उस दौरान सिखों के सबसे पवित्र स्थान गोल्डन टेंपल में एक बार फिर से सैकड़ों सेपरेटिस ने कब्जा जमाकर भारत सरकार की नींद उड़ा रखी थी। सरकार इस बार 1984 में हुए ऑपरेशन ब्लू स्टार की तरह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी, जिससे गोल्डन टेंपल के किसी भी हिस्से को नुकसान पहुंचे। इसलिए इस बार गोल्डन टेंपल को बिना कोई नुकसान पहुंचाए मिलिटेंट्स को खाली करवाने का एक खुफिया मिशन जारी था।
कोई नहीं जानता था कि दिखने में यह साधारण सा रिक्शा वाला असल में सरकार की उसी योजना का एक हिस्सा है। 10 दिनों तक वो रिक्शा वाला यूं ही चुपचाप इन गलियों में मंडराता रहा और इसी बीच उसने एक ऐसा दाव चला कि अलगाववादी उसे अपना आदमी मानने लगे। उसने उनसे कहा कि वो आईएसआई का एजेंट है और पाकिस्तान ने उसे उनकी मदद के लिए भेजा है।
सेपरेटिस्ट का भरोसा जीतकर वो गोल्डन टेंपल के अंदर दाखिल हो गया और फिर उसने वहां की हर दीवार, हर नुक्कड़, आतंकियों की संख्या, उनके हथियार और उनकी पोजीशन तक सब कुछ अपनी आंखों में कैद कर लिया। दो दिन बाद उस शख्स की इंफॉर्मेशन के बेस पर गोल्डन टेंपल के पास एनएसजी के हजार कमांडो पहुंचे और वहां 9 दिनों तक ऐसा ऑपरेशन चला जिसमें बिना एक भी सोल्जर और सिविलियन की जान गवाए गोल्डन टेंपल को अलगाववादियों से मुक्त करवा लिया गया।
यह सिर्फ एक मिशन की नहीं बल्कि उस शख्स की कहानी है जिन्होंने अपनी जिंदगी में ना जाने ऐसे कितने डेयरिंग ऑपरेशंस को अंजाम दिया है। केरल के दंगों को शांत करने से लेकर मिजोरम में उठ रही अलग देश की मांग को खत्म करने और सिक्किम को भारत का हिस्सा बनाने में उन्होंने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने पाकिस्तान में 7 साल तक जासूसी कर खुफिया जानकारियां निकालने से लेकर कंधार हाईजैक के समय आतंकियों की आंखों में आंखें डालकर नेगोशिएशन करने तक का काम किया। जब भी देश की सिक्योरिटी खतरे में आई देश ने उनको हमेशा सबसे आगे पाया। पाकिस्तान में घुसकर की गई 2016 की उरी सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर 2019 की बालाकोट एयर स्ट्राइक। उन्होंने भारत की सुरक्षा नीति को ऐसे बदला कि आज जरूरत पड़ने पर भारतीय सेना दुश्मन को उसके घर में घुसकर मारती है।
यह कहानी है इंडिया के जेम्स बॉन्ड और चाणक्य के नाम से पूरे वर्ल्ड में पॉपुलर भारत के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर अजीत ढोभाल की
अजीत कुमार डोभाल का जन्म 20 जनवरी 1945 को उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले में एक फौजी परिवार में हुआ। उनके पिता जी एन डोभाल सेना में मेजर के पद पर तैनात थे। अजीत डोभाल ने अजमेर के किंग जॉर्जिस रॉयल इंडियन मिलिट्री स्कूल से अपनी स्कूलिंग पूरी की। एक तरफ जहां उनके घर और स्कूल में मिलिट्री डिसिप्लिन का माहौल था तो दूसरी ओर उनके ननिहाल में पॉलिटिक्स का एनवायरमेंट था। उनकी मां कांग्रेस लीडर एच एन बहुगुना की चचेरी बहन थी जो बाद में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। ऐसे दो तरह के माहौल ने उनके भीतर देश सेवा का जज्बा और राजनीति की गहरी समझ दोनों भर दी जो आगे चलकर उनके करियर में गेम चेंजर साबित हुई।
1967 में उन्होंने आगरा यूनिवर्सिटी से इकोनॉमिक्स में मास्टर डिग्री हासिल की और फिर सिविल सर्विज को अपने करियर के रूप में चुना। अगले साल 1968 में उन्होंने केवल 22 साल की उम्र में अपने फर्स्ट अटेम्प्ट में ही यूपीएससी का एग्जाम क्लियर कर लिया और वह आईपीएस बन गए। उनकी पहली पोस्टिंग केरला के कोटायम डिस्ट्रिक्ट में असिस्टेंट सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस यानी एएसपी के तौर पर हुई। उन्होंने केरला में करीब 4 साल तक चार्ट संभाला और इस बीच एक इंसिडेंट ऐसा हुआ, जो उनके करियर का पहला सबसे बड़ा काम बना।
