इसी बीच एक गड़िया अपनी भेड़ों को चराते हुए रास्ता भटक कर चुल सेक्टर के रेजांगला पहुंच जाता है। वहां युद्ध के बाद से ही भारी बर्फबारी की वजह से कोई नहीं गया था। लेकिन जब वो गढ़रिया उस वीरान जगह पर पहुंचा तो उसकी आंखें वहीं की वही जमी रह गई। चारों तरफ टूटे हुए बंकर थे, बिखरे हुए बुलेट शेल्स थे और फिर उसने कुछ ऐसा देखा जिसने उसकी रूह को झकझोर कर रख दिया। वहां बर्फ में हर तरफ भारतीय सैनिकों की लाशें जमी पड़ी थी। मौत के बाद भी किसी शहीद जवान के हाथ में अब भी राइफल जस की तस बनी हुई थी और किसी के हाथ ने ग्रेनेड को अब भी ऐसे जकड़ा हुआ था जैसे वह मौत के बाद भी दुश्मन के छुड़ा देने को तैयार हो। इस मंजर को देख गढ़रिया घबराता हुआ नीचे भागा और तुरंत नजदीकी इंडियन आर्मी पोस्ट को इसकी खबर दी।
इसके बाद जब सेना के अफसर रेजांग ला पहुंचे तो वहां वो अपने जवानों के पार्थिव शरीर देखकर सन्न रह गए। शहीद हो चुके यह वही भारतीय जवान थे जिनकी 3 महीने से कोई खबर नहीं थी। कोई कहता था कि चाइना ने उन्हें युद्धबंदी बना लिया है तो कोई उन्हें कायर और देशद्रोही बताकर कहता था कि वह डर कर लड़ाई से भाग गए होंगे। लेकिन जब इस इंसिडेंट के बाद सच से पर्दा उठा और बैटल ऑफ रेजांग ला की पूरी सच्चाई सामने आई तो पूरे देश की नजरें इन पराक्रमी योद्धाओं के बलिदान के आगे झुक गई।
आइए जानते हैं बैटल ऑफ रेजांग लॉ की पूरी कहानी जिसे इंडियन मिलिट्री के इतिहास की सबसे भयंकर लड़ाईयों में से एक माना जाता है। जब एक इलाके की रक्षा करते हुए लगभग सभी जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। आखिर कैसे यहां संख्या में केवल 120 होने के बावजूद भारतीय जवानों ने अपनी आखिरी गोली और अपनी आखिरी सांस तक देश के लिए लड़ते हुए 3000 से भी ज्यादा चीनियों का मुकाबला करते हुए 1300 चीनी सैनिकों को ढेर कर दिया था।
इंडिया और चाइना के बीच जम्मू एंड कश्मीर के अक्साई चिन्ह और नॉर्थ ईस्ट के नेफा यानी नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी को लेकर लंबे समय से तनाव बना हुआ था। सालों से चला आ रहा यह विवाद एक भयंकर युद्ध में तब बदल गया जब चाइना ने 20 अक्टूबर 1962 को अचानक भारत पर एक बड़ा हमला कर दिया। भारत अचानक से हुए इस हमले के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि चीन ने कई मोर्चों पर भारत को पीछे धकेल दिया और महज 4 दिनों के अंदर कई अहम इलाकों पर कब्जा कर लिया। इस दौरान चीन का ध्यान लद्दाख के ईस्ट में मौजूद चिशूल पर भी था जो स्ट्रेटेजिकली बेहद अहम इलाका था। यहां भारत की एक एयर स्ट्रिप मौजूद थी जो युद्ध के समय सैनिकों और हथियारों की आवाजाही के लिए बेहद जरूरी थी। चिशूल के इस एयर स्ट्रिप की सुरक्षा के लिए रेजांगला एक बेहद की डिफेंस पॉइंट था। रेजांग ला वो पहाड़ी दर्रा है जो लगभग 17000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
