Battle of Khalubar: The Toughest Fight in the Kargil War | Epic story of Captain Manoj Pandey

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1999 के शुरुआती महीनों में एलओसी को पार कर कारगिल में घुस चुके पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने के लिए इंडियन आर्मी का ऑपरेशन विजय जारी था। इस घमासान युद्ध को शुरू हुए 2 महीने बीत चुके थे और भारतीय सेना ने अपने साहस, रणनीति और वीरता के दम पर दराज सेक्टर के तोलोलिंग टॉप और आसपास की कुछ अहम चोटियों पर जीत दर्ज कर ली थी। लेकिन इस बीच बटालिक सेक्टर का खालूबार भारतीय सेना के लिए बहुत बड़ी चुनौती बना हुआ था। 

पाकिस्तान ने खालूबार और उसके आसपास की पहाड़ियों को बटालिक सेक्टर में अपनी सुरक्षा का केंद्र बना रखा था। इसके अलावा इस ऊंचाई से पाकिस्तानी सैनिक बटालिक सेक्टर में भारतीय फौज की हर एक्टिविटी पर नजर रख रहे थे। ऐसे में दुश्मन को खालूबार से खदेड़ना भारतीय सेना के लिए एक जरूरी रणनीतिक कदम बन गया था। लेकिन मुश्किल यह थी कि खालूबार तक पहुंचने के लिए भारतीय जवानों को लगभग 80° के एंगल पर 16,000 फीट की सीधी खड़ी नुकीले पत्थरों वाली पहाड़ियों पर चढ़ाई करनी थी। तापमान शून्य से भी नीचे था। हवाएं बेहद सर्द थी और ऊपर से पाकिस्तानी पोस्ट से लगातार हैवी फायरिंग हो रही थी। जिसने चढ़ाई को और भी मुश्किल बना दिया था। 

जून में भारतीय सेना खालूबार को कब्जे में लेने की दो बार कोशिश कर चुकी थी। लेकिन दोनों प्रयास असफल रहे। इसलिए 2 जुलाई को इस मिशन की जिम्मेदारी 11 गोखा राइफलल्स को सौंपी गई जो अपने अदम्य साहस और दृढ़ संकल्प के लिए जानी जाती है। लगभग 100 जवानों की टीम ने भीषण सर्दी और लगातार गोलीबारी के बीच बिना रुके 14 घंटे की चढ़ाई पूरी की। हालात इतने कठिन थे कि खालूबार टॉप तक पहुंचते-पहुंचते 30 भारतीय जवान शहीद हो गए थे। लेकिन इसके बावजूद खालूबार की चोटियों पर पहुंचते ही गोर्खा राइफल्स के शेर दुश्मनों पर ऐसा कहर बनकर टूटे कि मात्र 24 घंटे के अंदर उन्हें धूल चटाकर वहां भारतीय तिरंगा फहरा दिया गया। 

आइए जानते हैं कारगिल युद्ध की टफेस्ट बैटल मानी जाने वाली बैटल ऑफ खालूबार की पूरी कहानी।

कौन था वो वीर जवान जिसने अकेले ही पाकिस्तान सेना के चार बंकरों को तबाह कर कई पाकिस्तानियों को मिट्टी में मिला दिया था।

और आखिर जिस लड़ाई को दो कोशिशों के बाद भी जीता नहीं जा सका था, उसे 11 गोखा राइफल्स ने कैसे अपने नाम कर लिया? 

खालूबार वह लड़ाई है जिसने दिखाया कि मौत सामने होने पर भारतीय सैनिक किस तरह लड़ता है। जब खलूबार कैप्चर हो गया, ऑफ कोर्स दिल में सैडनेस तो थी। पाकिस्तानियों ने भी कभी सोचा नहीं था कि ऐसे हो सकता है। लेकिन हमने करके दिखाया है। सारी दुनिया जानती है और सारी दुनिया सलूट करती है कि इंडियन आर्मी को हाईएस्ट बैटल फील्ड इन द वर्ल्ड में ऐसे इन्होंने पराक्रम किया।

हर साल सर्दियों में कारगिल की ऊंचाई पर मौजूद कई पोस्ट को भारतीय सेना खाली कर देती थी। क्योंकि इस दौरान टेंपरेचर -30 से -4° सेल्सियस तक गिर जाता था। भारी बर्फबारी की वजह से लॉजिस्टिकल सपोर्ट की भारी दिक्कतें होती थी और ऐसे हालात में सैनिकों के लिए महीनों तक वहां टिके रहना बेहद मुश्किल हो जाता था। मई 1999 में पाकिस्तान ने इसी मौके का फायदा उठाया। पाकिस्तान ने ऑपरेशन बद्र के तहत एलओसी को पार कर कारगिल के बर्फीले पहाड़ों में अंदर तक घुसपैठ की और खाली पड़े स्ट्रेटेजिक पोस्ट पर अपना कब्जा जमा लिया। इस घुसपैठ का मकसद सिर्फ कुछ चोटियों पर कब्जा करना नहीं था बल्कि पाकिस्तान की साजिश इससे कहीं ज्यादा गहरी थी। पाकिस्तान NH 1a जो श्रीनगर को लद्दाख से जोड़ता है उसको डिस्ट्रॉय करना चाहता था ताकि सियाचिन ग्लेशियर की सप्लाई लाइन कट जाए और इसके चलते पाकिस्तान भारत को कश्मीर के मुद्दे पर अपनी शर्तों पर बातचीत करने के लिए मजबूर कर सके। 