हुआ कुछ यूं कि 28 दिसंबर 1971 को कन्नूर डिस्ट्रिक्ट के थल्लासेसरी में एक लोकल टेंपल मेलूट श्री मुथप्पन मदापुरा से हर साल की तरह एक जुलूस निकाला जा रहा था। जैसे ही यह जुलूस होटल नूरजहां के पास पहुंचा, होटल से एक आदमी ने इस जुलूस के ऊपर एक जूता फेंक दिया। गुस्से में इस जुलूस में शामिल लोगों ने उस होटल में तोड़फोड़ कर दी। इसके बाद हिंसा भड़क उठी और देखते ही देखते पूरे इलाके में दंगे फैल गए। मुस्लिम समुदाय ने राइड भड़काने का आरोप आरएसएस पर लगाया। वहीं सीपीआईएम भी मुसलमानों के पक्ष में खड़ी हो गई जिससे टकराव और बढ़ गया और केवल 4 दिन के अंदर ही थल्लासरी में कम्युनल दंगों की 569 घटनाएं दर्ज हुई। हालातों को बेकाबू होता देख केरला के तत्कालीन होम मिनिस्टर के करुणाकरण को एक ऐसे पुलिस ऑफिसर की जरूरत थी जो हालात को नियंत्रण में ला सके। ऐसे में कुछ सीनियर अधिकारियों ने के करुणाकरण को इस काम के लिए अजीत ढोबाल का नाम सुझाया।
इसके बाद 2 जनवरी 1972 को अजीत ढोबाल का थैलेसरी ट्रांसफर कर दिया गया। थैलासरी का चार्ज संभालते ही अजीत ढोबाल बिना ब्रेक लिए अपने काम में लग गए और उन्होंने उस दंगे से जुड़ी हर छोटी से छोटी जानकारी जुटानी शुरू कर दी। जिन इलाकों में बड़े से बड़ा सीनियर ऑफिसर्स जाने से कतराता था वहां अजी ढोबाल सीधे लोगों के बीच पहुंच गए। उन्होंने कोई पुलिस या कारवाई करने के बजाय समस्या की जड़ तक पहुंचकर काम किया। पहले दोनों तरफ के लोगों की परेशानी को समझा। उनके लीडर्स से अकेले में बैठकर बात की और फिर उन्हें शांत होने के लिए राजी कर लिया। उनकी इंटेलिजेंस का ऐसा असर हुआ कि केवल एक हफ्ते के अंदर लोग ना केवल लड़ाई बंद करके अपने-अपने घर लौट गए बल्कि दोनों तरफ से जो भी लूटपाट हुई थी वो लूटे हुए सामान भी उन्होंने एक दूसरे को वापस लौटा दिए। जिस काम को पूरे स्टेट की पुलिस नहीं कर पा रही थी, उसे एक युवा एएसपी ने सिर्फ एक हफ्ते में कर दिखाया था। थल्लासरी में राइड कंट्रोल के बाद अजय डोबाल अगले 6 महीनों तक वहीं पोस्टेड रहे।
इस दौरान उनके काम के चर्चे केरल से दिल्ली में बैठे कैबिनेट मिनिस्टर्स और इंटेलिजेंस ऑफिसर्स तक पहुंचने लगे थे। उनकी नेगोशिएशन और लीडरशिप एबिलिटी ने इतना प्रभाव डाला कि आईबी ने उन्हें अपने ऑपरेशंस यूनिट में शामिल करने का फैसला किया और इस तरह सिर्फ 4 साल की स्टेट सर्विस के बाद 1972 में अजित डोभाल को दिल्ली बुला लिया गया और आईबी के डायरेक्ट ऑपरेशन विंग से जोड़ दिया गया। यहीं से उनका स्पाई मास्टर और इंडिया के जेम्स बॉन्ड बनने का सफर शुरू होता है।
उस समय मिजोरम असम राज्य का हिस्सा हुआ करता था। मिजोरम की जनता 1960 के दशक में पड़े भयानक अकाल से बुरी तरह प्रभावित थी। इसलिए वहां के लोगों ने स्टेट गवर्नमेंट से मुआवजा मांगा। लेकिन जब सरकार ने मुआवजा नहीं दिया तो लोग गुस्से से भर गए। गुस्से ने एक रेबल ग्रुप मिसो नेशनल फ्रंट एमएनएफ को जन्म दिया जिसे आर्मी के एक एक्स हवलदार लाल डेंगा ने बनाया था। उसी समय एक और बड़ी घटना हुई। असम सरकार ने एक रूल लागू किया कि सरकारी नौकरी सिर्फ वही लोग पा सकते थे जिन्हें असमीज़ भाषा आती है। इसका साफ मतलब था कि मिजो लोगों के लिए अब असम में सरकारी नौकरी पाना बेहद मुश्किल हो गया था।
मिजो नेशनल फ्रंट और लाल डेंगा के भारी विरोध के बाद भी असम सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा और राज्य सरकार ने एक और कंट्रोवर्शियल फैसला लेते हुए असम राइफल की उस सेकंड बटालियन को बर्खास्त कर दिया जिनमें अधिकतर मेजो सैनिक थे। यह देखकर मिजोरम के लोगों के गुस्से की कोई सीमा नहीं रही और आम लोगों के साथ-साथ इस बटालियन से निकाले गए जवानों ने भी मिजो नेशनल फ्रंट को ज्वाइन करना शुरू कर दिया। उनमें से सात कमांडो लालडेंगा के लॉयल साथी बन गए और उन्होंने अपने लोगों के हक के लिए सरकार के खिलाफ हथियार उठाने की घोषणा कर दी।
