Gorkha Vs डकैत: जब 40 डकैतों पर भारी पड़ा एक Gorkha सैनिक | Bishnu Prasad Shrestha

Sourav Pradhan
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2 सितंबर 2010 की बात है। रात का वक्त था। रांची से चलने वाली एक ट्रेन मौर्य एक्सप्रेस अपने रूट पर चली जा रही है। ट्रेन का लास्ट स्टेशन है गोरखपुर। लेकिन इसी ट्रेन में बैठे एक शख्स को थोड़ा और आगे जाना है। 35 साल के विष्णु प्रसाद श्रेष्ठ।

भारतीय सेना की 7/8 गोरखा राइफल्स में नायक पद पर थे। विष्णु रिटायर होकर अपने घर जा रहे हैं नेपाल। ट्रेन घनी जंगलों के बीच गुजर रही थी। तभी अचानक जोर का झटका लगा और ट्रेन रुक गई। अंधेरी रात सुनसान जंगल। डिब्बे में सो रहे लोग हड़बड़ा कर उठ बैठते हैं। फुसफुसाहट शुरू होती है। कोई कहता है सिग्नल खराब होगा। कोई कहता है इंजन में गड़बड़ी होगी। लेकिन असली वजह क्या थी? 

वजह अब दरवाजे तोड़कर अंदर दाखिल होने वाली थी। मौत का सामान लिए हुए। चाकू, तलवारें, देसी कट्टे और उन्हें चलाने वाले वैशी हाथ। लगभग 30-40 लुटेरे थे। यह कोई मामूली चोरी नहीं थी। यह एक संगठित हमला था। एक चलती फिरती ट्रेन पर डाका था। आज की कहानी उसी रात की है। उसी ट्रेन की है और उसी गोर्खा सैनिक की है जिसने अपने सामने होते हुए खूनी खेल को देखा और फिर अकेले ही उसका रुख मोड़ने की ठान ली। 

क्या हुआ जब एक अकेले गोर्खा सैनिक का सामना 40 डाकुओं से हुआ। कहानी जानेंगे आज के इस आर्टिकल में।

विष्णु प्रसाद श्रेष्ठ 1975 में पश्चिमी नेपाल के पर्वत जिले में जन्म हुआ। परिवार का सेना से पुराना नाता था। उनसे पहले उनके पिता गोपाल बाबू श्रेष्ठ भी 7/8 जीआर में सेवा दे चुके थे। पिता की राह पर चलते हुए विष्णु ने भी भारतीय सेना की गोर्खा रेजीमेंट जॉइ की। अपनी मेहनत और लगन से वह नायक के पद तक पहुंचे। गोर्खा सैनिक अपनी बहादुरी, अनुशासन और वफादारी के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। विष्णु ने अपनी सर्विस के दौरान कई मुश्किल हालात और संघर्ष वाले इलाकों में देश की सेवा की थी। सालों की इस चुनौतीपूर्ण नौकरी के बाद 2010 में उन्होंने वॉलंटरी रिटायरमेंट लेने का फैसला लिया ताकि वह नेपाल लौटकर अपने परिवार के साथ बाकी की जिंदगी बिता सके। 

2 सितंबर की रात वो मौर्य एक्सप्रेस में सवार थे अपनी नई जिंदगी की तरफ बढ़ते हुए लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। रांची से निकली मौर्य एक्सप्रेस पश्चिम बंगाल और झारखंड की सीमा में दाखिल हुई। यह इलाका घने जंगलों के लिए जाना जाता था और पहले भी यहां ट्रेनों में लूटपाट की कुछ घटनाएं हो चुकी थी। रात के सफर में अक्सर जैसा होता है ज्यादातर यात्री सो रहे थे और सोने की तैयारी में भी थे। एसी कोच की हल्की ठंडक में लोग अपनी बर्थ पर सिमटे हुए थे। रात के लगभग 1 से 2:00 बजे के बीच अचानक जोर के झटके लगे और ट्रेन बीच जंगल में रुक गई। किसी ने शायद वैक्यूम होच काटकर या इमरजेंसी चैन खींचकर ट्रेन रोकी थी। 