खालूबार टॉप पाकिस्तान की इसी स्ट्रेटजी का एक अहम हिस्सा था जिस पर पाकिस्तान की सेना ने मई के पहले हफ्ते में कब्जा कर लिया था। खालूबार बटालिक सेक्टर में एलओसी के पास मौजूद एक ऊंची स्ट्रेटेजिक रिज है। इस इलाके में एलओसी बटालिक और मरोल के बीच बहती सिंधु नदी को पार करती है। यहीं से पाकिस्तान की नदर्न लाइट इनफेंट्री एनएलआई के सैनिक एलओसी को पार कर भारतीय सीमा में करीब 8 से 10 कि.मी. अंदर बटालिक के ईस्ट और चोरबत ला के वेस्ट में दाखिल हो चुके थे। इस तरह बटालिक सेक्टर में पाकिस्तानी सेना ने करीब 16,000 फीट ऊंची भारत की चार इंपॉर्टेंट रिज लाइंस जुबार, कुकरथांग, खालूबार और 0.5203 को अपने कब्जे में ले लिया था। इनमें से सबसे अहम खालूबार था क्योंकि इसके ठीक पीछे पाकिस्तान की फाइव नदर्न लाइट इनफेंट्री ने रसद की सप्लाई लाइन बनाई हुई थी। जिस वजह से खालूबार बटालिक सेक्टर में पाकिस्तान की सुरक्षा का केंद्र बन चुका था। 

16,000 फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर स्थित खालूबार पाकिस्तान के लिए पूरे बटालिक सेक्टर पर नजर रखने, अपने सैनिकों को कमांड देने और किसी भी युद्ध की स्थिति में सप्लाई मैनेज करने का एक परफेक्ट पॉइंट बन चुका था। भारत की तरफ से कोई कार्रवाई होने पर इन ऊंचाइयों से पाकिस्तानी ट्रूप्स भारतीय सैनिकों पर सीधे हैवी फायर भी कर सकते थे। इसके अलावा पाकिस्तान ने खालूबार के पास स्थित मुंथो ढालो को अपने एडमिनिस्ट्रेटिव बेस बना लिया था और यहीं से वह अपने फॉरवर्ड पोस्ट को राशन, एमुनेशन और रीइंफोर्समेंट सप्लाई कर रहा था। इन सभी वजहों के चलते खालूबार को वापस हासिल करना सिर्फ एक टैक्टिकल ऑब्जेक्टिव ही नहीं बल्कि एक स्ट्रेटेजिक नेसेसिटी बन चुका था। जब तक खालूबार पाकिस्तान के कब्जे में रहता तब तक यलदोर, जंकलंगपा रीजंस, कुकरथांग रिज और चोरबतला एक्सिस जैसे इलाकों को भी दुश्मन से सुरक्षित करना मुश्किल था। इसलिए कारगिल की पहाड़ियों से पाकिस्तानियों को खिदड़ने के लिए पाकिस्तान की सप्लाई लाइन को जल्द से जल्द काटना जरूरी हो गया था।

इसलिए हमले की खबर लगते ही सबसे पहले 8 मई को ब्रिगेडियर देवेंद्र सिंह के नेतृत्व में 70 इनफेंट्री ब्रिगेड के हेड क्वार्टर को कारगिल सेक्टर में शामिल करा के उन्हें बटालिक सब सेक्टर की सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी गई ताकि दुश्मन किसी भी कीमत पर लेह बटालिक कारगिल रोड पर अपना नियंत्रण ना बना सके। खालुबार पर पाकिस्तान की पकड़ कारगिल युद्ध के दौरान उसकी सबसे बड़ी ताकत बन चुकी थी। ऊंचाई और ज्योग्राफी का पूरा फायदा उठाकर पाकिस्तान इस रिच को ना सिर्फ सर्वेलियंस पॉइंट बल्कि पूरी सप्लाई चेन के कंट्रोल सेंटर की तरह इस्तेमाल कर रहा था। 

खालूबार समेत बटालिक की सभी पीक्स को रिककैप्चर करने के लिए भारतीय सेना ने 11 बटालियन की ताकतवर सेना तैनात की। पूरा अभियान कई फेसेस में बांटा गया था ताकि सिस्टमैटिकली दुश्मन की पकड़ को एक-एक कर तोड़ा जा सके। फर्स्ट फेज में दुश्मन की घुसपैठ की गहराई, उनकी पोजीशनिंग और फायर पावर का सही आकलन करना जरूरी था। इसके लिए 11 गोखा राइफल और 12 जम्मू एंड कश्मीर लाइट इनफेंट्री को शुरुआती कारवाई सौंपी गई। उनके साथ इस टास्क में 15 फील्ड रेजीमेंट की दो बैटरीज को भी शामिल कर लिया गया। 

जैसे-जैसे दुश्मन की तैनाती और पोस्ट का पता चलता गया, भारतीय सेना ने और ज्यादा ताकत जुटानी शुरू कर दी। जल्द ही 1 बिहार और 10 पैरा को भी इसमें शामिल किया गया ताकि दुश्मन पर और मजबूती से हमले किए जा सके। इसके बाद 5 पैरा, लद्दाख स्काउट्स, 17 गवाल राइफल्स, 22 ग्रेनेडियर्स और 14 सिख को भी इस सेक्टर में लगाया गया। फायर सपोर्ट को और इंपैक्टफुल बनाने के लिए चार एक्स्ट्रा आर्टिलरी रेजीमेंट्स को मोबिलाइज किया गया जो बोफर्ड्स, तोपों और मल्टीपल बैरल रॉकेट लॉन्चर्स के साथ पाकिस्तानियों के परखच्चे उड़ाने के लिए आगे बढ़े। 