एक झटके में ट्रेंड कमांडोस के सपोर्ट से लालडेंगा की ताकत बढ़ गई। उन्होंने जल्दी ही मिजोरम को भारत से अलग एक नया देश घोषित कर दिया और जगह-जगह भारतीय झंडे की जगह मिजो नेशनल फ्रंट का झंडा लहरा दिया। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी क्योंकि इन सब में आम जनता भी मिजो नेशनल फ्रंट के साथ थी इसलिए वह चाहकर भी मिजोरम में कोई मिलिट्री एक्शन नहीं ले पा रही थी। वह बिना मिलिट्री एक्शन के यहां शांति स्थापित करना चाहती थी। इसलिए उन्होंने इसकी जिम्मेदारी इंटेलिजेंस एजेंसीज को सौंप दी। आईबी ने इतने बड़े काम का जिम्मा अजीत डोबाल को सौंपा और 1972 में ही उन्हें सब्सिडरी इंटेलिजेंस ब्यूरो एसआईबी का हेड बनाकर मिजोरम भेज दिया गया। वहां पहुंचते ही उन्होंने खुफिया जानकारी जुटाना शुरू कर दिया और कुछ ही समय में पता लगा लिया कि लाल डेंगा की असली ताकत उनके वो सात एक्स कमांडर हैं।
उन्हें यह भी पता चला कि कुछ मुद्दों पर इन एक्स कमांडर्स के लाल डेंगा से आइडियोलॉजिकल डिफरेंसेस भी हैं। एमएनएफ की इसी वीकनेस पर डोबाल ने वार किया। वह इन कमांडरों से गुपचुप तरीके से मिलने लगे और एमएनएफ की एकता को तोड़ने के काम में लग गए। कुछ ही दिनों में उन्होंने इस कदर उनका विश्वास जीत लिया कि यह कमांडर अजीत डोबाल के घर आने जाने लगे। मिजोरम में अजीत डोबाल के साथ उनकी पत्नी भी रह रही थी। एक दिन वो अपने घर सूअर का मांस लेकर आए और अपनी पत्नी से कहा कि कुछ खास गेस्ट डिनर पर आने वाले हैं लेकिन उन्होंने अपनी पत्नी को यह नहीं बताया कि यह सूअर का मांस है और उनके घर पर आने वाले मेहमान असल में मिलिटेंट्स हैं। काफी सालों बाद इसके बारे में जब उन्होंने अपनी पत्नी को बताया तो वह उन पर खूब गुस्सा हुई थी। हालांकि अजीत डोबाल के तौर तरीके ही कुछ ऐसे थे कि वह जरूरत पड़ने पर लीग से हटकर काम करते जिसमें जान का खतरा भी होता था।
जब उन्होंने उन मिलिटेंट्स का भरोसा जीत लिया तो उन्होंने धीरे-धीरे उनको इंडियन गवर्नमेंट के साथ समझौता करने के लिए मनाना शुरू कर दिया। उन्होंने उन एक्स कमांडर्स को बताया कि अगर वो लोग भारत सरकार का साथ देंगे तो मिजोरम को अलग राज्य का दर्जा मिलेगा और यहां जो सरकार बनेगी उसमें उन सातों को मंत्री का पद दिया जाएगा। साथ ही उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि अगर उन्होंने और एमएनएफ ने बात नहीं मानी तो मिजोरम में जल्द ही मिलिट्री एक्शन होगा और उनका सब कुछ बर्बाद हो जाएगा। 2 साल के पेशेंट ग्राउंड वर्क के बाद 1974 में सात में से छह कमांडर अजीत डोभाल की बात से कन्विंस हो गए और भारत सरकार के पक्ष में आ गए। अपने सबसे भरोसेमंद कमांडर्स के जाते ही लाल डेंगा को भी मजबूरन भारत सरकार से पीस टॉक करने के लिए राजी होना पड़ा।
बाद में मिजोरम को भारत का एक अलग स्टेट बना दिया गया और वहां उठ रही अलग देश की मांग हमेशा हमेशा के लिए खत्म हो गई। जब मिजोरम में उथल-पुथल मची हुई थी। उसी बीच सिक्किम की हालत हर गुजरते दिन के साथ बिगड़ती जा रही थी। सिक्किम तब भारत का प्रोटेक्टोरेट था लेकिन वहां की उथल-पुथल के बीच चाइना और अमेरिका उस पर गिद्ध की तरह नजर गड़ाए बैठे थे। एक तरफ चीन यहां के राजा पालदेन थोंडुप नामगयाल को अपने पाले में करने के लिए हर संभव कोशिश कर रहा था। तो वहीं अमेरिका अपने सीआईए एजेंट्स के जरिए यहां के लोगों सहित राजा को भारत के खिलाफ भड़का रहा था। सिक्किम में अमेरिका की इस कदर पकड़ थी कि राजा पालदेन थंडोप नामगयाल की पत्नी होपक भी एक सीआईए एजेंट थी। सिक्किम में कुछ भी होता उसकी जानकारी कुछ घंटे के भीतर अमेरिका तक पहुंच जाती थी।
भारत सरकार को डर था कि कहीं सिक्किम अमेरिका और चीन के चंगुल में ना फंस जाए। इसलिए सिचुएशन को हाथ से निकल जाने से पहले भारत सरकार ने राजा को कमजोर करने के लिए लोकल पार्टी के जरिए यहां के लोगों से राजा के खिलाफ विद्रोह करवाने का फैसला किया। यह एक बहुत ही संवेदनशील और बड़ा मिशन था जिसे खुद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बेहद करीबी तौर पर मॉनिटर कर रही थी। इस खुफिया मिशन की कमान R&AW के चीफ आर एन काऊ और जॉइंट डायरेक्टर पीएन बनर्जी के हाथों में थी।