यह डाकुओं का पुराना तरीका था। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता डिब्बे के बाहर हलचल तेज हो गई। पत्थरबाजी की आवाजें आई और फिर जोर लगाकर दरवाजे खोल दिए गए। एक-एक करके लगभग 30 से 40 लोग डिब्बे में घुस आए। उनके हाथों में चमकते हुए हथियार थे। चाकू थी, लंबी तलवारें थी और कुछ के हाथों में देसी कट्टे या तमंचे भी नजर आ रहे थे। ऐसा लग रहा था कि यह एक प्लान के तहत किया गया हमला था। कुछ लुटेरे शायद पहले से ही यात्री बनकर ट्रेन में सवार थे जिन्होंने अंदर से मदद की होगी। आते ही उन्होंने हिंदी में गालियां देते हुए चिल्लाना शुरू कर दिया। इसके बाद लूटपाट शुरू हो गई। 

वो एक-एक सीट पर जाते, लोगों को धमकाते और उनका सामान छीनते। पर्स, सोने की चैन, अंगूठियां, घड़ियां, मोबाइल, फोन, लैपटॉप, कैश जो भी हाथ लगा सब लूट लिया गया। जिसने जरा भी आनातानी की या विरोध करने की कोशिश की उसे बेरहमी से पीटा भी गया। एक आदमी ने अपना लैपटॉप बैग बचाने की कोशिश की तो उसके सिर पर कट्टे की बड से हमला कर दिया गया। एक महिला ने अपनी सोने की बालियां देने में देर की। इंकार किया तो लुटेरे ने झटके मारकर उनके कान से ही बाली खींच ली। कान से खून बहने लगा। बच्चों की रोने की आवाजें और औरतों की चीखें लुटेरों की गालियों के साथ मिल रही थी। डिब्बे में दहशत का माहौल छा गया। जब यह घटना घट रही थी, यात्रियों की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार रेलवे पुलिस फोर्स के जवान कहीं नहीं थे। 

बाद में पता चला कि वह शायद ट्रेन के किसी दूसरे हिस्से में थे। नतीजा यह था कि सैकड़ों बेगुनाह यात्री लुटेरों के सामने पूरी तरह असहाय थे। करीब 15 से 20 मिनट तक लूटपाट का यह सिलसिला चलता रहा। हर कोई बस यही दुआ कर रहा था कि उनकी जान बच जाए। विष्णु श्रेष्ठ अपनी सीट पर बैठे यह सब कुछ देख रहे थे। जब लुटेरे उनके पास पहुंचे तो उन्होंने भी स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए टकराव से बचने के लिए अपना पर्स और मोबाइल फोन उन्हें दे दिया। एक सैनिक होने के नाते वे जानते थे कि कब लड़ना है और कब पीछे हटना है। इस वक्त इतने सारे हथियार बंद दुश्मनों से अकेले भिड़ना शायद समझदारी भी नहीं थी। लेकिन तभी उनकी नजर कुछ सीट आगे बैठे एक परिवार पर पड़ी। वहां पांच छह लुटेरे एक 18 साल की लड़की को घेर कर खड़े थे। 

लड़की के मां-बाप रोते हुए उनसे विनती कर रहे थे। उसे छोड़ दो। हमारा सब कुछ ले लो पर उसे छोड़ दो। लेकिन लुटेरे उन पर हंस रहे थे। उनकी नियत बहुत खराब लग रही थी। वह लड़की को जबरदस्ती खींचने की कोशिश कर रहे थे। लड़की चीख रही थी। बचने की पूरी कोशिश भी कर रही थी। यह सब देखकर विष्णु श्रेष्ठ से रहा नहीं गया। उनके अंदर का गोर्खा जाग उठा। वह अपनी सीट से खड़े हुए। उन्होंने जोर से उन लुटेरों को ललकार दिया। लुटेरे चौंक कर उनकी तरफ मुड़े। शायद उन्हें लगा कि यह अकेला आदमी क्या ही कर लेगा। लेकिन अगले ही पल विष्णु ने वह किया जिसकी लुटेरों ने कल्पना भी नहीं की थी। उन्होंने अपनी कमर से खुखरी निकाल ली। खुखरी हाथ में आते ही विष्णु उन लुटेरों पर टूट पड़े जो लड़की के पास थे। पहला लुटेरा जिसने चाकू उठाया विष्णु के एक ही वार से जख्मी होकर पीछे गिरा। दूसरा आगे बढ़ा। उन्होंने वार रोका और खुखरी उसके शरीर में उतार दी। वो वहीं ढेर हो गया। यह देखकर डिब्बे में फैले बाकी लुटेरे भी विष्णु की तरफ भागे। अब वह सीधी लड़ाई थी। एक अकेला गोर्खा सैनिक बनाम 30 से ज्यादा हथियार बन डाकू। 