इस फेज के जरिए भारतीय सेना ने दुश्मन की स्थिति का सही आकलन करके ऑपरेशन की नीव तैयार कर ली। अगले फेज में भारतीय सेना ने दुश्मन के कब्जे में जा चुकी ईस्टर्न और वेस्टर्न फ्लैंक्स को सुरक्षित करने पर ध्यान दिया। इसके लिए 20 से 24 मई के बीच स्पेशल फोर्सेस की 10 पैरा और 5 पैरा की एक-एक कंपनियों ने ग्रास्ते दुश्मन की कम्युनिकेशन लाइंस को काटने और थारू रिच पर कब्जा करने का प्रयास किया ताकि पाकिस्तानी सैनिकों का एक दूसरे से कोऑर्डिनेशन टूट जाए और उनके मूवमेंट पर भारी असर पड़े। इसी दौरान 12 जम्मू एंड कश्मीर लाइट इनफेंट्री ने जंक लुंगपा में एक कॉरिडोर इस्टैब्लिश कर लिया जिससे लॉजिस्टिक्स और ट्रूप्स मूवमेंट में भारत को एज मिलने लगी। 

इसका नतीजा यह हुआ कि करीब 1 महीने की घमासान लड़ाई के बाद भारतीय सेना ने 21 जून को 0.5203 पर कब्जा कर लिया जिससे बटालिक सब सेक्टर का ईस्टर्न फ्लैंक पूरी तरह सिक्योर हो गया। इसी बीच 16 जून 1999 को बटालिक सेक्टर में इंडियन एयरफोर्स ने भी एक अहम मिशन को अंजाम दिया था। इंडियन एयरफोर्स के चार मिराज-2000 फाइटर जेट ने मुंथो ढालो इलाके को टारगेट करते हुए दुश्मन के अहम लॉजिस्टिक एंड एडमिनिस्ट्रेटिव कैंप पर 250 किलोग्राम वजन के पूरे 24 बम गिराए। इन हमलों ने दुश्मन के लॉजिस्टिक नेटवर्क को बुरी तरह तबाह कर दिया। 

300 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और 70 पाकिस्तानी टेंट सामान समेत जलकर खाक हो गए। इन हमलों ने दुश्मन की हिम्मत और मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। मुंथो ढालो पर दुश्मन की पोजीशन को कमजोर करने और 0.5203 को जीतने के बाद भारत के सामने अगली चुनौती खालू बार की थी। खालू बार को रिककैप्चर करने के लिए HQ7 इनफेंट्री ब्रिगेड ने एक डिटेल्ड ऑपरेशनल प्लान तैयार किया। इस प्लानिंग के तहत भारतीय जवान जंक लुंगपा में इकट्ठे होकर वहीं से खालूबा रिज लाइन के मल्टीपल पॉइंट्स पर साइमलटेनियस अटैक्स ल्च करने वाले थे। 

लटिनेंट कर्नल चांदओ के नेतृत्व में लद्दाख स्काउट्स को 5000 स्तंगबा और पद्मा गो को कैप्चर करने की जिम्मेदारी दी गई। वहीं 22 ग्रेनेडियर्स को 5287 के आसपास लॉजमेंट ज़ोन इस्टैब्लिश करने का टास्क सौंपा गया। प्लान यह था कि पहले खालूबार के वेस्ट में मौजूद एरिया बम्स को तेजी से कैप्चर किया जाए ताकि पाकिस्तान का पूरा ध्यान वेस्ट की तरफ खींच जाए और उसकी फायर पावर वही कंसंट्रेट हो जाए। 

इस डिस्ट्रैक्शन और पाकिस्तान के खेमे में मचे केओस का फायदा उठाकर भारतीय सेना दुश्मन की मेंटेनेंस रूट्स पर हमला करके सप्लाई लाइंस को पूरी तरह कट कर देना चाहती थी ताकि दुश्मन का ध्यान खालूबार से हट जाए और इसी बीच खालूबार पर डिसाइसिव स्ट्राइक की जा सके। इससे पहले भारतीय सेना 13 जून 1999 को द्रास सब सेक्टर के तोलोलिंक को जीत चुकी थी। तोलोलिंग श्रीनगर लेह हाईवे के बेहद करीब एक और स्ट्रेटेजिकली वाइटल पीक है जिसका कंट्रोल हाईवे की सिक्योरिटी के लिए क्रिटिकल था। 18 ग्रेनेडियर्स और 2 राजपूताना राइफल्स ने तीन हफ्ते की कठोर लड़ाई के बाद तोलोलिंग को दोबारा हासिल किया था। 

तोलोलिंग की यह जीत भारतीय सेना के लिए एक मोराल बूस्टर थी। भारतीय सेना ने जो लेसंस वहां सीखे थे उन्हें अब खालूबार की लड़ाई में अप्लाई किया जाना था। 30 जून 1999 को मेजर अजीत सिंह की अगुवाई में 22 ग्रेनेडियर्स ने खालूबार को जीतने के लिए अपना अभियान शुरू कर दिया। खालूबार तक पहुंचने के लिए भारतीय जवान करीब 80° की सीधी खड़ी चढ़ाई कर रहे थे। जिसे रात के अंधेरे में हड्डियां जमा देने वाली सर्दी ने और भी मुश्किल बना दिया था। उनकी परेशानी यहीं खत्म नहीं हुई क्योंकि पाकिस्तानी सैनिक ऊंचाई पर बैठे होने की वजह से टॉप से उनके ऊपर मशीन गन से हैवी फायरिंग कर रहे थे। इस बेहद मुश्किल टेरेन में 22 ग्रेनेडियर्स के जवानों की विकास बटालियन के एक्सपर्ट माउंटेनियर्स लगातार डायरेक्शन और ग्रिप देने में मदद कर रहे थे। उनकी मदद से किसी तरह मेजर अजीत सिंह और उनकी टीम एक रि लाइन पर दुश्मन के बेहद नजदीक पहुंच गई। 