अगर चीन समय से रेजांग ला पर अपना कंट्रोल कर लेता तो उसका केवल चुशूल की एस ट्रिप पर ही नहीं बल्कि इस पूरे सेक्टर पर दबदबा हो जाता। चाइना की इसी संभावित योजना को भांपते हुए भारत ने 24 अक्टूबर 1962 को मेजर शैतान सिंह भाटी के नेतृत्व में 13 कुमाऊं रेजीमेंट की चार्ली कंपनी की एक टुकड़ी को चुशूल एयर स्ट्रिप की रक्षा के लिए रेज़ान ला भेजा। इस टुकड़ी के ज्यादातर जवान हरियाणा से थे और वह अपनी जिंदगी में इतनी ठंड और बर्फबारी का एक्सपीरियंस पहली बार कर रहे थे। यहां टेंपरेचर -30° तक चला जाता था। इसलिए ठंड इतनी ज्यादा थी कि कच्ची सब्जियां और फल बाहर निकालने पर कुछ पल में ही जमकर पत्थर बन जाते थे। इस ठिटुरन भरी ठंड में चढ़ाई कर रहे भारतीय जवानों के दांत से दांत बज रहे थे और सांस छोड़ते हुए उन्हें ऐसा महसूस होता था जैसे नाक से निकलती हवा भी जम जा रही हो। परेशानी सिर्फ इतनी नहीं थी। इन जवानों को एक शॉर्ट नोटिस पर जम्मू एंड कश्मीर के बारामूला से रेजांग ला भेज दिया गया था। लेकिन उनके पास ना तो एक्सट्रीम कोल्ड के लिए प्रॉपर गर्म कपड़े थे और ना ही कोई स्पेशल बूट्स थे।
रेजांग ला की सिचुएशन इतनी जटिल थी कि यहां आसपास इस्टैब्लिश इंडियन आर्टिलरी और रेजांग लॉ के बीच एक ऊंची पहाड़ी मौजूद थी। जिस वजह से युद्ध के दौरान यहां आर्टिलरी सपोर्ट मिल पाना और रीइंफोर्समेंट भेज पाना काफी मुश्किल था। ऐसे हालात में भी भारतीय सैनिकों के पास दुश्मन का मुकाबला करने के लिए पुरानी और आउटडेटेड 0.33 राइफल्स थी। जिन्हें हर बार फायर करने के बाद दोबारा मैनुअली रीलोड करना पड़ता था। इन राइफल्स के अलावा उनके पास केवल नौ लाइट मशीन गंस, 32 इंच मोटर्स, दो-3 इंच मोटर्स और 500 हैंड ग्रेनेड्स थे। वहीं दूसरी ओर चाइनीस सोल्जर्स के पास भारत से कई गुना एडवांस 7.62 सेल्फ लोडिंग राइफल्स थी। साथ ही मीडियम मशीन गंस, 120 एमएम मोटार्स, 132 एमएम रॉकेट्स और रिकइल लेस राइफल्स जैसी ताकतवर वेपनरी थी। रेजांगला पहुंचने के बाद मेजर शैतान सिंह ने अपने 120 जवानों को तीन प्लटूंस में बांट दिया।
35 सोल्जर्स वाली प्लटून सेवन नॉर्थ के फॉरवर्ड स्लोप पर नायब सूबेदार सुरजाम की अगुवाई में तैनात की गई। 40 सोल्जर्स की प्लेटून एट सदर्न एरिया में नायब सूबेदार हरिराम के नेतृत्व में मोर्चा संभाली थी और 40 सोल्जर्स वाली प्लेटून नाइन प्लेटून से के साउथ वेस्ट में कैप्टन रामचंद्र यादव के नेतृत्व में तैनात की गई। इन तीनों प्लेटून्स को लीड करने के लिए एक सेंट्रल कमांड पोस्ट बनाई गई। जहां खुद मेजर शैतान सिंह तैनात थे। इस कमांड पोस्ट के करीब 150 यारार्ड्स पीछे मोटार्स टीम को इस्टैब्लिश किया गया। जिसे नायक राम कुमार लीड कर रहे थे। 13 कुमाऊं रेजीमेंट के इन जवानों के लिए इन बर्फीली पहाड़ियों में बिना खास गर्म कपड़ों और बिना अच्छे खाने के हर दिन गुजारना भी एक युद्ध लड़ने जैसा ही था। इंडो चाइना वॉर को शुरू हुए कई हफ्ते बीत चुके थे और दूसरे मोर्चों पर घमासान जारी था। लेकिन रेजांग लॉ में अभी तक चाइना की तरफ से कोई सीधी कारवाई नहीं हुई थी। मेजर शैतान सिंह हर रोज सभी प्लटूंस का दौरा करते और जवानों को हर परिस्थिति के लिए तैयार रहने के लिए प्रेरित करते।
