Battle Of Tololing: The Turning Point In Kargil War | How India Won 16,000 ft High Battle

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मई 1999, जम्मू-कश्मीर की बर्फ से ढकी ऊंची चोटियों पर जंग के बादल मंडरा रहे थे। कारगिल सेक्टर की पहाड़ियों में छिप कर बैठे पाकिस्तानी सैनिकों ने भारत के खिलाफ एक बार फिर जंग का ऐलान कर दिया था। उनकी साजिश इतनी खतरनाक और सटीक थी कि उन्होंने भारतीय सीमा में घुसकर करीब 130 बंकर बनाकर तोलोलिंग, टाइगर हिल, 0.5140,4875 जैसे कई अहम स्ट्रेटेजिक पीक्स पर कब्जा कर लिया था।

पाकिस्तान का मकसद एनएच वन ए को काटकर भारत को सियाचिन से अलग करने का था। इस साजिश को नाकाम करने के लिए इंडियन आर्मी के लिए सबसे पहले तोलोलिंग को वापस लेना जरूरी था क्योंकि यह वो पहाड़ी इलाका था जहां से पाकिस्तानी सेना एनएच वन ए को अपनी फायरिंग रेंज में लेकर स्ट्रांग पोजीशन में थी। इंडियन आर्मी की तरफ से 18 ग्रेनेडियर्स को आगे बढ़ाया गया। एक कमांडिंग ऑफिसर ने जवानों का हौसला बढ़ाते हुए कहा, ऊपर बस 810 पाकिस्तानी चूहे हैं। जाओ गर्दन पकड़ कर नीचे ले आओ। लेकिन हकीकत इससे कहीं ज्यादा खतरनाक थी। तो लिलिंग करीब 16,000 फीट की ऊंचाई पर है। जहां दुश्मन मशीन गंस और मोटर्स के साथ घात जमाए बैठा था। इस ऊंचाई का पाकिस्तानी फौज के पास एक बड़ा एडवांटेज था। जैसे ही भारतीय जवानों ने तोलो लिंक की चढ़ाई शुरू की, पाकिस्तानियों ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी और भारतीय सैनिकों को संभलने तक का मौका नहीं मिला। हालात इतने खराब थे कि 18 ग्रेनेडियर्स के जवान 16 दिनों तक एक दर्रे में फंसे रहे। 

जब कोई भारतीय जवान शहीद होता और साथ ही जवान उसका शव लाने की कोशिश करते तो पाकिस्तानी सेना उनका मजाक उड़ाती और गोलीबारी करते हुए कहती हिम्मत है तो आकर अपने अफसरों की लाश ले जाओ। तोलोलिंग की यह लड़ाई इतनी ज्यादा मुश्किल थी कि पूरे कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए जवानों में से लगभग आधे जवान तोलोलिंग की लड़ाई में ही शहीद हुए थे। लेकिन फिर भी भारतीय सेना ने इस लड़ाई में साहस, धैर्य और वीरता की ऐसी मिसाल कायम की जिसे सुनकर आज भी हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। आखिर कैसे भारतीय फौज ने इतने मुश्किल हालातों में भी दुश्मन को तोलोलिंग से उल्टे पांव लौटने पर मजबूर कर दिया था। इस लड़ाई में 18 ग्रेनेडियर्स और दो राजपूताना राइफल्स की कितनी बड़ी भूमिका थी। आइए जानते हैं तोलोलिंग के इस हिस्टोरिक बैटल की पूरी कहानी जो कारगिल वॉर की सबसे पहली और सबसे अहम विक्ट्री मानी जाती है। सर्दियों में भारतीय सेना के खाली पड़े बंकरों में पाकिस्तान ने कब्जा जमा लिया। इन द बिगिनिंग ऑफ़ मे दैट हियर, द पाकिस्तानीज़ हैड ऑक्युपाइड टोलोलिंग दैट सीट्स अ टॉप द क्रूशियल श्रीनगर कारगिल लेह हाईवे एंड कॉट इंडिया बाय इट्स थ्रोट। 

तोलिंग की पहाड़ी पर पाकिस्तान ने 11 बंकर बना रखे थे। और तोलोलिंग फतेह के लिए इन बंकरों को उड़ाना जरूरी था। तोलिंग पहाड़ी पर फतह की जिम्मेदारी 18 ग्रेनेडर्स और दो राजपूताना राइफलल्स को सौंपी गई थी। द बैटल फॉर तोलोलिंग वाज़ वन ऑफ द फियसेस्ट एंड ब्लडिएस्ट फोर्ट ड्यूरिंग द कारगिल वॉर। फरवरी 1999 में पाकिस्तान ने भारत से कश्मीर को छीनने के मकसद से ऑपरेशन भद्र शुरू किया और उसकी सेना एलओसी को क्रॉस करके कारगिल के पहाड़ी इलाकों में घुसपैठ करने लगी। पाकिस्तान का प्लान बिल्कुल साफ था। वो कारगिल से गुजरने वाले नेशनल हाईवे वन ए को अपने कंट्रोल में लेकर कश्मीर और लद्दाख के बीच के कनेक्शन को तोड़ देना चाहता था ताकि सियाचिन ग्लेशियर को आइसोलेट कर वो भारत को कश्मीर के मुद्दे पर अपनी शर्तों पर बातचीत करने के लिए मजबूर कर सके। हालांकि भारत को पाकिस्तान की इस घुसपैठ की खबर 3 मई को ही लग गई थी। लेकिन भारत ने कोई मजबूत कार्रवाई करने में देरी की जिस वजह से 2 दिन बाद उस एरिया में गश्त पर गए पांच भारतीय सैनिकों की पाकिस्तानियों ने जान ले ली और भारत की कई चौकियों और बंकरों को तबाह कर दिया। 