इस मिशन से अजीत डोबाल को भी जोड़ा जाता है। डोबाल सिक्किम पहुंचते हैं और अपने सीनियर्स के नेटवर्क के जरिए वहां सिक्किम नेशनल कांग्रेस के नेता काजी लैंडुप दर्जी से मुलाकात कर उन्हें अपने साथ मिला लेते हैं। प्लान था कि काजी दरजी राजा की नाकामियों को जनता के बीच लाकर लोगों का समर्थन हासिल करेंगे और राजा पर इतना दबाव बना दिया जाएगा कि वह चुनाव करवाने के लिए मजबूर हो जाए।
कुछ ही वक्त में सिक्किम नेशनल कांग्रेस को जनता का भारी समर्थन मिलने लगा। जब जनता राजा के विरोध में उतर आई तो साल 1974 में राजा सिक्किम में चुनाव कराने के लिए मजबूर हो गया। इस तरह सिक्किम में पहली बार जनरल इलेक्शन हुए और काजी लैंडुबदोरजी उस चुनाव में जीतकर सिक्किम के मुख्यमंत्री बन गए। इसके बाद काजी दौरजी ने प्लान के तहत राजा की सेना के अत्याचारों के खिलाफ इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा और उनसे सिक्किम में इंडियन मिलिट्री भेजने की रिक्वेस्ट की। इसके बाद जल्दी ही भारतीय सेना सिक्किम पहुंच गई और कुछ ही घंटों में राजा के महल को कब्जे में ले लिया।
राजा महल छोड़कर भाग निकला। इस दौरान सिक्किम में एक रेफरेंडम करवाया गया जिसमें 97% से ज्यादा लोगों ने भारत के साथ जाने के पक्ष में वोट किया। इसके बिहाफ पर 16 मई 1975 को इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन के 36 अमेंडमेंट के जरिए सिक्किम को भारत के साथ मर्ज कर भारत का 22वां राज्य बना दिया गया। मिजोरम और सिक्किम जैसे मुश्किल इलाकों में भारत की मजबूती होना अजीत ढोबाल की कूटनीतिक और खुफिया ब्रिलियंस का नतीजा था।
सरकार को अजीत ढोबाल पर इतना भरोसा हो गया था कि जब भी देश किसी बड़ी मुसीबत में फंसता तो उस स्थिति से बाहर निकालने की जिम्मेदारी चुनिंदा इंटेलिजेंस ऑफिसर्स को दी जाती थी और इस लिस्ट में एक नाम अजीत ढोबाल का भी होता था। उनकी इसी एक्सेप्शनल सर्विस के लिए उन्हें पुलिस मेडल से नवाजा गया। वो भी सिर्फ 6 साल की सर्विस के बाद जबकि यह मेडल आमतौर पर 17 साल बाद मिलता है। अजीत डोबाल अपने शानदार काम की वजह से नेशनल सिक्योरिटी के की प्लेयर्स में से एक बन चुके थे।
1974 में जब भारत ने अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट किया तो भारत की बढ़ती ताकत से पाकिस्तान की नींद उड़ गई। इस बीच पाकिस्तान भी चुपचाप चीन की मदद से पंजाब के कहूता इलाके में परमाणु हथियार बनाने में लगा हुआ था। हालांकि इंडियन इंटेलिजेंस को इसकी भनक लग गई। उस समय पाकिस्तान में एक्टिव R&AW के एजेंटों ने बताया कि वहां एक अल्ट्रा सीक्रेट न्यूक्लियर फैसिलिटी बन रही है।
इंदिरा गांधी को यह किसी भी कीमत पर रोकना था। इसलिए आरएनएब ने साल 1977 में एक बेहद हाई रिस्क मिशन ऑपरेशन कहूटा शुरू किया। जिसका मोटिव पाकिस्तान के सीक्रेट न्यूक्लियर वेपन प्रोग्राम का पता लगाना और उसकी पुष्टि करना था। लेकिन दिक्कत यह थी कि डायरेक्ट कोई भी आदमी उस न्यूक्लियर प्लांट में घुस नहीं सकता था। सिक्योरिटी इतनी टाइट थी कि एक एक्स्ट्रा शैडो भी दिख जाती तो गोली मार दी जाती। तब एक नया तरीका निकाला गया कि अगर न्यूक्लियर वेपन प्रोग्राम में काम कर रहे किसी पाकिस्तानी साइंटिस्ट के बाल या नाखून मिल जाए तो उनकी जांच करके यह पता लगाया जा सकता है कि वो किसी न्यूक्लियर प्रोग्राम का हिस्सा है या नहीं। क्योंकि जो लोग न्यूक्लियर मटेरियल के पास काम करते हैं, उनके शरीर पर माइक्रोस्कोपिक रेडियोएक्टिव पार्टिकल्स चिपक जाते हैं।
ऐसे खुफिया काम के लिए जहां आरएनएब के एजेंट्स पाकिस्तान में पहले से ही एक्टिव थे, वहीं अजीत डोभाल को भी पाकिस्तान भेज दिया गया। उन्होंने वहां एक अंडरकवर्ड स्पाई के रूप में काम शुरू किया और कहूटा न्यूक्लियर प्लांट के आसपास रहकर धीरे-धीरे साइंटिस्ट की पहचान निकालनी शुरू की। कौन कहां जाता है, किस दुकान पर रुकता है, कब आता है, कब जाता है, वो उनकी हर एक्टिविटी को ट्रैक करने लगे। कुछ ही महीनों में उन्होंने इन साइंटिस्ट को खोज निकाला और उन्हें पता चला कि न्यूक्लियर साइंटिस्ट किस नाई की दुकान पर बाल कटवाने आते हैं।