इस दौरान दूसरे मोर्चों से आ रही युद्ध की खबरें यह जवान ऑल इंडिया रेडियो पर सुना करते थे। जैसे ही किसी मोर्चे पर चाइना के भारी पड़ने की खबर मिलती 13 कुमाओं के जवानों का खून खौल जाता। वो इसकी चर्चा अपने कमांडर मेजर शैतान सिंह से करते हुए कहते साहब जब हमें युद्ध का मौका मिलेगा तो हम जमकर लड़ेंगे। इस पर मेजर शैतान सिंह केवल मुस्कुरा देते। इसके बाद 17 नवंबर की रात यहां एक बर्फीला तूफान आया। उस तूफान के बाद फिजाओं में एक अजीब सी खामोशी थी। लेकिन इसी खामोशी में हजारों चीनी घुसपैठिए भी लगातार भारतीय सैनिकों के करीब बढ़ते जा रहे थे। अभी अगली सुबह का उजाला हुआ भी नहीं था कि चाइना की तरफ से कुछ हलचल शुरू हो गई। तीनों प्लेटून के जवानों ने जब अपने बैनोकुलस से नजरें दौड़ाई तो उन्हें कुछ किलोमीटर की दूरी पर चाइना की ओर से एडवांस वेपन और जवानों से खचाखच भरी 32 सैन्य गाड़ियां तेजी से रेजांग ला की ओर आती दिखी। जब तक भारतीय सैनिक कुछ समझ पाते, उससे पहले ही सुबह के 3:30 बजे चीन की तरफ से एक लंबा बॉस्ट आया जिसकी गूंज से पूरा पहाड़ी इलाका कांप उठा।
मेजर शैतान सिंह को तुरंत बताया गया कि प्लेटून एट के सामने से दुश्मन का हैवी फायर आया है। ठीक 4 मिनट बाद नायब सूबेदार हरिराम ने भी उन्हें अपनी पोस्ट से रेडियो पर खबर दी कि करीब 30 चीनी सिपाही हमारी तरफ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। इसके बाद मेजर शैतान सिंह ने अपने सभी जवानों को पोजीशन लेकर गोली चलाने का आदेश दे दिया। जैसे ही चाइनीस सोल्जर्स भारतीय जवानों की फायरिंग रेंज में आए, उन्होंने बिना देर किए उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी। केवल 10 मिनट की गोलीबारी में कई चीनी सैनिक मारे गए और कई डर कर पीछे भाग गए। सबको लग रहा था कि पहला खतरा टल गया है। लेकिन असल में यह एक बड़े हमले से पहले की खामोशी थी। भारतीय जवान थोड़े रिलैक्स हुए ही थे कि तभी चाइना की तरफ से सीधा भारतीय पोस्ट के एक 3 इंच मोटार पर एक जोरदार बस्ट हुआ। एक ही झटके में मोटार तहस-नहस हो गया और तीन भारतीय जवान इसकी चपेट में आकर अपनी जान गवा बैठे। अपने तीन साथियों की शहादत की खबर ने मेजर शैतान सिंह को झकझोर कर रख दिया। उन्हें जल्द ही स्थिति का अंदाजा हो गया कि दुश्मन भारी मात्रा में एडवांस वेपंस के साथ आया है। उन्होंने तुरंत अपने सीनियर ऑफिसर को एक रेडियो मैसेज भेजा।
प्लेजांग ला पर चीन की सेना हमला कर चुकी है। हमें तुरंत रीइंफोर्समेंट की जरूरत है। उनके इस संदेश पर दूसरी तरफ से जवाब आया इस वक्त रीइंफोर्समेंट मुमकिन नहीं है और आगे भी हम कोई मदद नहीं भेज पाएंगे। इसलिए बेहतर होगा आप अपने जवानों के साथ पोस्ट छोड़कर पीछे हट जाए। यानी इस मौके पर अगर मेजर शैतान सिंह चाहते तो वह अपनी और अपने जवानों की जान बचाने के लिए पोस्ट छोड़कर भाग सकते थे।