पाकिस्तानी सैनिक कारगिल के तोलोलिंग, टाइगर हिल, 0.5140, थ्री पिंपल्स, खालूब और 0.4875 जैसे कई स्ट्रेटेजिक इलाकों पर कब्जा जमा चुके थे। यह सभी चोटियां ऊंचाई पर थी। जहां से पाकिस्तान की फौज आसानी से भारत की गतिविधियों पर नजर रख सकती थी, और फायरिंग कर सकती थी। इसलिए पाकिस्तानी सैनिकों को वहां से खदेड़ना एक बेहद मुश्किल काम होने वाला था। पाकिस्तानी घुसपैठियों को कारगिल की चोटियों से खदेड़ने के लिए इंडियन आर्मी 10 मई को ऑपरेशन विजय की शुरुआत करती है। हजारों सैनिकों को अलग-अलग जगहों से कारगिल की तरफ मोबिलाइज किया जाता है। वैसे तो ऑपरेशन विजय के लिए करीब 2 लाख सैनिकों को तैयार रहने के लिए कहा गया था। लेकिन कारगिल दराज क्षेत्र की कठिन ज्योग्राफिकल कंडीशन के कारण इतने सैनिकों को एक्चुअल बैटल फील्ड तक भेज पाना पॉसिबल नहीं हो पाया। भारत को पूरा कारगिल वॉर ब्रिगेड और बटालियन लेवल पर लड़ना पड़ा। 

जिसके चलते कारगिल द्रा सेक्टर में भारत की ओर से एक्चुअल बैटल फील्ड में सिर्फ 300 ट्रूप्स ही डिप्लॉय हो सके। शुरुआती दिनों में भारतीय सेना को दुश्मन की एग्जैक्ट पोजीशंस का पता लगाने और अपनी टैक्टिकल तैयारी में थोड़ा वक्त लगा। स्ट्रेटेजिक लोकेशन और युद्ध के ब्रॉडर नतीजों को ध्यान में रखते हुए यह तय किया गया कि सबसे पहले तोलोलिंग को दुश्मनों से आजाद करवाया जाएगा। क्योंकि यहां कब्जा जमा कर बैठे पाकिस्तानी सैनिक इतनी अच्छी पोजीशन में थे कि वो ना केवल नेशनल हाईवे वन ए पर भारतीय सेना की एक्टिविटीज पर सीधी नजर रख रहे थे बल्कि जब चाहे तब एनएच वन ए पर अंधाधुंध गोलीबारी कर भारतीय फौज को नुकसान पहुंचा रहे थे। 

इस हाईवे पर हैवी आर्टिलरी फायर की वजह से सेना की मूवमेंट तक रुक गई थी। ऐसे में तोलो लिंक को रिक्लेम करना ना सिर्फ हाईवे की सुरक्षा के लिए जरूरी था बल्कि इससे आगे की चोटियों पर बढ़त हासिल करने में भी मदद मिलती। लेकिन तोलिंग को वापस से हासिल करना भारत के लिए बेहद मुश्किल था। तोलोलिंग की ऊंचाई 16,000 फीट है और इसकी चढ़ाई में ना तो कोई कवर मिलता है और ना ही जवानों को छिपने या आराम करने का मौका मिलता है। ऐसे में भारतीय सैनिकों के लिए तोलोलिंग की 16,000 फीट ऊंची पहाड़ियों पर चढ़कर पहले से ही कब्जा जमा कर बैठे पाकिस्तानियों की भारी गोलीबारी के बीच दुश्मन का सामना करना काफी चुनौती भरा था। 

लेकिन फिर भी इंडियन आर्मी ने इस मिशन को पूरी प्लानिंग के साथ एग्जीक्यूट करने का फैसला लिया। तोलोलिंग को जीतने की जिम्मेदारी ब्रिगेडियर अमरनाथ ऑल को सौंपी गई जो इस वॉर में शामिल अलग-अलग बटालियंस को लीड कर रहे थे। 56 माउंटेन ब्रिगेड को तोलोलिंग की रि लाइन क्लियर करने का टास्क मिला ताकि बाकी बटालियनों को आगे बढ़ने का रास्ता मिल सके। एट सिख और वन नागा के कंधों पर प्रीलिमिनरी एकशंस की जिम्मेदारी थी और 18 ग्रेनेडियर्स को फाइनल असॉल्ट का टास्क मिला जिन्हें तोलोलिंग टॉप को कैप्चर कर वहां दुश्मन का सफाया करके तिरंगा फहराना था। शुरुआती ब्रीफिंग में जब कारगिल बेस्ड 121 ब्रिगेड के कमांडर ने 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर से बात की थी तो उनसे कहा गया था कि ऊपर ज्यादा कुछ नहीं है बस 8-10 इनफिल्ट्रेटर्स हैं। चढ़ाई करो और इन पाकिस्तानी चूहों को गर्दन से पकड़ कर नीचे घसीट लाओ। 