अजीत डोभाल किसी ना किसी बहाने से उस नाई की दुकान में जाने लगे और काफी दिनों के इंतजार के बाद जब वह साइंटिस्ट नाई की दुकान पर बाल कटवाने आया तो मौका पाकर अजीत डोभाल ने उसके कटे बाल उस दुकान से चुरा लिए और जांच के लिए भारत भेज दिए। कुछ हफ्तों बाद रिपोर्ट आई और कंफर्म हुआ कि पाकिस्तान का न्यूक्लियर प्रोग्राम चालू हो चुका है। हालांकि तब तक इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई भारत के प्राइम मिनिस्टर बन चुके थे जिनकी सरकार ने पाकिस्तान के खिलाफ कोई एक्शन तो नहीं लिया लेकिन सीक्रेट इंफॉर्मेशन के लीक होने से पाकिस्तान को अपने न्यूक्लियर प्रोग्राम को डिले करना पड़ गया था।
अजीत डोबाल ने स्पाई बनकर करीब एक साल तक पाकिस्तान की कई अहम जानकारियां जुटाकर भारत तक पहुंचाई। उनके इस सफर का हर दिन जिंदगी और मौत के बीच लटका रहता था। एक बार अजी डोबाल लाहौर की एक दरगाह पर कवाली सुनने गए हुए थे। वह पूरी तरह एक मुस्लिम की वेशभूषा में थे। शरीर पर लंबा कुर्ता, सर पर टोपी और मुंह पर नकली दाढ़ी। मजार पर पहुंचने के कुछ देर बाद वह कवाली सुनने में मशगूल हो गए। तभी उनके पास एक पाकिस्तानी आया और अजीत डोबाल के कान में कहा, भाईजान आपकी नकली दाढ़ी थोड़ी लटक रही है। अजीत डोबाल अपनी इस लापरवाही से इतना शर्मिंदा हुए कि वह तुरंत वहां से निकल आए। ऐसे ही एक और मौके पर एक बूढ़े आदमी ने अजीत डोबाल की नकली पहचान को भांप लिया था। इत्तेफाक से अजीत डोबाल उस दिन भी मजार गए हुए थे। जब वह वहां से निकलने लगे तो एक बूढ़े आदमी ने पीछे से टोक दिया। क्या तुम हिंदू हो?
अजीत ढोबाल एकदम से चौंक गए। उन्होंने जवाब दिया, नहीं तो? इसके बाद वह आदमी अजीत डोबाल को अपने कमरे में ले गया। उसने दरवाजा बंद कर कहा, "तुम्हारे कान छिदे हुए हैं। इसलिए मान जाओ कि तुम हिंदू हो।" डोबाल ने किसी तरह बात को संभालने की कोशिश करते हुए कहा, हां, बचपन में मेरे कान छेदे गए थे, लेकिन मैं बाद में इस्लाम में कन्वर्ट हो गया था। इस पर उस आदमी ने कहा, तुम बाद में भी कन्वर्ट नहीं हुए थे। तुम इसकी प्लास्टिक सर्जरी करवा लो, नहीं तो यहां लोगों को शक हो जाएगा। इसके बाद उस बूढ़े आदमी ने अपनी अलमारी खोलकर भगवान शिव और देवी दुर्गा की मूर्तियां दिखाई और डोभाल से कहा कि मैं भी एक हिंदू हूं। मैं इनकी पूजा करता हूं लेकिन मुझे अपनी जान बचाने के लिए बाहर एक मुस्लिम शख्स के रूप में रहना पड़ता है। करीब एक साल तक अंडर कवर्ड स्पाई के तौर पर काम करने के बाद करीब 6 साल तक अजीत डोबाल ने इस्लामाबाद में इंडियन हाई कमीशन में एक ऑफिसर के रूप में काम किया।
पाकिस्तान में 7 साल तक काम करने के बाद वो वापस इंडिया आ गए। उस समय पंजाब में चरम पंथ काफी बढ़ चुका था और कुछ सेपरेटिस ने 1984 की तरह एक बार फिर से सिखों के सबसे पवित्र स्थान गोल्डन टेंपल पर कब्जा जमा लिया था। तब राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे और उनके ज़हन में अब भी 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार की बुरी यादें ताजा थी। जिसकी कीमत उनकी मां इंदिरा गांधी ने अपनी जान देकर चुकाई थी। इसलिए इस बार वह इस मामले में सतर्कता बरतना चाहते थे। वह चाहते थे कि सेना को टेंपल के अंदर भेजे बिना ही वहां से मिलिटेंट्स को खाली किया जाए। अथॉरिटीज द्वारा इस काम की सबसे बड़ी जिम्मेदारी पंजाब के डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस केपीएस गिल को सौंपी गई। जिन्हें ग्राउंड लेवल पर चीजों को संभालना था।
