रिपोर्टें और दस्तावेज इकट्ठा किए और कुछ गवाहों से भी बात की लेकिन इसे कभी भी आधिकारिक शक्तियां नहीं दी गई और इसकी रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। 

शास्त्री जी के पर्सनल डॉक्टर आर्यन चुग जो ताशकंद में उस रात शास्त्री जी के साथ थे उन्हें भी इस मामले में राजनारायण कमेटी ने पूछताछ के लिए बुलाया था। लेकिन इससे पहले कि वह अपना बयान दर्ज करवाते, उससे पहले ही एक सड़क हादसे में उनकी और उनके परिवार की मौत हो गई। उनकी कार को एक तेज रफ्तार ट्रक ने कुचल दिया था। शास्त्री जी के पर्सनल असिस्टेंट रामनाथ जो इस केस के एक और अहम गवाह थे। उनके साथ भी एक सड़क हादसा हुआ जिसमें उनकी याददाश्त चली गई।

दुर्घटना में उनका एक पैर भी टूट गया और वह विकलांग हो गए। इस केस के सबसे महत्वपूर्ण दोनों गवाहों के साथ हुई यह घटनाएं कई गंभीर सवाल खड़े करती है। इसके अलावा सोवियत यूनियन में भारत के एंबेसडर रहे टीएन कॉल के पर्सनल शेफ जान मोहम्मद जिसने शास्त्री जी के लिए आखिरी खाना तैयार किया था उससे भारत में कभी कोई जांच नहीं की गई। रिपोर्ट्स के मुताबिक जान मोहम्मद के साथ-साथ अहमद सत्तारोफ जो उस रात शास्त्री जी का खाना तैयार करने में उनकी मदद कर रहा था। दोनों पर सोवियत एजेंसियों को शक हुआ था। 

इसलिए शास्त्री जी की मौत के कुछ घंटे बाद ही दोनों को कस्टडी में लेकर पूछताछ की गई थी। लेकिन भारत सरकार ने कभी इस बात की जानकारी सार्वजनिक नहीं होने दी कि उनसे क्या पूछताछ हुई और क्या जवाब मिले। इतना ही नहीं कुछ समय बाद जान मोहम्मद को भारत में राष्ट्रपति भवन में नौकरी भी दे दी गई और सोवियत यूनियन में भारत के एंबेसडर रहे टीएन कॉल का भी प्रमोशन कर दिया गया। जर्नलिस्ट कुलदीप नयर जो ताशकंद में उस समय शास्त्री जी के मीडिया एडवाइजर के तौर पर मौजूद थे।

उन्होंने भी इस मौत को नेचुरल नहीं माना। लेकिन उस समय फॉरेन सेक्रेटरी बन चुके टीएन कॉल बार-बार उन पर दबाव बनाते रहे कि सरकार ने जो बयान दिया है वही आखिरी है और उसी पर टिके रहना है। शास्त्री जी की मौत को लेकर सवाल उठाने वाले एक और चर्चित नाम थे दया भाई पटेल। यह कोई और नहीं बल्कि भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के बेटे थे। उन्होंने इस पर एक किताब लिखी थी बॉस शास्त्री मर्डर्ड। लेकिन ये किताब भारत में बैन कर दी गई और आज भी इसे ढूंढना मुश्किल है। साल 2009 में लेखक अनुज धर ने इस केस से जुड़े दस्तावेजों को लेकर आरटीआई लगाई थी। जवाब में प्राइम मिनिस्टरर्स ऑफिस ने कहा कि शास्त्री जी की मौत से जुड़ा सिर्फ एक ही दस्तावेज मौजूद है और उसे क्लासिफाइड रखा गया है क्योंकि उसका खुलासा भारत के फॉरेन रिलेशंस को नुकसान पहुंचा सकता है। 

साल 2018 में एक बार फिर यह मुद्दा तब उठा जब सेंट्रल इंफॉर्मेशन कमीशन ने मांग की कि शास्त्री जी की मौत से जुड़े दस्तावेजों को पब्लिक किया जाए। उन्होंने राज नारायण कमेटी की रिपोर्ट को भी पब्लिश करने की सिफारिश की। लेकिन सरकार ने जवाब दिया कि यह सारे दस्तावेज क्लासिफाइड है और इन्हें सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। इस तरह सरकार का रवैया ही जनता के बीच शक को और गहरा करता गया। 

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि अगर सरकार के पास छिपाने जैसा कुछ नहीं है तो इतने दशकों से अभी तक इस मामले में ट्रांसपेरेंसी क्यों नहीं रखी गई? लाल बहादुर शास्त्री की डेथ आज भी एक अनसुलझा राज है। उनकी मौत एक ऐसी घटना है जो इतिहास में दर्ज तो हो गई लेकिन उसके पन्ने आज भी अधूरे हैं। उनकी मृत्यु को लगभग 59 साल बीत चुके हैं लेकिन आज भी वह सवाल जिंदा है कि आखिर देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत कैसे हुई? 

ताशकंद में उस रात जब लाल बहादुर शास्त्री ने अंतिम सांस ली तो उन्होंने सिर्फ अपना शरीर नहीं छोड़ा बल्कि वह पीछे एक ऐसा रहस्य भी छोड़ गए जो भारत के इतिहास में एक अनसुलझी पहेली बनकर रह गया है।

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