लेकिन उनका यह आकलन बहुत जल्द बिल्कुल गलत साबित हुआ। ऊपर पहाड़ी पर दर्जनों नहीं सैकड़ों पाकिस्तानी सैनिक पहले से ही पक्की पोस्ट और डिफेंसिव पोजीशंस में घात लगाए बैठे थे। ऐसे में यह एक पूरी तरह से जानलेवा मिशन था जिसमें दुश्मन तक पहुंच पाना ही सबसे बड़ी कठिन चुनौती थी। तोलोलिंग की चढ़ाई पर निकले हर एक जवान के कंधों पर 25 किलो से ज्यादा वजन था जिसमें उनके वेपन्स, एमुनेशन, ग्रेनेड्स और बाकी वॉर इक्विपमेंट शामिल थे। जहां इस बोझ के साथ किसी की भी केवल 1520 फीट की ऊंचाई चढ़ने पर ही सांसे फूल सकती है। वहीं भारतीय जवानों को दुश्मन को तोलोलिंग से खदेड़ने के लिए 16,000 फीट की चढ़ाई करनी थी। ऐसी ऊंचाई पर लड़ाई के दौरान हर ग्राम कई किलोग्राम के जितना भारी लगने लगता है। इसलिए जवानों को तय करना था कि वह अपने साथ खाने के लिए राशन लेकर जाए या फिर कुछ एक्स्ट्रा गोलियां। वो अपने साथ या तो 2 किलो खाना ले जा सकते थे या फिर उसकी जगह एक्स्ट्रा 100 गोलियां कैरी कर सकते थे। दोनों की ही कमी खतरनाक साबित हो सकती थी। ऐसे में सभी भारतीय जवानों ने खाना छोड़कर गोलियां चुनी। आगे चलकर इसका नतीजा यह हुआ कि भूख और प्यास के मारे उनका बुरा हाल हो गया और उनमें से कईयों ने खुद को जिंदा रखने के लिए कई-कई दिन केवल सिगरेट पीकर गुजारे थे। क्योंकि दुश्मन को हाइट का एडवांटेज था और वह आसानी से नीचे की मूवमेंट्स को देख सकता था। इसलिए भारतीय जवानों के लिए दिन के उजाले में ऊपर मूव करना जोखिम भरा था। ऐसे में इंडियन सोल्जर्स केवल खराब मौसम या फिर काली अंधेरी रातों में ही मूवमेंट कर सकते थे। 

लेकिन यहां रात के समय भी टेंपरेचर -5 से -1° तक गिर जाता था। इसलिए रातें भी आसान नहीं थी। 16,000 फीट की चढ़ाई किसी ट्रेंड और क्लाइमेटाइज सोल्जर के लिए भी 11 घंटे की होती है। लेकिन यही चढ़ाई अगर स्टीप इंक्लाइंड, ब्लैंकेट फायरिंग और इंच बाय इंच रेंगते हुए हो तो यही रास्ता महीनों जैसा लगने लगता है। और भारतीय जवानों के लिए अब यह लड़ाई बिल्कुल वैसी ही होने जा रही थी। इन मुश्किल हालातों के बीच भी भारतीय जवान लगातार आठ दिनों तक दुश्मन की पोजीशन के करीब पहुंचने की कोशिश करते रहे। कोई हेक्स और रस्सियों के सहारे ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा था तो कोई बड़े चट्टानों की आड़ में छिप कर खुद को दुश्मन की नजरों से बचाते हुए आगे बढ़ रहा था। लेकिन पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा की जा रही भारी फायरिंग के बीच वो बहुत आगे नहीं बढ़ सके। कई दिनों की लगातार कोशिशों के बावजूद कोलोलिंक की चोटी पर अब तक कोई ठोस कामयाबी नहीं मिल सकी थी। ऐसे में 18 ग्रेनेडियर्स को अपनी टैक्टिक्स बदलनी पड़ी और फ्रेश प्लानिंग के साथ नए सिरे से आगे बढ़ने का फैसला किया गया। कर्नल खुशाल ठाकुर ने एक नया टैक्टिकल प्लान तैयार किया जिसके तहत सबसे पहले घातक प्लेटून को साउथ ईस्ट पर से आगे बढ़ना था जिसका नेतृत्व कैप्टन सचिन निंबलकर कर रहे थे। उनके पीछे ए कंपनी मेजर आर एस राठौर के कमांड में थी और बी कंपनी जो शुरू से ए कंपनी की बैकअप फोर्स थी उसको मेजर राजेश अधिकारी के नेतृत्व में आगे चलकर सदर्न अप्रोच से 0.4590 पर कब्जा करना था। वहीं सी कंपनी मेजर जॉय दास गुप्ता और डी कंपनी मेजर विशाल शर्मा के नेतृत्व में थी और उन्हें साउथ वेस्ट पर से आगे बढ़ते हुए 5140 और हम से आ रही दुश्मन की रीइंफोर्समेंट लाइन को डिस्ट्रप्ट कर दुश्मन पर असॉल्ट लॉन्च करना था। 