वहीं इस मिशन में अजीत ढोबाल एक बहुत अहम भूमिका निभाने वाले थे। अजीत ढोबाल को टेंपल के अंदर घुसकर यह पता लगाना था कि मिलिटेंट्स कितने हैं, कहां छुपे हैं, क्या प्लान बना रहे हैं और उनकी कमजोरी क्या है। थोड़ी सी भी चूक अजीत डोभाल की जान ले सकती थी। लेकिन बिना इसकी परवाह किए वो एक रोमांचक प्लान बनाने में जुट गए। ऑपरेशन शुरू होने से कुछ दिन पहले वह एक रिक्शा वाले का रूप लेकर गोल्डन टेंपल के आसपास चक्कर काटने लगे। धीरे-धीरे वह अमृतसर के लोगों और खालिस्तानी अलगाववादियों की नजरों में आने लगे। एक दिन उनकी मुलाकात कुछ सेपरेटिस्ट से हुई। नोबाल ने यहां जिस चालाकी से काम लिया वो अपने आप में एक कहानी बन गई। उन्होंने उन सेप्रेटिस्ट की आंखों में आंख डालकर कहा, "मैं आईआई का आदमी हूं।" पाकिस्तान ने मुझे तुम्हारी मदद के लिए भेजा है। क्योंकि वह 7 साल तक पाकिस्तान में रह चुके थे। इसलिए उन्होंने इस हिसाब से खुद को पेश किया कि अलगाववादियों को जल्दी ही उनकी बातों पर विश्वास हो गया। उनका विश्वास जीतने के बाद अजीत ढोबाल अपनी जान जोखिम में डालकर गोल्डन टेंपल के अंदर दाखिल हो गए। वो दो दिनों तक दुश्मनों की असली मंशा, उनकी एग्जैक्ट लोकेशन, उनकी संख्या और उनकी कमजोरियों और ताकतों को आंकते रहे।
इसके बाद उन्होंने सारी इंफॉर्मेशन डिफेंस फोर्सेस को फॉरवर्ड कर दी। उनकी इंफॉर्मेशन के बेस पर 9th मई 1988 को ऑपरेशन ब्लैक थंडर 2 की शुरुआत की गई। पहले दो दिन सीआरपीएफ के जवानों ने मोर्चा संभाला और उसके बाद 11 और 12 मई के बीच अमृतसर में एनएसजी के स्पेशल एक्शन ग्रुप के 1000 कमांडोज़ को उतारा गया। एनएसजी कमांडोज़, सीआरपीएफ और पंजाब पुलिस ने मिलकर एक घेराबंदी रणनीति अपनाई और टेंपल के चारों ओर का इलाका पूरी तरह से घेर लिया। एनएसजी के स्नाइपर्स ने बाहर की ऊंची इमारतों पर पोजीशन ले ली। गोल्डन टेंपल के अंदर के पानी और बिजली की सप्लाई को काट दिया गया ताकि मिलिटेंट्स गर्मी की वजह से पानी और हवा के लिए बाहर निकलने को मजबूर हो जाए और बाहर निकलते ही उन्हें मार गिराया जा सके।
इसके बाद गोल्डन टेंपल के अंदर घनघोर अंधेरा छा गया और कुछ ही वक्त में यहां छुप कर बैठे उपद्रवी भूख और प्यास से तड़पने लगे। दो स्नाइपर्स गुरु रामदास सराय के पीछे बनी 300 फीट ऊंची पानी की टंकी पर चढ़ गए ताकि उन्हें हरमंदिर साहिब कॉम्प्लेक्स में छिप कर बैठे मिलिटेंट्स की पोजीशन का पता चल सके। कुछ दिन बाद जब मिलिटेंट्स का टॉप कमांडर जहागीर सिंह का प्यास से गला सूखने लगा तो वो पानी पीने के लिए बाहर आया। टंकी के ऊपर बैठे जवानों ने बिना देरी किए उसका भेजा उड़ा दिया। गोलियों की आवाज सुनकर उसकी मदद के लिए एक और सेपरेटिस्ट बाहर आया लेकिन उसे भी मार गिराया गया। इस बीच गोल्डन टेंपल के अंदर जाकर प्रेस ने भी इन उपद्रवियों की काली करतूत को जनता के सामने लाने का काम किया। अब मिलिटेंट्स के ऊपर हर तरफ से दबाव था। उनके साथी मारे जा रहे थे और वह गर्मी और प्यास से तड़प रहे थे। इसलिए 15 से 18 मई के बीच 200 से ज्यादा मिलिटेंट्स ने सरेंडर कर दिया। जबकि 41 मिलिटेंट्स को मौत की नींद सुला दिया गया। ध्यान देने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि एनएसजी कमांडोज़ ने इस पूरे ऑपरेशन को गोल्डन टेंपल के मुख्य पवित्र हिस्से यानी हरमिंदर साहिब में घुसे बिना अंजाम दिया।
याजी डोबाल द्वारा दी गई जानकारी का ही कमाल था कि 9 दिन लंबी कारवाही में ना तो एक भी सुरक्षाकर्मी की जान गई और ना ही किसी सिविलियन की मौत हुई। इतने कम समय में देश की सुरक्षा और उसकी मजबूती में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने के लिए 1989 में अजीत डोबाल को सेकंड हाईएस्ट पीस टाइम गैलेंड्री अवार्ड कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। वो पहले पुलिस ऑफिसर बने जिन्हें यह सम्मान मिला यह गैलेंड्री अवार्ड आमतौर पर सिर्फ मिलिट्री में काम करने वाले सैनिकों को दिया जाता है।
पंजाब में शांति बहाल हो जाने के बाद 1992 में अजीत डोभाल को लंदन स्थित इंडियन एंबेसी भेज दिया गया। वहां उन्होंने 4 साल तक काम किया। इस दौरान जम्मू कश्मीर में कुका परे नाम का एक आदमी पाकिस्तान के साथ मिलकर यहां हिंसा फैला रहा था।