कोच का तंग गलियारा युद्ध का मैदान बन गया। लुटेरे चाकुओं और तलवारों से हमला कर रहे थे। विष्णु अपनी खुखरी को ढाल और हथियार दोनों की तरह इस्तेमाल कर रहे थे। उनकी फुर्ती देखने लायक थी। वो एक साथ कई हमलों से बचते और पलटवार करते। एक लुटेरे ने पीछे से पकड़ना चाहा। उन्होंने घूमकर ऐसा वार किया कि वह चीखता हुआ नीचे गिर पड़ा। एक और तलवार लेकर आया। उन्होंने उसकी कलाई पर वार करके तलवार ही गिरा दी। इस पूरी लड़ाई में विष्णु को भी चोटें आई। एक चाकू उनके बाएं हाथ पर लगा। गहरा घाव बन गया। खून तेजी से बहने लगा लेकिन विष्णु रुके नहीं। लड़ने के जज्बे ने उनका दर्द भुला दिया था। उन्होंने एक और लुटेरे को मारा। अब तक तीन लुटेरे मर चुके थे और आठ से ज्यादा गंभीर रूप से जख्मी होकर जमीन पर पड़े कराह रहे थे। 

कोच की जमीन खून से सन गई थी। बाकी लुटेरों को अब यह समझ आ चुका था कि यह कोई आम आदमी नहीं है। इससे जीतना मुश्किल है। इस बीच रेलवे पुलिस के आने का डर भी बन गया था। लुटेरों की हिम्मत जवाब दे गई। उन्होंने अपने मरे हुए और घायल साथियों को वहीं छोड़ा और बाकी लूटा हुआ सामान लेकर ट्रेन से कूद भागे। लुटेरों के भाग जाने के बाद डिब्बे में धीरे-धीरे शांति लौटी। लेकिन वह शांति डर और सदमे से भरी हुई थी। लोग अभी भी कांप रहे थे। विष्णु श्रेष्ठ लहूलुहान हालत में वहीं खड़े थे। उन्होंने उस लड़की की तरफ देखा जो सुरक्षित थी। उसके मां-बाप रोते हुए विष्णु के पैर छूने लगे। कुछ देर बाद ट्रेन फिर से चली और अगले स्टेशन पर पहुंच गई। पुलिस, रेलवे अधिकारी, एंबुलेंस सब पहुंच गए। यात्रियों ने पुलिस को पूरी घटना बताई और बताया कि कैसे विष्णु श्रेष्ठ ने अकेले ही उनकी जान बचाई। 

विष्णु और दूसरे घायल यात्रियों को तुरंत अस्पताल ले जाया गया। उनके बाएं हाथ में कई टांके लगे। जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने अपनी जान खतरे में क्यों डाली? तो उनका जवाब सीधा था। मैं एक सैनिक हूं। मैं किसी लड़की के साथ ऐसा होते हुए नहीं देख सकता। मुझे लड़ना ही था। 

विष्णु श्रेष्ठ रिटायर हो चुके थे। लेकिन इस बहादुरी के लिए उन्हें सेना मेडल और उत्तम जीवन रक्षा पदक जैसे प्रतिष्ठ पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। रेलवे और कई दूसरी संस्थाओं ने भी उन्हें सम्मानित किया। विष्णु श्रेष्ठ ने उस रात ना सिर्फ अपनी जान बचाई बल्कि कई लोगों की जान, माल और एक लड़की की इज्जत भी बचाई। उन्होंने गोर्खा रेजीमेंट के नाम को और भी ज्यादा ऊंचा किया।

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