इस प्लान के साथ 22 मई को दोपहर 3:00 बजे तक सभी टुकड़ियां 16 ग्रेनेडियर्स के फायर बेस पर पहुंच गई, और ठीक शाम 7:30 बजे कैप्टन सचिन निंबलकर ने अपनी टीम के साथ बहादुरी से साउथ ईस्ट पर् की ओर कूच कर दिया था। लेकिन जैसे ही वो ऑब्जेक्टिव के महज 300 मीटर दूर पहुंचे, उन्हें दुश्मन की हैवी फायरिंग ने रोक दिया। पाकिस्तानी चुपचाप ऊंचाई से भारतीय फौज की मूवमेंट पर नजर रख रहे थे। वो पहले भारतीय जवानों को रस्सियों के सहारे अपने नजदीक तक आने देते और जैसे ही उनके बीच का फासला महज कुछ मीटर का रह जाता वो ऊपर से कभी गोलियां चला देते तो कभी बड़े-बड़े पत्थर भारतीय सेना की ओर लुढ़का देते। यानी इस तरह पाकिस्तानियों को बिना गोलीबारी के भी भारतीय फौज को रोकने में कामयाबी मिल रही थी। इसी टैक्टिक के चलते कई भारतीय सैनिक बड़े-बड़े पत्थरों के नीचे दबकर शहीद हो गए। 23 और 24 मई को पाकिस्तान सैनिकों ने इंटेंस फायरिंग शुरू कर दी। जिससे भारतीय जवानों को आगे बढ़ने के बजाय जो भी कवर मिल सका उसके पीछे छिपना पड़ा। हालात इतने खराब थे कि 18 ग्रेनेडियर के दो प्लेट्यूंस तोलोलिंग की एक रिज में 16 दिनों तक फंसे रहे। पाकिस्तानी पोस्ट से लगातार हैवी गन फायर जारी रहा। जिससे कैजुअल्टीज और बढ़ती गई। ऊपर से बारिश और घना कोहरा इस मुश्किल को और भी बढ़ा रहा था। इस तरह भारतीय सैनिकों का मोराल टूट रहा था क्योंकि दुश्मन के बहुत करीब पहुंचकर भी उन्हें कोई ब्रेक थ्रू नहीं मिल रहा था। इस वक्त तक कारगिल युद्ध के अन्य मोर्चों पर भी भारत को कुछ खास सफलता नहीं मिल रही थी। ऐसी सिचुएशन में कारगिल की हजारों फीट ऊंची पहाड़ियों पर छिप कर बैठे घुसपैठियों से लड़ने के लिए आर्मी और एयरफोर्स को कंधे से कंधा मिलाकर चलने की जरूरत थी। इसलिए 26 मई 1999 को एयरफोर्स भी इस जंग का आधिकारिक रूप से हिस्सा बन गई और ऑपरेशन सफेद सागर लॉन्च कर दिया गया। ऑपरेशन सफेद सागर शुरू होने के अगले ही दिन 27 मई 1999 को इंडियन एयरफोर्स ने इंडियन आर्मी को सपोर्ट देना शुरू कर दिया। इस दौरान इंडियन एयरफोर्स के चार MI 17 हेलीकॉप्टर्स तोलो लिंक की पहाड़ियों के ऊपर लगातार उड़ान भर रहे थे।

कुछ पाकिस्तानी बंकर्स पर रॉकेट फायर कर रहे थे तो कुछ आर्मी ट्रूप्स और उनके वेपन्स को हाई ऑल्टीट्यूड तक पहुंचाने का काम कर रहे थे। लेकिन खराब मौसम और दुर्गम पहाड़ी इलाका होने के कारण उन्हें ऑपरेशन करने में लगातार कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। साथ ही पाकिस्तानी सैनिकों ने भी भारतीय हेलीकॉप्टर को शूट डाउन करने के लिए उन पर लगातार स्टिंगर मिसाइल्स छोड़ना शुरू कर दिया था। ऐसे में सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए चारों हेलीकॉप्टर्स को जल्द से जल्द अपने बेस की ओर लौटने का आदेश दिया गया। तीन हेलीकॉप्टर्स तो सुरक्षित बेस पर लौट आए लेकिन इस बीच 5140 के पास एक हेलीकॉप्टर पर पाकिस्तानी स्टिंगर मिसाइल का सीधा हमला हुआ जिससे उसमें सवार एयरफोर्स के चारों जवान शहीद हो गए। 27 मई को ही इंडियन एयरफोर्स के ऑनगोइंग मिशन के दौरान 18थ ग्रेनेडियर्स की बी कंपनी के मेजर राजेश अधिकारी अपने कुछ साथियों के साथ इंडियन एयरफोर्स के हेलीकॉप्टर्स में सवार होकर दुश्मन की नजरों से बचते हुए तोलोलिंग रिच के काफी करीब तक पहुंच गए थे। इसके बाद की चढ़ाई उन्हें खुद करनी थी। आगे चढ़ाई इतनी मुश्किल थी कि उन्हें पिक्स एंड एक्सेस के जरिए क्लाइम करना पड़ रहा था। 30 मई की रात करीब 1:30 बजे दुश्मन पर जोरदार हमला बोलने के लिए मेजर अधिकारी की अगुवाई में बी कंपनी साउथ स्पर्से 4590 की ओर बढ़ने लगी। उन्हें यहां दुश्मन के हैवली फर्टिफाइड फॉरवर्ड पोस्ट को मिट्टी में मिलाना था। जैसे ही वह दुश्मन के पहले बंकर के पास पहुंचे, दो बंकरों से एक साथ यूनिवर्सल मशीन गन से गोलियां चलने लगी। लेकिन मेजर अधिकारी रुके नहीं और पहले बंकर की तरफ दौड़ पड़े। 

वह सीधे बंकर में घुसे और क्लोज क्वार्टर कॉम्बैट में दो पाकिस्तान सैनिकों को ढेर कर दिया। इस दौरान वह खुद भी दुश्मन की गोलियों से घायल हो चुके थे। लेकिन उन्होंने पीछे हटने से इंकार कर दिया। उन्होंने अपने मीडियम मशीन गन डिटचमेंट को एक चट्टानी जगह पर पोजीशन लेने का आदेश दिया ताकि बाकी टीम को कवर फायर मिलता रहे। फिर अपनी चोटों की परवाह किए बिना वह अगले बंकर की ओर बढ़े। खून बह रहा था। सांसे भारी हो चुकी थी। लेकिन जज्बा जीत की ज़िद पर अड़ा हुआ था। उन्होंने दूसरे बंकर पर धावा बोला और एक और दुश्मन को मार गिराया। इस तरह तोलोलिंग के दो अहम बंकर भारत के नियंत्रण में आ गए और आगे चलकर इसने 0.4590 को जीतने की राह खोल दी। इस पूरे कार्रवाही में उन्होंने कई दुश्मनों को मार गिराया और उन्हें पीछे हटने पर मजबूर किया। लेकिन इस वीरता की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। इस दौरान उनके साथ उनकी टीम के दो और जवान वीरगति को प्राप्त हो गए। बाकी जवानों को जान बचाने के लिए अपने कदम पीछे खींचने पड़े और चट्टानों की आड़ लेनी पड़ी। कई सैनिक पहाड़ी दरारों और संकरी लेजेस के बीच कई दिनों तक फंसे रह गए। कैप्टन सचिन निंबालकर और उनकी टीम को भी एक खड़ी चट्टान की पतली सी लज पर लगातार 3 दिन बिताने पड़े। जगह इतनी तंग थी कि पाकिस्तानी ट्रूप्स उन्हें ऊपर से साफ देख सकते थे। ऐसे में दुश्मन फौज मानसिक दबाव बनाने के लिए उनको ताने मारने लगी। कम अप सर हमारे पास वेपंस नहीं है। 