इस दौरान मेजर अजीत सिंह अपनी बटालियन में शामिल मुस्लिम जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए लगातार नारा-ए तकबीर का नारा लगा रहे थे। जिसके जवाब में उनके मुस्लिम साथी अल्लाहू अकबर के नारे लगाकर उनका साथ दे रहे थे। ऐसे में ऊंचाई पर बैठे पाकिस्तानियों को लगा कि उनकी ही कोई टुकड़ी रीइंफोर्समेंट के लिए आ रही है। इसलिए दुश्मन ने 22 ग्रेनेडियर्स के जवानों पर फायरिंग नहीं की। इसी मौके का फायदा उठाकर भारतीय जवान पाकिस्तानियों के बेहद करीब पहुंच गए और उन पर धावा बोलकर दो छोटे फुट होल्ड्स को सिक्योर कर लिया। जैसे ही पाकिस्तानी सैनिकों को सारा माजरा समझ आया, वो भारतीय जवानों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाने लगे। जिसके चलते दो भारतीय जवान शहीद हो गए और कई घायल हो गए। 

खालूबार में दुश्मनों की संख्या ज्यादा थी। इसलिए मेजर अजीत सिंह ने रीइंफोर्समेंट्स की मांग की लेकिन कम्युनिकेशन सिस्टम दुरुस्त नहीं होने से जल्दी मदद नहीं पहुंचाई जा सकी। जिसके चलते गुजरते वक्त के साथ मेजर अजीत सिंह की कंपनी के जवानों और उनके राशन की संख्या कम होती जा रही थी। खालू बार टॉप को जीतना काफी चैलेंजिंग था। इसलिए इस कठिन काम की जिम्मेदारी अब 11 गोखा राइफल्स को सौंपी जाती है। भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानिकश ने एक बार कहा था अगर कोई कहता है कि उसे मौत से डर नहीं लगता तो या तो वह झूठ बोल रहा है या फिर वो एक गोर्खा है। 11 गोखा राइफलल्स के पास सियाचिन और कश्मीर के कठोर इलाकों में लड़ने का एक्सपीरियंस था। यह यूनिट पहले ही 9 मई 1999 से बटालिक सब सेक्टर में डटी हुई थी। 

उन्होंने यलदोर एक्सिस को सिक्योर करके पाकिस्तानी इंट्रूडर्स को रोकने के लिए 70 इनफेंट्री ब्रिगेड्स के शुरुआती ऑपरेशन में क्रूशियल रोल निभाया था। मई और जून के बीच 11 गोखा राइफल्स ने जुबार, चुरूबार, सिस्पो और कुकर थांग जैसे कठिन इलाकों में दुश्मन के डिफेंसेस को भी कमजोर करने का काम किया था। हाई कमांड अच्छे से जानती थी कि 11 गोखा राइफलल्स के जवानों की रगों में वो बहादुरी दौड़ती है जो खालूबार की ऊंची पहाड़ियों से भी दुश्मन को खदेड़ सकती है। 

इसलिए 11 गोखा राइफल्स के पास खालूबार टॉप को कैप्चर करने का आदेश भेज दिया गया। आदेश मिलने के बाद 11 गोखा राइफलल्स की तीन कंपनियां ब्रावो, चार्ली और सीईओ कंपनी तुरंत कर्नल ललित राय के नेतृत्व में यलौर से खालूबार के लिए कूच करने को तैयार हो गई। लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे ब्रावो कंपनी का हिस्सा थे और ब्रावो कंपनी के प्लेटून नंबर फाइव का नेतृत्व कर रहे थे। ब्रावो कंपनी को सबसे आगे चलना था जिसके पीछे सीईओ कंपनी रहने वाली थी और अंत में चार्ली कंपनी होने वाली थी। 

इस समय तक सेना को यह एहसास हो चुका था कि भारतीय सेना के पास मौजूद एसएलआर यानी सेल्फ लोडिंग राइफल इस टरेन और तापमान के लिए सही नहीं है। भारीभरकम और सिंगल शॉट कैपेबिलिटी वाली यह बंदूकें ऊंचाई पर जाम होने लगी थी। ऐसे में कारगिल युद्ध के बीच में ही सैनिकों को नई और हल्की इंसास राइफल्स दी गई जो बर्स्ट मोड में तीन गोलियां एक साथ फायर कर सकती थी और जिनका जाम होने का खतरा बेहद कम था। 4:5 के छोटे बैच में सैनिकों को इन हथियारों की ट्रेनिंग युद्ध के दौरान ही दी गई। सारी तैयारियां पूरी हो जाने के बाद कर्नल ललित राय ने जय महाकाली का जयकारा लगाया और इसी के साथ 2 जुलाई को 11 गोखा राइफल्स की तीनों कंपनियों ने खालू बार की ओर चढ़ाई शुरू कर दी।

खड़ी पहाड़ियों, नुकीली चट्टानों और दुश्मन की लगातार गोलीबारी के बीच भी गोर्खा राइफल्स के जवान आगे बढ़ते चले जा रहे थे। उस समय यहां बर्फबारी हो रही थी और उसका कुछ फायदा भारतीय जवानों को मिला। जब बर्फ गिरती है तो दुश्मन के नाइट विज़न डिवाइसेस बेअसर हो जाते हैं। इसी एडवांटेज का फायदा उठाते हुए गोरखा जवान आगे बढ़ते रहे। दुश्मन की पोजीशंस गोलियों की चमक और आवाज से पहचानी जा रही थी। लूटिनेंट मनोज कुमार पांडे जो उस समय सिर्फ 24 साल के थे, वह दुश्मन तक जल्द से जल्द पहुंचना चाहते थे। इसलिए उन्होंने चढ़ने के लिए अपने पैर ही नहीं बल्कि हाथों का भी इस्तेमाल किया और रेंगते हुए पत्थरों से चिपकते हुए तेजी से ऊपर चढ़ते चले गए। 2 जुलाई को चार्ली कंपनी के कमांडर कर्नल अजय तोमर का जन्मदिन भी था। लेकिन इस बार जन्मदिन पर केक नहीं बल्कि सामने खालूबा रिच की बर्फ से ढकी पहाड़ियां थी। जिनकी चोटियों पर छिपे बैठे दुश्मन ऊपर से गोलियां बरसा रहे थे।