लोकल लोगों में उसकी पकड़ थी और वह खुद को सबका लीडर बताता था। हालात और ना बिगड़ पाए इसलिए सरकार ने फिर से अजीत ढोबाल को याद किया और उन्हें कश्मीर भेज दिया। उन्होंने कुकापरे से कई मीटिंग की और उसे कुछ ही महीनों में साइट चेंज करने के लिए कन्विंस कर लिया। अजीत ढोबाल के प्लान की वजह से कश्मीर में धीरे-धीरे शांति लौटने लगी। उनके प्रयासों के कारण ही 1996 में जम्मू एंड कश्मीर में चुनाव करवा पाना मुमकिन हो सका।
साल 1999 में एक बार फिर देश की सिक्योरिटी पर खतरा मंडराया। 24 दिसंबर 1999 को नेपाल के त्रिभुवन इंटरनेशनल एयरपोर्ट से दिल्ली आ रही फ्लाइट IC814 को पांच आतंकियों ने हाईजैक कर लिया था। प्लेन में 176 पैसेंजर्स थे। आतंकी प्लेन को पहले लाहौर ले गए। फिर दुबई और आखिर में प्लेन को अफगानिस्तान के कंधार में उतारा गया। आतंकियों से नेगोशिएशन करने के लिए भारत से एक टीम कंधार भेजी गई।
डोबाल भी हिस्सा थे और वह इससे पहले 15 हाईजैकिंग केस डील कर चुके थे। सिचुएशन काफी मुश्किल थी क्योंकि आतंकियों को पाकिस्तान की इंटेलिजेंस एजेंसी, आईएसआई और तालिबान का सपोर्ट था। आतंकी बार-बार पैसेंजर से भरे प्लेन को बम से उड़ाने की धमकी दे रहे थे। अजीत ढोभाल ने जब उनसे उनकी डिमांड पूछी तो आतंकियों ने पैसेंजर्स की रिहाई के बदले भारत की जेलों में बंद 36 आतंकियों की रिहाई और 200 मिलियन की फिरौती की मांग की।
अजीत डोबाल ने ऐसी मुश्किल घड़ी में भी हाईजैकर्स को 36 की जगह केवल तीन आतंकियों की रिहाई पर राजी होने के लिए तैयार कर लिया। उनके नेगोशिएशन से भले ही रिहा हुए आतंकियों की संख्या कम हुई, लेकिन फिर भी यह भारत के लिए एक बड़ा सेटबैक था। क्योंकि रिहा किए हुए उन तीन आतंकियों में मौलाना मसूद अजर भी था जिसने आगे चलकर जैश-ए-मोहम्मद नाम की टेररिस्ट ऑर्गेनाइजेशन बनाकर भारत पर कई अटैक करवाए।
इसके बाद के अगले कुछ साल अजीत डोबाल अपने काम में लगे रहे और उनकी काबिलियत को देखते हुए जुलाई 2004 में उन्हें आईबी का डायरेक्टर बना दिया गया। लेकिन कांग्रेस सरकार से रिश्ते अच्छे ना होने की वजह से वो केवल 6 महीनों बाद ही जनवरी 2005 में रिटायर हो गए। जबकि आईबी का डायरेक्टर जनरली 2 साल तक अपने पद पर बना रहता है। हालांकि रिटायरमेंट के बाद भी वह बाहर से आईबी के कामों से जुड़े रहे।
रिटायर होने के 3 महीने बाद ही उन्हें पता चला कि दाऊद इब्राहिम की बेटी महारूक की शादी पाकिस्तानी क्रिकेटर जावेद मियादाद के बेटे जुनैद से होने वाली है। निकाह मक्का में था। लेकिन रिसेप्शन 23 जुलाई को दुबई के ग्रैंड हयात होटल में होने वाला था। भारतीय एजेंसियों को पक्का यकीन था कि दाऊद इस पार्टी में आएगा। यह उसे खत्म करने का परफेक्ट मौका था। लेकिन प्लान फेल होने पर भारतीय एजेंसियों की बड़ी फजीहत होती। सरकार अपने ऊपर कोई तोहमत नहीं चाहती थी। इसलिए इस काम को चुपचाप बिना किसी सैन्य सहायता के करने की जिम्मेदारी रिटायर हो चुके अजीत ढोबाल को सौंप दी गई।
अजीत ढोबाल ने छोटा राजन की गैंग की मदद लेने का फैसला किया। छोटा राजन और दाऊद पहले दोस्त थे लेकिन बाद में दोनों अलग हो गए। आगे दाऊद ने साल 2000 में छोटा राजन पर बैंकॉक में हमला करवा दिया था। जिससे दोनों के बीच की कड़वाहट और बढ़ गई थी और तब से छोटा राजन भी दाऊद से बदला लेने की तलाश में था। अजीत डोबाल के इशारे पर छोटा राजन ने अपने दो भरोसेमंद शूटर्स विक्की मल्होत्रा और फरीद तनाशा को दाऊद को ठिकाने लगाने का काम सौंपा। भारत में एक सीक्रेट लोकेशन पर अजीत डोबाल की निगरानी में इन दोनों की ट्रेनिंग हुई। दोनों के लिए फिर नकली ट्रैवल डॉक्यूमेंट्स और दुबई के टिकट्स अरेंज करवाए गए। सब कुछ प्लान के हिसाब से चल रहा था। लेकिन तभी एक बहुत बड़ी गड़बड़ हो गई। मुंबई पुलिस को किसी तरह यह भनक लग गई कि छोटा राजन के आदमी शहर में है।
एक दिन डोबाल मुंबई के एक होटल में बैठकर छोटा राजन गैंग के शूटर्स को मिशन समझा रहे थे कि तभी पुलिस ने उस होटल पर धावा बोल दिया। डोबाल ने पुलिस को समझाने की बहुत कोशिश की कि वह कौन है और किस मिशन पर काम कर रहे हैं। लेकिन मुंबई पुलिस ने उनकी एक नहीं सुनी और तनाशा और मल्होत्रा को अरेस्ट करके ले गई। डोबाल पुलिस के इस रवैया से बहुत गुस्से में थे। उन्होंने हाई अथॉरिटीज से भी इस गिरफ्तारी को रोकने की बात की।