लेकिन मेजर शैतान सिंह की रगों में देश प्रेम और बहादुरी का वो लहू दौड़ता था जिसे रणभूमि में पीठ दिखाना मंजूर नहीं था। सीनियर ऑफिसर्स के आदेश के बाद भी उन्होंने अपनी आखिरी सांस तक देश की रक्षा करने का फैसला किया। उन्होंने अपने सभी जवानों को एक जगह पर इकट्ठा किया और उनसे कहा, हम केवल 120 हैं। हमें दुश्मनों की सही संख्या मालूम नहीं है। लेकिन हो सकता है वह हजारों में हो। युद्ध में हमारे गोला बारूद कम पड़ सकते हैं। आगे हमें कोई मदद भी नहीं पहुंचाई जाएगी। इसलिए आप में से जो कोई भी अपनी जान बचाना चाहता है, वह पीछे हट सकता है। लेकिन मैं अपनी आखिरी सांस तक ही रहकर दुश्मन का मुकाबला करूंगा। अपने कमांडर की इस बात पर वहां मौजूद सभी भारतीय जवानों ने एक साथ जोश भरे स्वर में कहा, "साह, हम मर जाएंगे, लेकिन यह पोस्ट नहीं छोड़ेंगे।" मेजर शैतान सिंह को अपने साथी जवानों की इस बहादुरी पर गर्व था। इसके बाद उन्होंने चीन की सेना का ढंग से मुकाबला करने के लिए स्ट्रेटजी बनाई।
गोलियों और हथगोले की कमी को देखते हुए यह तय हुआ कि हर गोली तभी चलाई जाएगी जब उससे किसी चीनी सैनिक का मरना कंफर्म हो। और जैसे ही कोई चीनी सैनिक मारा जाए तुरंत उसके हथियार छीन लिए जाए ताकि गोला बारूद की कमी पूरी की जा सके। उधर चीन को लग रहा था कि उसके पहले हमले और यहां उसके सैन्य बल को देखते हुए इंडियन सोल्जर्स अब तक पोस्ट छोड़कर भाग चुके होंगे। लेकिन चीनी सैनिकों को कहां पता था कि आज उनका सामना मेजर शैतान सिंह और उनके जांबाजों से होने वाला है जो अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर सकते हैं लेकिन जीते जी उन्हें उनकी पोस्ट से 1 इंच भी पीछे हटा पाना नामुमकिन है।
18 नवंबर की सुबह 4:00 बजे चाइना ने फिर से एक हमला किया। इस बार हमला प्लटून से की पोजीशन पर हुआ था। मेजर शैतान सिंह को जब इसकी खबर मिली तो उन्होंने आदेश दिया कि जैसे ही चीन सैनिक उनकी फायरिंग रेंज में आ जाए उन पर ताबड़तोड़ फायरिंग की जाए। इसके बाद जैसे ही चीनी सैनिक 300 गज की रेंज में आए भारतीय जवानों ने उन पर धुआंधार फायरिंग शुरू कर दी। कुछ ही देर में वहां दुश्मन की लाशें बिछ गई और एक बार फिर से कुछ ही मिनटों में दुश्मन को उल्टे पांव पीछे लौटना पड़ा। इस जीत से प्लटून से में खुशी का माहौल था। उन्होंने मेजर शैतान सिंह तक यह खबर पहुंचाई। सर दुश्मन की ओर से फायरिंग शांत हो चुकी है और हम इस बार भी जीत चुके हैं।