उन्होंने कहीं पढ़ा था कि जो आदमी अपने जन्मदिन के दिन मरता है वह सीधा स्वर्ग जाता है। इसलिए इतने मुश्किल वक्त में उनके दिमाग में यही विचार गूंज रहा था कि खालू बार को जीतने के क्रम में अगर वह शहीद भी हो जाए तो कम से कम उन्हें स्वर्ग तो नसीब हो ही जाएगा। करीब 6 घंटे के लगातार चढ़ाई के बाद सभी जवान स्टॉप पॉइंट तक पहुंच गए। अब यहां से उन्हें आगे खालू बार बेस तक पहुंचना था। जहां से अटैक की शुरुआत होनी थी। आगे की चढ़ाई और भी ज्यादा मुश्किल थी। इसलिए जवानों ने हथियारों के अलावा बाकी के सामान को वहीं छोड़ने का फैसला किया। जरूरी बात यह कि वह खाने-पीने का भी सामान पीछे छोड़कर जा रहे थे। 

उन्हें पता था कि आगे अगर यह लड़ाई लंबी चली तो भूख और प्यास उनकी जान भी ले सकती है। लेकिन उस वक्त उन्हें देश की रक्षा के सिवाय कुछ भी नहीं सूझ रहा था। थोड़ी देर बाद जैसे ही सभी जवान आगे बढ़े, जोरदार बर्फबारी होने लगी। इसी बीच एक और परेशानी खड़ी हो गई, इस खराब मौसम में उनका रेडियो कम्युनिकेशन सिस्टम ठप हो गया था। ऐसे में अगर कोई प्लेटून दूसरी से बिछड़ जाती या अगर किसी को इमरजेंसी हेल्प चाहिए होती तो कोई रास्ता नहीं था। लेकिन उन्होंने इस बार भी हालात से हार मानने से इंकार कर दिया। भारतीय जवानों में देशभक्ति और जीत हासिल करने की ललक इतनी ज्यादा थी कि उन्होंने जल्दी ही इस समस्या का भी समाधान निकाल लिया। 

कंपनी हवलदार मेजर जनक बहादुर राय अब एक मैसेंजर की भूमिका निभाने लगे। वह लगातार एक प्लेटून से दूसरी प्लेटून तक दौड़ लगाते और मैसेजेस लेकर आते जाते ताकि स्ट्रेटजी और ऑर्डर सही समय पर सभी तक पहुंच सके। बर्फ से ढकी 16,000 फीट की ऊंची चोटियों पर रात की जानलेवा ठंड में भारतीय जवान बिना थके बिना रुके चढ़ते जा रहे थे। तापमान -29° सेल्सियस तक गिर चुका था। ऊपर से आती दुश्मन की गोलियों और गोलाबारी ने चढ़ाई को और भी मुश्किल बना दिया था। लेकिन इन हालातों में भी अपनी जान पर खेलते हुए गोरखा जवान रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। पूरे 14 घंटे की चढ़ाई के बाद जब वो अपने टारगेट से केवल 500 मीटर की दूरी पर थे, तब तक तीनों कंपनियों के लगभग 30 जवान शहीद हो चुके थे। अब उनकी संख्या घटकर केवल 70 ही रह गई थी। 

जैसे-जैसे भारतीय जवान दुश्मन के नजदीक पहुंच रहे थे, दुश्मन की ओर से की जा रही फायरिंग और भी इंटेंस और इफेक्टिव होती जा रही थी। ऐसे में और आगे बढ़ पाना लगभग इंपॉसिबल था। पाकिस्तान के सैनिक दो तरफ़ा हमले कर रहे थे। एक ओर बंकर एरिया था जहां पाकिस्तानियों ने अपने बंकर बना रखे थे तो दूसरी ओर खालूबार टॉप था जहां से पाकिस्तानी अपने गन पोस्ट बनाकर भारतीय जवानों पर निशाना साध रहे थे। भारतीय जवानों की मैक्सिमम कैजुअल्टीज यहीं से हो रही गोलीबारी के कारण हुई थी। ऐसे में हालात की गंभीरता को समझते हुए कर्नल ललित राय ने अपनी स्ट्रेटजी में थोड़ा बदलाव किया। उन्होंने सभी जवानों को एक साथ इकट्ठा करके दो हिस्सों में बांट दिया। उन्होंने कैप्टन मनोज पांडे को 30 जवानों के साथ उस बंकर एरिया को न्यूट्रलाइज करने के लिए भेजा, जहां से सबसे ज्यादा हैवी फायरिंग हो रही थी और 40 सैनिकों की दूसरी टीम को लेकर कर्नल ललित राय खुद खालू बार टॉप कैप्चर करने के लिए आगे बढ़ने लगे। कर्नल ललित राय का घुटना बुरी तरह जख्मी हो चुका था। लेकिन ना तो उनकी रफ्तार कम हुई और ना जोश। वो बिना किसी शिकन के सबसे आगे तेज-तेज़ चल रहे थे। इधर खालूबार की एक रिज लाइन पर युद्ध करते हुए मेजर अजीत सिंह और उनके 22 ग्रेनेडियर्स के जवानों को 4 दिन बीत चुके थे। ऐसे में जब मेजर अजीत सिंह अपनी राइफल में गोलियां लोड कर रहे थे तो उन्हें रियलाइज हुआ कि उनके पास केवल छह गोलियां बची हैं। उन्होंने तुरंत मैगजीन से दो गोलियां निकालकर अपनी पॉकेट में रख ली। उन्हें ऐसा करते देख उनके एक साथी ने पूछा आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? 