आप मेजर अधिकारी की बॉडी ले जा सकते हैं। कैप्टन सचिन निंबालकर ने उस तनावपूर्ण स्थिति में भी समझदारी से काम लिया और बिना वहां से बाहर निकले पाकिस्तानियों को जवाब दिया। हम अपने ऑफिसर की बॉडी के साथ-साथ तुम्हारी डेड बॉडी भी लेने आए हैं। कैप्टन सचिन निंबालकर की यह बात आगे चलकर सच साबित होने वाली थी। लेकिन असल में इस वक्त तक दुश्मन का पलड़ा भारी था। 

1 से 2 जून तक भारतीय जवान बर्फीली ठंड लगातार भारी गोलीबारी और बारिश के बीच फंसे रहे। जितनी देरी तोलो लिंक को जीतने में होती यह युद्ध उतना ही लंबा खिचता जाता। इसलिए हालात की गंभीरता को देखते हुए 56 माउंटेन ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर अमरनाथ ऑल ने कर्नल खुशाल ठाकुर को निर्देश दिया कि तोलो लिंक को हर हाल में जल्द से जल्द कैप्चर किया जाए। इसी आदेश के तहत 3 जून की रात 9:00 बजे एक नया असॉल्ट ल्च किया गया। इस बार 18 ग्रेनेडियर्स के सेकंड इन कमांड लटिनेंट कर्नल आर विश्वनाथन खुद ट्रूप्स की अगुवाई कर रहे थे। लगभग 6 घंटे की कठिन चढ़ाई के बाद लूटिनेंट कर्नल विश्वनाथन और उनकी टीम एक ऐसी चोटी तक पहुंच गई जहां से दुश्मन की पोस्ट कुछ ही दूरी पर थी। सभी सैनिक थकान से चूर थे। लेकिन उनके पास सुबह होने से पहले हमला करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। हमला शुरू हुआ लेकिन पाकिस्तानी पहले से ही तैयार बैठे थे। भारतीय सैनिकों की ओर से फायरिंग होते ही दुश्मनों ने तुरंत रिटालिएट कर दिया। इस इंटेंस गन फाइट में लूटिनेंट कर्नल विश्वनाथन मशीन गन बस की चपेट में आ गए और गंभीर रूप से घायल हो गए। 

लेकिन उन्होंने इवेक्यूएशन से इंकार कर दिया। वो वही अपने जवानों के साथ डटे रहे और उन्हें लड़ते रहने के लिए मोटिवेट करते रहे। बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद उन्होंने तीन पाकिस्तानी बंकर्स को ध्वस्त कर दिया और चार पाकिस्तानी सैनिकों को एलिमिनेट कर दिया। लेकिन इस बीच लूटिनेंट कर्नल आर विश्वनाथन खुद भी इतने जख्मी हो गए थे कि इंडियन आर्मी की वीरता की एक अनमोल मिसाल बनकर वह भी देश के लिए शहीद हो गए। लूटिनेंट कर्नल आर विश्वनाथन को इस अंजाम का अंदेशा पहले से ही हो गया था। इसलिए शहादत से कुछ दिन पहले ही उन्होंने अपने पिता को एक लेटर लिखा था जिसमें उन्होंने यह दुख जाहिर किया था कि शायद अब वह अपने परिवार से किया गया वादा पूरा नहीं कर पाएंगे। उनकी मृत्यु की खबर ने यूनिट के हर सैनिक को अंदर तक झकझोड़ दिया। सभी जवान दुख, शोक और गर्व तीनों एक साथ महसूस कर रहे थे। अब तक 18 ग्रेनेडियर्स की तीन टीमें अलग-अलग डायरेक्शन से दुश्मन को पीछे खदेड़ने का प्रयास कर चुकी थी। लेकिन ना तो टारगेट पर कब्जा मिल पाया था और ना ही शहीद साथियों के शवों को वापस लाया जा सका था। 

लटिनेंट कर्नल विश्वनाथन मेजर अधिकारी और अन्य सैनिकों के शव अब भी बैटल फील्ड में पड़े हुए थे। भारतीय सैनिक जैसे ही शवों को वापस लाने के लिए आगे बढ़ते पाकिस्तानी उन पर अंधाधुंध फायरिंग करने लगते। इतना ही नहीं दुश्मनों ने उन शवों में बूबी ट्रैप्स भी लगा रखे थे। एक बार जब एक भारतीय जवान ने मेजर अधिकारी का शव वापस लाने की कोशिश की तो वह बूबी ट्रैप एक्टिवेट हो गया और उस जवान का हाथ उड़ गया। इस स्ट्रेटेजिक नीड को समझते हुए तोलिंग की पहाड़ियों पर चल रही लड़ाई की बेहतर प्लानिंग और डायरेक्शन के लिए द्रास आर्टिलरी ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडिय लखिंदर सिंह को बैटल फील्ड में भेजा गया। जैसे ही वह जमीन पर पहुंचे उन्होंने हालात का जायजा लिया और देखा कि आर्टिलरी डिप्लॉयमेंट बेहद सीमित है और जो फायर हो रहा है वह भी दुश्मन को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पा रहा। उन्होंने नए तरीके से मोर्चा संभालना शुरू किया। पहले यहां केवल 105 मिलीमीटर आर्टिलरी गंस ही तैनात थी जो पहाड़ियों पर मौजूद फर्टिफाइड एनिमी बंकर्स को तबाह करने के लिए पर्याप्त नहीं थी। 