लेकिन मेजर शैतान सिंह दुश्मन की रणनीतियों को भांप चुके थे। उन्होंने तुरंत अपने जवानों को सतर्क करते हुए कहा युद्ध को खत्म मत समझो वो फिर आएंगे। उनका अनुमान कुछ ही देर में सच साबित हुआ और सुबह के 4:55 पर चीन की तरफ से एक और बड़ी हलचल शुरू हो गई। प्लेटून से नायब सूबेदार सुरजाराम ने फिर से मेजर शैतान सिंह को संदेश भेजा। अक्सर चाइना की तरफ से एक बड़ा हमला आता दिख रहा है। लगभग 400 दुश्मन सैनिक तेजी से हमारी ओर बढ़ रहे हैं। कुछ ही देर में प्लेटून एट से भी सूचना आई कि चोटी की तरफ से करीब 800 चीनी सैनिक उनकी तरफ भी आ रहे हैं। चाइना की ओर से यह दिन का तीसरा और फुल फ्रंटल अटैक था। भारतीय सैनिकों ने भी अपनी-अपनी पोजीशन से मोर्चा संभाल लिया। मेजर शैतान सिंह ने अपने जवानों को इस बार केवल राइफल से ही नहीं बल्कि लाइट मशीन गंस, मोटार और ग्रेनेड से भी जवाब देने का आदेश दिया।
उन्होंने लगातार घटते एमुनेशन को देखते हुए जवानों को सख्त निर्देश दिया कि एक भी गोली बर्बाद नहीं होनी चाहिए। फायर तभी किया जाए जब दुश्मन उनकी रेंज में हो। भारतीय जवानों ने इस बार भी इतनी बहादुरी और सटीकता से चीनी सिपाहियों का सामना किया कि कुछ ही मिनटों के अंदर कई चाइनीस सोल्जर्स मारे गए और बाकियों को एक बार फिर पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन इस बार चीनी सैनिकों को फिर से हमला करने के लिए एकजुट होने में ज्यादा समय नहीं लगा। बार-बार के नाकाम हमलों के बाद चीन के सैनिकों ने इस बार अपनी प्लानिंग में बदलाव किया। छोटे-छोटे हमले करके वो पहले ही भारतीय सैनिकों के पास मौजूद एमुनेशन के एक बड़े भाग को खत्म करवा चुके थे। और जहां अब तक चीन के सैकड़ों सैनिक मारे गए थे, तो वहीं भारत की तरफ से दर्जनों जवान शहीद हो गए थे। ऐसे में जैसे ही उन्हें भारत की ओर से गोलीबारी कम होती दिखी, उन्होंने इस बार चोटियों की आड़ लेकर भारतीय जवानों पर गोलीबारी की जगह मोटार फायरिंग शुरू कर दी।
दोनों तरफ से भयंकर गोलीबारी होने लगी। रात के अंधेरे में ऊंचाई पर होने की वजह से भारतीय जवानों को दुश्मन के निशाने से बचने में मदद मिल रही थी। लेकिन जैसे ही सुबह के 6:25 हुए, चारों तरफ हल्का-हल्का उजाला होने लगा। इस रोशनी की वजह से भारतीय पोस्ट और उनके हथियारों की पोजीशनिंग, दुश्मन को दूर से ही साफ-साफ दिखने लगी। इसके बाद चाइनीस सोल्जर्स ने ना केवल मोटार से गोलीबारी की बल्कि वह बीच-बीच में भारतीय जवानों पर आरसीएल बम भी फेंक रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि कुछ ही देर में भारत की मोटार पोस्ट बुरी तरह से बर्बाद हो गई। प्लेटून से और प्लेटून एट जो फ्रंट पर थी उनके काफी जवान देश के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए जो जिंदा बचे थे वो गंभीर रूप से घायल थे।