तब मेजर अजीत सिंह ने कहा कि अगर लड़ते हुए दुश्मन से पकड़े जाने की नौबत आ गई तो मैं दुश्मन के हाथों जिंदा पकड़े जाने से अच्छा खुद को शूट कर लूंगा। इसके बाद उन्होंने बाकी की चारों गोलियां लोड की और अपनी कुलदेवी को याद करके उस पाकिस्तानी कंपनी कमांडर पर दाग दी जो लगातार उन पर चिल्ला चिल्ला कर सरेंडर करने का प्रेशर बना रहा था। इस बार किस्मत उनके साथ थी और एक गोली पाकिस्तानी कंपनी कमांडर को जा लगी और वो वहीं ढेर हो गया। इसके कुछ देर बाद ही उन्हें अपनी ओर आते कर्नल ललित राय के नेतृत्व में 11 गोखा राइफल्स के जवान दिखे। काफी दिनों के बाद रिइंफोर्समेंट मिलने से उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा और इसके बाद वो अपने बचे साथी जवानों के साथ कर्नल ललित राय की टीम में शामिल हो गए। 

भारतीय जवानों के आगे बढ़ने के लिए पाकिस्तानी बंकरों से हो रही लगातार गोलीबारी और उसकी मशीन गन पोस्टों को डिस्ट्रॉय करना बेहद जरूरी था। इसलिए भारतीय तोपों ने खालूबार की ऊंचाइयों पर बने दुश्मनों के बंकरों को गोलों से टारगेट करना शुरू कर दिया। इससे पाकिस्तानियों की सप्लाई और कम्युनिकेशन लाइन टूट गई और वह अब सीमा पार बैठे अपने आकाओं से बात नहीं कर पा रहे थे। दुश्मन के बंकरों पर गिर रहे भारतीय गोलों की वजह से लेफ्टिनेंट मनोज पांडे और उनकी टीम को आगे बढ़ने का मौका मिल गया। ऊंचाई पर पहुंचने के बाद कैप्टन मनोज पांडे ने देखा कि वहां पर छह पाकिस्तानी बंकर बने हुए थे। जहां से नॉनस्टॉप हैवी फायरिंग हो रही थी। 

उन्होंने फ्रंट से लीड करते हुए अपने जवानों के साथ पाकिस्तानी बंकरों पर धावा बोल दिया। उनके साथ हवलदार भीम बहादुर दीवान भी थे। जिन्होंने अकेले ही दो बंकरों को ग्रेनेड से उड़ाकर चार पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। लेकिन इस दौरान उनका खुद का शरीर दुश्मन की गोलियों से छलनी हो गया था। जिस वजह से वो दुश्मन से लड़ते हुए देश के लिए शहीद हो गए। उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत उनका सम्मान वीर चक्र से किया गया। अब बंकर एरिया में दुश्मन के चार बंकर बचे हुए थे जहां से भारतीय जवानों पर लगातार हैवी फायरिंग हो रही थी। कैप्टन मनोज पांडे ने आगे बढ़कर पहले बंकर में दुश्मन की गन पोजीशन देख ली और तुरंत जय महाकाली के युद्ध घोष के साथ सीधे दुश्मन के ऊपर सटीक निशाने के साथ फायरिंग की। 

मशीन गन के पीछे बैठा पाकिस्तानी जवान एक सेकंड में वहीं ढेर हो गया। इसके साथ ही कैप्टन मनोज पांडे ने तेजी से एक ग्रेनेड पाकिस्तान सेना के उस पहले बंकर पर फेंका जिससे बंकर सहित उसमें मौजूद पाकिस्तानी सोल्जर भी वहीं ढेर हो गए। लेकिन मनोज पांडे यहीं नहीं रुके। वो चीते की तेजी से दूसरे बंकर की ओर लपक पड़े। लेकिन इस बार वह दुश्मन के इतने नजदीक पहुंच गए कि मुकाबला हैंड टू हैंड कॉम्बैट में बदल गया। वो अकेले दो पाकिस्तानियों से भिड़ गए। उन्होंने झट से अपनी कमर से वह हथियार निकाला जो उनकी रेजीमेंट की पहचान थी। यह हथियार धारदार खोखरी थी जिसे थामने से वह सेना में जुड़ते वक्त हिचकिचाए थे। 

कुछ साल पहले जब उनकी जॉइनिंग के वक्त उन्हें गोर्खा राइफल की परंपराओं के अनुसार एक बकरे की बलि देनी पड़ी थी तो मनोज जो एक स्ट्रिक्ट वेटिलियन थे उस दिन बेहद असहज महसूस कर रहे थे। उस समय उन्होंने खून से सने हाथों को 12 बार धोया था। लेकिन आज वही मनोज पांडे खुखरी दुश्मन पर ऐसे चला रहे थे जैसे कोई गाजर मूली काट रहे हो। इसका नतीजा यह हुआ कि जल्दी ही उन्होंने दोनों पाकिस्तानियों को अकेले ही मौत की नींद सुला दिया और दूसरे बंकर को भी ग्रेनेड से तबाह कर दिया। 