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। छोटा राजन के गैंग के उन दोनों शूटर्स की गिरफ्तारी मीडिया में आ चुकी थी और अब कुछ नहीं हो सकता था। डोबाल को मजबूरी में पूरा मिशन रोकना पड़ा और इस तरह दाऊद इब्राहिम बाल-बाल बच गया। रिटायरमेंट के बाद भी अजीत डोबाल का सफर खत्म नहीं हुआ था।
3 साल तक वो मीडिया डिबेट्स, पब्लिक मीटिंग्स और सेमिनार्स में बतौर गेस्ट नजर आते रहे। फिर साल 2008 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें गुजरात में एक ऐसी यूनिवर्सिटी बनाने के लिए इनवाइट किया जिसमें इंटरनल सिक्योरिटी और पुलिस साइंस से जुड़ी चीजों पर फोकस हो। इसी बुनियाद पर अजीत डोबाल ने गुजरात में रक्षा शक्ति यूनिवर्सिटी की शुरुआत की और यहां से उनकी नजदीकी बीजेपी के कई दिग्गज नेताओं और आरएसएस के टॉप मेंबर्स से बढ़ने लगी।
अगले साल 2009 में उन्होंने आरएसएस के एकनाथ रनाडे की ऑर्गेनाइजेशन विवेकानंद केंद्र की मदद से विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन वीआईएफ की स्थापना की जिसका मकसद देश की नेशनल सिक्योरिटी डिप्लोमेसी और ग्लोबल अफेयर्स पर रिसर्च और एनालिसिस करके देश को मजबूत बनाना था। इसके बाद साल 2014 के जनरल इलेक्शंस में जब बीजेपी जीत हासिल कर पावर में आई तो प्राइम मिनिस्टर नरेंद्र मोदी ने अजीत ढोबाल को देश का पांचवा नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर एनएसए अपॉइंट कर दिया।
जून 2014 में वह इराक में फंसी 46 इंडियन नर्सेज को छुड़वाने के लिए खुद इराक गए और रेस्क्यू ऑपरेशन प्लान कर सभी को सुरक्षित इंडिया वापस लाए। इसके बाद 2015 में म्यांमार में आतंकियों के खिलाफ क्रॉस बॉर्डर स्ट्राइक हो। 2016 में उरी हमले के बाद सर्जिकल स्ट्राइक हो या फिर 2019 में पुलवामा के बाद बालाकोट एयर स्ट्राइक। इन सब दमदार जवाबी कार्रवाइयों में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही है। जम्मू एंड कश्मीर से आर्टिकल 370 हटाने की प्लानिंग में भी उनका एक बड़ा कंट्रीब्यूशन रहा है। इसके अलावा फॉरेन डिप्लोमेसी में भी अजीत डोबाल ने अद्भुत काम किया है।
साल 2017 में जब डोकलाम में भारत और चीन के सैनिक आमने-सामने खड़े थे तब उन्होंने जर्मनी के हेमबर्ग में चीनी अधिकारियों से बातचीत कर दोनों सेनाओं को पीछे हटने पर राजी कर लिया था। 22 अप्रैल 2025 को जम्मू कश्मीर के पहलगाम में जो आतंकी हमला हुआ था उसका जवाब भारतीय सेनाओं ने 7 मई 2025 को ऑपरेशन सिंदूर के जरिए दिया। इस ऑपरेशन के पीछे भी एनएसए अजीत ढोबाल ने एक बेहद अहम भूमिका निभाई थी। उनकी सटीक रणनीति और बेहद पुख्ता खुफ़िया जानकारियों की वजह से भारतीय वायु सेना ने पीओके और पाकिस्तान के अंदर मौजूद आतंकियों के नौ ठिकानों को बेहद सटीकता से टारगेट किया।
इस ऑपरेशन में 100 से ज्यादा आतंकवादी मारे गए। जिनमें एक अब्दुल रऊफ अजहर भी था जो IC814 हाईजैकिंग का मास्टरमाइंड था। रऊफ अजहर की मौत केवल एक रणनीतिक सफलता नहीं थी बल्कि अजीत डोबाल के लिए एक निजी जीत भी थी। क्योंकि 26 साल पहले 1999 में IC814 के पैसेंजर्स की जान बचाने के लिए अजीत डोबाल को अब्दुल रऊफ अजहर और उसके साथियों से नेगोशिएशन करके भारी मन से आतंकी मसूद अजहर और अन्य दो आतंकियों को छोड़ना पड़ा था। आज की तारीख में अजीत डोबाल की उम्र 80 साल की है। लेकिन फिर भी वह बिल्कुल फिट एंड एक्टिव दिखाई देते हैं।
सरकार की हर रणनीति में अजीत डोबाल की भूमिका होती है। चाहे नेशनल सिक्योरिटी हो, फॉरेन पॉलिसी हो या लॉ मेकिंग हो। पीएम मोदी अब तक उन्हें तीन बार एनए से अपॉइंट कर चुके हैं और वह इस पद पर लगातार तीन बार रहने वाले पहले व्यक्ति हैं।
उन्हें बिना किसी चुनाव लड़े भी कैबिनेट मिनिस्टर का दर्जा दिया गया है। उनके शानदार और अनोखे कामों की वजह से ही उन्हें आज इंडिया का जेम्स बॉन्ड कहा जाता है।