इसलिए पाकिस्तानियों को करारा जवाब देने के लिए जून के पहले हफ्ते में भारतीय जवानों तक 130 और 155 मि.मी. की हैवी आर्टिलरी गंस भी पहुंचाई गई। घुमरी और मतायन के मैदानी इलाकों से डेजर्ट कैमोफ्लाज में ढकी भारी तोपों को रात के अंधेरे में स्कैनिया ट्रकों में लादकर बर्फीले पहाड़ी रास्तों से गन पोजीशंस तक खींच कर लाया जाने लगा। इस दौरान दुश्मन की नजर से बचने के लिए ट्रकों की लाइट बंद रहती। हर ट्रक के आगे-आगे दो सैनिक पैदल चलते जो कुछ मिनटों बाद टॉर्च जलाकर सड़क का किनारा और मोड़ दिखाते ताकि ट्रक कहीं गहरी खाई में ना गिर जाए। गन पोजीशंस को पहाड़ी ढलानों को काटकर इस तरह तैयार किया गया कि फायरिंग एंगल सटीक हो और दुश्मन की काउंटर बैटरी फायर से सुरक्षा भी बनी रहे। 7 जून तक सभी गंस अपनी जगह पर फिट हो चुकी थी और उनमें रेंज फायर भी सक्सेसफुली किया जा चुका था। इसके बाद आर्टिलरी ऑब्जरवेशन ऑफिसर्स ऊंची चोटियों पर बैठकर फायर डायरेक्शन को कंट्रोल करने लगे थे। इंडियन आर्मी ने तोलोलिंग की पहाड़ियों पर पाकिस्तानियों के छुड़ाने के लिए अब पूरा फायर पावर डिप्लॉय कर दिया था। 


सेना की आठ आर्टिलरी बैटरीज जिनमें छह बोफोर्स हाउग्जर्स और कई मीडियम रेंज गंस शामिल थी। वह अब दुश्मन के परखच्चे उड़ाने के लिए पूरी तरह से तैयार थी। इसके साथ ही तो लिंक की जंग में असली मोड़ तब आया जब इस मुकाम को जीतने की जिम्मेदारी टू राजपूताना राइफल्स को दी गई। टू राजपूताना राइफल्स के कमांडिंग ऑफिसर कर्नल एमबी रविंद्रनाथ ने फ्रंटल असॉल्ट करने से पहले सेना मुख्यालय से छ दिन का वक्त मांगा था। इन छ दिनों में टू राजपूताना राइफल्स ने ऑब्जेक्टिव का डिटेल्ड सर्वे किया। लगातार वेपन्स टेस्टिंग, मॉक अटैक्स और नियर बाय रिजेस पर पोजीशनिंग ड्रिल्स की और 18 ग्रेनेडियर से भी पूरी जानकारी ली। लगभग 20 दिन से लगातार लड़ रहे 18 ग्रेनेडियर्स का काम अब तीन अलग-अलग रिच लाइंस में पोजीशंस लेकर फ्रेश ट्रूप्स को कवर देना था। 

फाइनल असॉल्ट के लिए मेजर विवेक गुप्ता के नेतृत्व में 90 जवानों की एक एलट टीम तैयार की गई। फाइनल असॉल्ट की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी। हमले से ठीक पहले कर्नल रविंद्रनाथ ने सभी जवानों को एक जोशीला भाषण दिया। उनकी गूंजती हुई आवाज और उनके हर शब्द में बस एक ही बात साफ थी। किसी भी कीमत पर जीत चाहिए। उनकी गरजना भरी आवाज सुनकर सभी 90 जवानों के अंदर जैसे आग सी दौड़ गई। सूबेदार भंवरलाल ने कर्नल रविंद्रनाथ से बस इतना कहा सर मैं वादा करता हूं अगली सुबह तोलोलिंग टॉप पर साथ बैठकर चाय पिएंगे। 

हमले के लिए इन 90 जवानों को तीन टीमों में बांटा गया था और हर टीम का एक कोड नेम था अभिमन्यु, भीम और अर्जुन। तीनों नाम महाभारत के वीरों से लिए गए थे। एक टीम सीधी चढ़ाई से ऊपर जा रही थी। दूसरी टीम नीचे से घूमकर दुश्मन के पीछे का रास्ता काटने की तरफ बढ़ रही थी ताकि अगर दुश्मन भागने की कोशिश करे तो वह वहीं ढेर कर दिए जाए और तीसरी टीम पीछे से अचानक से हमला करने के लिए कूच कर रही थी। साथ ही पास की ऊंचाई पर मौजूद 18 ग्रेनेडियर्स लगातार सप्रेसिंग फायर कर रहे थे। जिससे इन तीनों टुकड़ियों को आगे बढ़ने का सुरक्षित रास्ता मिल सके। 12 जून के दिन भारतीय जवानों ने दुश्मन से केवल 300 मीटर की दूरी पर चट्टानों के पीछे अपनी पोजीशन ले ली और अपने कमांडर के आदेश का इंतजार करने लगे। जैसे ही शाम के 6:30 बजे मेजर विवेक गुप्ता ने राजपूताना राइफलल्स के आदर्श वाक्य राजा रामचंद्र की जय का नारा लगाया और सभी 90 के 90 भारतीय शेर भारत को कारगिल युद्ध में पहली बड़ी जीत दिलाने के लिए तोलोलिंग टॉप की ओर बढ़ चले। 