कैप्टन मनोज पांडे के साहसिक एक्शंस ने दुश्मन की बंकर पोजीशंस को बुरी तरह से डिस्ट्रब्ट कर दिया था। लेकिन उनके सामने अब भी दो पाकिस्तानी बंकर्स ऑपरेशनल थे। जिनसे लगातार हैवी फायरिंग जारी थी।

लेकिन लेफ्टिनेंट मनोज पांडे जैसे ही तीसरे बंकर की ओर बढ़े इस बार दुश्मन की मशीन गन फायर ने उन्हें मल्टीपल जगह पर हिट कर दिया। उनके कंधे, झांघ और बाह में गोलियां लगी। शरीर से लगातार खून बह रहा था लेकिन इसके बावजूद भारत माता का यह वीर सपूत अपनी आखिरी सांस तक हार मानने को तैयार नहीं था। उनकी लीडरशिप देखकर बाकी जवानों में भी एक नई ऊर्जा भर गई। साथ ही सैनिकों ने तुरंत आगे बढ़कर पाकिस्तान के तीसरे बंकर को भी पूरी तरह तबाह कर दिया। गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद खून से लथपथ कैप्टन मनोज पांडे अपने जवानों को लीड करते हुए चौथे बंकर की ओर बढ़े। 

उन्होंने अपनी बची हुई ताकत जुटाकर एक ग्रेनेड निकाला और उसे चौथे बंकर की ओर फेंक दिया। वहां जोरदार धमाका हुआ और चौथा बंकर भी तबाह हो गया। लेकिन ठीक उसी वक्त दुश्मन की मशीन गन से चली चार गोलियां उनके हेलमेट को चीरती हुई उनके सर में घुस गई और लूटिनेंट मनोज कुमार पांडे 24 साल की छोटी सी उम्र में वीरगति को प्राप्त हो गए। शहीद होने से पहले उनकी टीम ने उनका आखिरी आदेश सुना। मनोज ने नेपाली में कहा था "ना छोड़नू"। इन शब्दों का अर्थ था "इन्हें मत छोड़ना"।

यह कितना बड़ा जज्बा है कि जिंदगी की आखिरी सांस में भी वह अपने जवानों को लड़ते रहने के लिए मोटिवेट कर रहे थे। उनके इस आदेश ने गोर्खा जवानों की हिम्मत को 100 गुना बढ़ा दिया। इसका अंजाम यह हुआ कि भारतीय जवानों ने उस दिन बंकर एरिया से एक भी पाकिस्तानी सैनिक को भागने का मौका नहीं दिया। दुश्मन को चुन-चकर मौत के घाट उतारा गया और 3 जुलाई को बंकर एरिया पाकिस्तान के सैनिकों से बिल्कुल आजाद हो गया। 

लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे के अदम में साहस और शौर्य के प्रदर्शन के लिए उन्हें मरणोपरांत भारत का सबसे बड़ा सैन्य सम्मान परमवीर चक्र दिया गया। 

यह नियत ही थी कि जब वो एनडीए की परीक्षा पास कर एसएसबी इंटरव्यू के लिए गए थे तो ऑफिसर ने उनसे पूछा था तुम फौज में क्यों आना चाहते हो? 

तब उन्होंने जवाब में कहा था परमवीर चक्र जीतने के लिए। नियति ने उस दिन उनकी इस बात को सच कर दिखाया था। कैप्टन मनोज पांडे और उनकी टीम की बहादुरी ने खालूबार की लड़ाई में निर्णायक मोड़ ला दिया। उन्होंने जो बेस्टब्लिश किया उसने आगे बढ़ रही दूसरी कंपनियों के लिए रास्ता साफ कर दिया।

बंकर एरिया की सफलता के बाद मेजर अजय तोमर के नेतृत्व में चार्ली कंपनी ने खालूबार साउथ की तरफ चढ़ाई शुरू की और उसी दिन उन्होंने ईस्टर्न स्लोप्स को कैप्चर कर लिया। वहीं दूसरी दिशा में कर्नल ललित राय और उनकी टुकड़ी घालूबार टॉप की ओर बढ़ रही थी। लगातार फायर फाइट में उन्होंने कई पाकिस्तानी सैनिकों को मार गिराया था। लेकिन यह लड़ाई आसान नहीं थी। इस इंटेंस बैटल में उनके कई साथी शहीद हुए और आखिर में सिर्फ आठ जवान ही लड़ने की स्थिति में बचे। हालांकि उन्होंने पाकिस्तानी सेना को वहां से पीछे खदेड़ दिया था, लेकिन यह इलाका उनकी सप्लाई लाइन से जुड़ा था। 

ऐसे में दुश्मन के फिर से लौटने की आशंका बनी हुई थी और जैसी आशंका थी वैसा ही हुआ। पाकिस्तानी सैनिक एक बार फिर हमला करने के इरादे से लौटे, लेकिन कर्नल राय और उनके साथियों ने मोर्चा संभाला और डटकर मुकाबला करते रहे। एक समय ऐसा भी आया जब कर्नल राय की राइफल में केवल दो ही गोलियां बची थी। वह सोचने लगे कि इन दो गोलियों में से एक से दुश्मन को मारूंगा और जरूरत पड़ी तो दूसरी से खुद की जान ले लूंगा। इस तनावपूर्ण माहौल में दुश्मन उनको पंजाबी में गालियां दे रहे थे।

ऐसे में कर्नल राय ने अपने साथियों से कहा, दुश्मन तुम्हारे कमांडिंग ऑफिसर को गाली दे रहा है और तुम चुप हो। सभी जवान गोर्खा रेजीमेंट के थे और इनमें से एक भी गाली देने में माहिर नहीं था। 