इसके बाद तोलोलिंग टॉप 120 भारतीय तोपों की गरज से थर्रा उठा। सबसे पहले 155 एमएम बोफोर्स तोपों ने सीधे दुश्मन के बंकरों को निशाना बनाना शुरू किया। कुछ ही मिनटों में 130 और 105 एमएम की तोपें भी हमले में शामिल हो गई। पूरा तोलो लिंग धमाकों और चिंगारियों से जलने लगा। भारतीय जवानों के विजय उद्धोष तोपों से आग उगलते गोलों और धमाकों से ऐसा लग रहा था कि भारतीय जवान दुश्मन की जान लेकर विजय दिवाली मना रहे हो।

गोपो की गोलियों से एक-एक कर दुश्मन के बंकर्स ढहाए जा रहे थे। जैसे ही पाकिस्तानी बंकर्स से जवाबी फायर होता, उनकी पोजीशन रिवील होते ही हाई एक्सप्लोसिव एक्सटेंडेड रेंज शेल से उन्हें टारगेट कर दिया जाता। भारत की तरफ से इस दौरान नायक दिगेंद्र कुमार ने अहम रोल निभाया। उनकी आर्म में दुश्मन की गोलियां घुस चुकी थी। लेकिन फिर भी उन्होंने लाइट मशीन गन से दुश्मन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसाना जारी रखा। इतना ही नहीं उन्होंने कुछ बंकरों पर ग्रेनेड फेंक कर उनको मिट्टी में मिला दिया जिससे कई पाकिस्तानी मारे गए और कई उल्टे पांव भाग खड़े हुए। भारत का यह हमला इतना सटीक और घातक था कि पाकिस्तान सेना की तरफ से अब सिर्फ इक्का-दुक्का फायरिंग और मोटर्स ही रुक-रुक कर आ रहे थे। आधी रात होते-होते पाकिस्तान की फायरिंग भी बंद हो गई। भारत को आंख दिखाने वाले पाकिस्तानी चूहे अब डर कर बिलों में दुबके हुए थे। कुछ पाकिस्तानी बंकर्स पहाड़ की गुफाओं में थे। जहां तक ना तो तोपों के गोले पहुंच पा रहे थे और ना गोलियों की मार, वहीं से छुपकर वह अपनी मशीन गन से भारतीय सैनिकों पर हमला कर रहे थे। पूरा इलाका जीतने के लिए यह जरूरी था कि इन गुफाओं में छिपे दुश्मनों को खत्म किया जाए। इसलिए भारतीय सैनिक अब तोपों द्वारा बने गड्ढों और पत्थरों की आड़ लेकर धीरे-धीरे उन गुफाओं की ओर ऊपर चढ़ने लगे। वहां दुश्मन के करीब पहुंचने पर उनके सामने यह एक बड़ा चैलेंज था कि उन्हें ग्रेनेड फेंक कर दुश्मन के बंकरों को डिस्ट्रॉय भी करना था और सामने से हो रही फायरिंग से खुद को बचाना भी था। इन सब में रात के करीब 2:30 हो चुके थे। लेकिन अब भी तोलोलिंगटॉप को पूरी तरह से पाकिस्तानियों से मुक्त नहीं करवाया जा सका था। युद्ध को लंबा खींचता देख हवलदार यशवीर सिंह तोमर ने एक ऐसा फैसला किया जो इतिहास में दर्ज हो गया। उन्होंने अपने साथियों से उनके ग्रेनेड मांगे और अकेले ही दुश्मन के बचे हुए बंकरों की ओर दौड़ लगा दी। दौड़ते हुए वह एक हाथ से राइफल चला रहे थे और दूसरे हाथ से पाकिस्तानी बंकरों पर ग्रेनेड बरसा रहे थे। उन्होंने पाकिस्तानी बंकरों पर लगातार 18 ग्रेनेड फेंके जिनकी चपेट में आकर कई दुश्मन ढेर हो गए।

उनके साहसिक कदम से बाकी जवानों को आगे बढ़ने का रास्ता मिल गया। लेकिन इस हमले के दौरान दुश्मन की एक गोली उन्हें लग गई और हवलदार यशवीर सिंह तोमर भारत की सुरक्षा करते हुए शहीद हो गए। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया क्योंकि अब भारतीय सैनिक बचे हुए पाकिस्तानी बंकरों में भी घुस चुके थे और दुश्मन से हैंड टू हैंड फाइट में भिड़े हुए थे। डेढ़ घंटों तक पहाड़ की ऊंचाई पर भयंकर हाथापाई होती रही और सुबह के करीब 4:00 बजे सभी पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार कर तोलोलिंग टॉप को जीत लिया गया। इसके साथ ही वायरलेस के जरिए तोलिंग की जीत का संदेश कंट्रोल रूम तक भेज दिया गया। पूरा फ्रंटलाइन जश्नों में डूब गया। सभी के दिल में खुशी और गर्व की भावनाओं का उबाल था। तोलिंग बैटल के दौरान भारत की 120 तोपों ने तोलोलिंग की चोटियों लगभग 10,000 गोले दागे थे। 

तोलोलिंग टॉप के पास की एक रिज लाइन पर तो इतने ज्यादा गोले दागे गए कि जवानों ने उसे अपने कब्जे में लेकर उसका नाम बर्बाद बंकर रख दिया। इस तरह 13 जून की सुबह तक टू राजपूताना राइफल्स ने 0.4590 और बर्बाद बंकर को अपने कब्जे में ले लिया। उसी दिन तोलिंग टॉप पर भारतीय तिरंगा फहराया गया और ये पल इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। लेकिन इस जीत के बाद भी टू राजपूताना राइफलल्स के कैंप में जश्न नहीं मनाया गया। क्योंकि ये जीत उन्हें एक बहुत भारी कीमत चुका कर मिली थी। इस मिशन में उनके चार ऑफिसर्स, दो जेसीओ और 17 अन्य जवान शहीद हुए थे। जबकि 70 से ज्यादा जवान घायल हो चुके थे। इनमें से 26 जवान इतने गंभीर रूप से घायल थे कि वह फिर कभी फील्ड ड्यूटी नहीं कर सकते थे। इस ऐतिहासिक युद्ध को लीड कर रहे मेजर विवेक गुप्ता भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे और सूबेदार भंवरलाल जिन्होंने अपने सीनियर से तोलोलिंग जीतकर वहां चाय पीने का वादा किया था। उन्होंने भी इस बैटल में अपना सर्वोच्च बलिदान दिया था। लेकिन तोलोलिंग की जंग अब भी पूरी नहीं हुई थी। तोलोलिंग के ठीक पीछे एक ऊंचा हिस्सा था जिसे द हमंप कहा जाता है और वहां पर अब भी पाकिस्तानी मौजूद थे और वह कभी भी तोलोलिंग पर पलटवार कर सकते थे। 

द हमंप को जीतने की जिम्मेदारी 18 ग्रेनेडियर्स की चार्ली कंपनी को सौंपी गई जिसका नेतृत्व मेजर जॉय दास गुप्ता कर रहे थे। 14 जून की रात 8:00 बजे मेजर दास गुप्ता ने अपनी टीम के साथ अगला हमला शुरू किया। उन्होंने फायर एंड स्कूट की स्ट्रेटजी अपनाई जिसमें तेज गोलीबारी करके तुरंत पोजीशन बदल ली जाती है। इस रणनीति से उन्होंने दुश्मन को रिटालिएट करने का मौका भी नहीं दिया और पाकिस्तानी गन फायर को बेअसर साबित कर दिया। हवलदार दशरथ लाल दुबे और हवलदार उद्धम सिंह ने द हमंप में बचे आखिरी बंकरों को क्लियर करने में अहम भूमिका निभाई थी। हालांकि इस प्रोसेस में हवलदार उद्धम सिंह शहीद हो गए। लेकिन उनकी शहादत भी व्यर्थ नहीं गई। और आखिरकार 14 जून को 18 ग्रेनेडियर्स ने द हमंप को भी जीत लिया। इस करो या मरो मिशन में भारत ने 12 और जवानों को खो दिया था। आगे 18th रॉयल ग्रवाल राइफल्स की चार्ली और डेल्टा कंपनीज़ को द्रास एरिया में ही स्थित 4700 को जीतने की जिम्मेदारी दी गई। 0.4700 तक पहुंचने के लिए तोलो लिंक पर चढ़ाई के दौरान दुश्मन का एक बम ठीक नायक कश्मीर सिंह के बगल में आकर फूटा और उनका हाथ शरीर से टूट कर अलग हो गया। शरीर से खून की धार फूट पड़ी लेकिन उनके रगों में भारत की जीत की ज़िद इस कदर दौड़ रही थी कि वह रुके नहीं। नायक कश्मीर सिंह अपना कटा हुआ हाथ उठाकर दुश्मन की तरफ बढ़ते रहे। 

लेकिन उनकी हालत को देखते हुए जबरन उन्हें स्ट्रेचर पर लेटाया गया। इस दौरान उनके आसपास खड़े सैनिकों में से किसी ने पूछा टाइम क्या हुआ है? कश्मीर सिंह ने जब यह सुना तो उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, "मेरे कटे हुए हाथ में घड़ी बंधी है। जाओ जाकर देख लो। भारतीय जवानों के ऐसे ही अद्भुत शौर्य और पराक्रम के दम पर अगले कुछ दिनों में तोलोलिंग की आसपास की सभी चोटियां फिर से भारत के नियंत्रण में आ गई। युद्ध के मैदान में जगह-जगह करीब 50 पाकिस्तानी जवानों की लाशें बिखरी हुई थी जिनकी सुध लेने वाला वहां कोई नहीं था। बैटल ऑफ कोलोलिंग की ये जीत भारतीय वीर जवानों के अद्भुत पराक्रम, अदम में साहस और उनमें से कईयों की शहादत की बदौलत ही मिल पाई थी। इसलिए कारगिल वॉर खत्म होने के बाद भारत सरकार ने उनका सम्मान गैलेंड्री अवार्ड देकर किया। मेजर राजेश अधिकारी, मेजर विवेक गुप्ता और नायक दिगेंद्र कुमार का सम्मान महावीर चक्र देकर किया गया। वहीं कैप्टन सचिन निंबालकर, लटिनेंट कर्नल आर विश्वनाथन, कर्नल एमबी रविंद्रनाथन, हवलदार यशवीर सिंह, सूबेदार भंवरलाल, हवलदार उद्धम सिंह, कैप्टन विजय थापर और नायक कश्मीर सिंह का सम्मान वीर चक्र देकर किया गया। 

युद्ध में मेजर जॉयदास गुप्ता के योगदान को देखते हुए उन्हें सेना मेडल से नवाजा गया। तोलो लिंक की जीत ने भारतीय सेना को एक रणनीतिक बढ़त दी जो आगे कारगिल के युद्ध में अहम साबित हुई। तोलो लिंक के कंट्रोल में आने की वजह से भारतीय सेना एनएच वन ए पर से ना केवल पाकिस्तानी निगरानी हटाने में सफल रही बल्कि एनएच वन ए पर फिर से इंडियन आर्मी की मूवमेंट भी तेज हो गई। इसके साथ ही ऊंचाई से बाकी जगहों पर भी दुश्मन की कई इंपॉर्टेंट पोजीशंस और मूवमेंट पर सीधी नजर रखने का रास्ता खुल गया। लेकिन यह बस कारगिल वॉर की जीत में पहला कदम था। आगे का सफर और भी बड़ी-बड़ी चुनौतियों से भरा हुआ था। इसमें सबसे कठिन लड़ाई खालू बार की होने वाली थी।

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