उन्होंने कुछ पल एक दूसरे की ओर देखा। फिर तय हुआ कि ज्ञान बहादुर गाली देगा। ज्ञान बहादुर खड़े हुए और बहुत ही सख्त आवाज में बोले ओ पाकिस्तानी तुम इधर आया तो तुम्हारी मुंडी उखाड़ देंगे। यह सुनकर कर्नल राय की हंसी छूट पड़ी। उन्होंने हंसते हुए कहा पाकिस्तानी यह सुनकर हंसते-हंसते मर जाएंगे कि ज्ञान बहादुर को गाली देना तक नहीं आता।

अचानक इस तनाव भरे माहौल में सबकी हंसी छूट गई। इसके जवाब में ज्ञान बहादुर आगे बोले। अब आता खुरी निकालेरा तेल ठीक पार छू। यानी अब तो खुकरी निकाल कर ही उसको ठीक करूंगा। खालूबार पीक पर जब यह वाकया हो रहा था, तब पाकिस्तान फौज के 35 जवानों की टुकड़ी एक और हमले की आस में खालूबार की ओर बढ़ रही थी। कर्नल राय ने तुरंत रेडियो के जरिए पास की एक पहाड़ी पर मौजूद एक फौजी अफसर से कहा, "मुझे रेफरेंस लेकर पीक की तरफ आर्टिलरी फायर करो।

कुछ ही मिनटों में बोफोर्ड से पीक की तरफ गोलाबारी होने लगी। कर्नल राय और उनके साथी चट्टान की दरारों में छुप गए और दुश्मनों पर गिरते बमों ने उनकी पूरी टुकड़ी को एक बार फिर पीछे खदेड़ दिया। कुछ देर में भारतीय फ़ौज की कुछ और टुकड़ियां खालूबार टॉप तक पहुंच गई और 6 जुलाई 1999 को लगातार संघर्ष रणनीति और बलिदान के बाद खालूबार फिर से भारत के नियंत्रण में आ गया।

कर्नल ललित राय की शानदार लीडरशिप के लिए उन्हें बाद में वीर चक्र से नवाजा गया। खालूबार की भीषण लड़ाई के दौरान भारतीय सेना ने पाकिस्तान का एक सिपाही युद्धबंदी बना लिया। 

उस फौजी का नाम नायक इनायत अली था। वो गोर्खा की वीरता से इतना ज्यादा प्रभावित था कि युद्धबंदी बनने के बाद उसने सिर्फ इतना कहा कि वह किसी गोर्खा को देखना चाहता है। कर्नल ललित राय ने अपने एक जवान को उसके सामने पेश किया और उसने उसे अपनी खुखरी निकाल कर दिखाई। खालूबार पीक पर 11 गोखा बटालियन ने इस तरह की वीरता का प्रदर्शन किया था कि इस यूनिट को "द ब्रेवेस्ट ऑफ द ब्रेव" की उपाधि से नवाजा गया। खालूबार की यह जीत बटालिक सब सेक्टर में एक टर्निंग पॉइंट थी।

भारतीय हमला इतना जबरदस्त था कि पाकिस्तानी सैनिक घबराकर अपनी पोजीशंस छोड़कर भागने लगे। इस लड़ाई में दुश्मन को भारी नुकसान उठाना पड़ा और वह अपने पीछे भारी मात्रा में हथियार छोड़ गए। जिनमें यूएस मेड स्टिंगर मिसाइल्स भी शामिल थी। खालूबार के कैप्चर ने पाकिस्तान की नदर्न डिफेंस ग्रिड को तोड़ दिया। इससे चोरबत्ला एक्सेस खुल गया और बाकी फॉरवर्ड पोस्ट पर उनकी पकड़ कमजोर हो गई। 

जहां एक और लद्दाख स्काउट्स ने 0.5000 और 0.4812 को पहले ही अपने कब्जे में ले लिया था। वहीं जुबार टॉप को वन बिहार रेजीमेंट ने 7 जुलाई को अपने नियंत्रण में ले लिया। फिर 9 जुलाई को 0.5103 को रिककैप्चर करके वन बिहार ने एक और बड़ी जीत हासिल की। खालूबार जीतने के बाद 11 गोखा राइफलल्स ने 8 जुलाई को 0.5287 को कब्जे में ले लिया और फिर 9 जुलाई को कुकरथांग रिज जिसे दुश्मन का अजयगढ़ माना जाता था वो भी पूरी तरह से दुश्मन से मुक्त कर दी गई।

9 जुलाई 1999 तक बटालिक सेक्टर का लगभग पूरा इलाका भारतीय सेना के नियंत्रण में आ चुका था। यह जीत सिर्फ इनफेंट्री हीरोइज़्म का नतीजा नहीं थी बल्कि भारतीय सेना के रेजीमेंट ऑफ आर्टिलरी ने भी इस पूरे ऑपरेशन में क्रूशियल रोल निभाया था। दुश्मन की पोजीशंस को तबाह करने के लिए 155 एमएम बोफोर्स हाउसर्स, 105 एमएम फील्ड गंस और 122 एमएम ग्रैंड मल्टीबैरल रॉकेट लॉन्चर्स का कोऑर्डिनेटेड यूज किया गया था। 

कारगिल के बैटल फील्ड में लगातार हार झेलने के साथ-साथ पाकिस्तान को इंटरनेशनल लेवल पर भी भारी दबाव का सामना करना पड़ रहा था। अमेरिका समेत विश्व के कई शक्तिशाली देशों ने पाकिस्तान पर भारत की जमीन छोड़ने का दबाव बनाना शुरू कर दिया था। जब भारतीय सेना काबार में अपना पराक्रम दिखा रही थी, उसी बीच कारगिल की सबसे स्ट्रेटेजिक पीक्स, टाइगर हिल और 0.4875 पर भी भयंकर लड़ाई जारी थी।

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