ऐसे हालात में मेजर शैतान सिंह ने अपने बचे हुए जवानों को एक ऑपरेशनल ऑर्डर दिया। लास्ट मैन लास्ट राउंड यानी आखिरी आदमी अपनी आखिरी गोली तक युद्ध जारी रखेगा। क्योंकि प्लेटून से की पोजीशन रणनीतिक रूप से काफी अहम थी और यहां भारत की ओर से भारी नुकसान हो चुका था। इसलिए प्लेटून नाइन के जवानों को प्लेटून से की पोजीशन पर तैनात कर दिया गया। इस दौरान मेजर शैतान सिंह भी अपने साथी की शहादत के बाद खाली पड़े एलएमजी पोस्ट पर तैनात हो गए। उन्होंने वहां से दुश्मन को मुंहत तोड़ जवाब देना शुरू कर दिया। कुछ देर तक दोनों तरफ से अंधाधुंध फायरिंग होती रही क्योंकि यहां भारतीय फौज को कोई भी आर्म सप्लाई नहीं हुई थी इसलिए अब तेजी से जवानों की गोलियां खत्म हो रही थी। ऐसे में कुछ जवानों ने दुश्मन से हैंड टू हैंड कॉम्बैट शुरू कर दी। भारतीय सैनिक चीनियों को पहले अपने करीब आने देते और फिर उनके पास आते ही अपनी राइफलों के बेनेट से चीनियों पर टूट पड़ते। लेकिन चाइनीस सोल्जर्स के जैकेट्स इतने मोटे थे कि बेनेट का उन पर खास असर नहीं हो रहा था।
ऐसे में अच्छे कद काठी के कुछ भारतीय जवानों ने उन्हें अपने शारीरिक बल से पछाड़ना शुरू कर दिया। इनमें से कई ऐसे थे जो सेना में भर्ती होने से पहले अपने गांव में कुश्ती लड़ते थे। लेंस नायक सिंह राम और उनके भाई नायक गुलाब सिंह भी पहलवान थे और युद्ध के मैदान में उनकी पहलवानी आज चीनियों के लिए जानलेवा साबित हो रही थी। दोनों भाई एक साथ दो-दो चीनियों को गर्दन से पकड़ कर आपस में टकरा देते और कभी उन्हें जमीन पर पटक कर धराशाही कर देते। इधर मेजर शैतान सिंह मोर्चे पर डटे हुए थे। वह बीच-बीच में दौड़-दौड़ कर अपने जवानों को मैदान में डटे रहने के लिए प्रेरित भी कर रहे थे। इस बीच उन्हें हाथ में गोली लग गई और एक चाइनीस स्प्लिंटर उनके कंधे को चीरता हुआ निकल गया। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और पट्टी करवा कर दोबारा युद्ध मैदान में आ धमके। कुछ देर बाद उनका हाथ इतना ज्यादा डैमेज हो गया कि वो ठीक से राइफल भी नहीं चला पा रहे थे। इसलिए उन्होंने रस्सी के सहारे मशीन गन को पैरों में बांध लिया और चीनी सैनिकों पर गोलियां बरसाने लगे। दुश्मन उनका यह जज्बा देखकर सन्न्य रह गया। चीनी सैनिकों को इस बात ने चौंका दिया था कि आखिर एक जवान किस बहादुरी तक जाकर लड़ सकता है। दुश्मन को समझ आ चुका था कि जब तक मेजर शैतान सिंह मैदान में टिके हैं, भारतीय जवानों का हौसला यूं ही बरकरार रहेगा।
इसलिए इसके बाद चीनी सैनिक मिलकर मेजर शैतान सिंह को निशाना बनाने लगे। कुछ ही मिनट बाद दुश्मन का एक बस्ट उनके पेट में जा और पेट से खून का फवारा निकल पड़ा। अपने कमांडर की यह हालत देखकर सीएचएम हरफूल सिंह का खून खौल उठा। उन्होंने तुरंत आगे बढ़कर अपनी लाइट मशीन गन से उस चीनी सैनिक को निशाना बनाया जिसने मेजर शैतान सिंह पर बर्स्ट फायर किया था। लेकिन इस जवाबी हमले में खुद हरफूल सिंह को भी दुश्मन की गोली लग गई। उन्होंने अपने प्राण त्यागने से पहले चिल्लाते हुए कैप्टन रामचंद्र से कहा कि किसी भी कीमत पर मेजर साहब को दुश्मन के हाथ मत लगने देना। बस लगने की वजह से मेजर शैतान सिंह के शरीर से काफी खून बह चुका था। उनके पेट में भयंकर दर्द हो रहा था। इसलिए उन्होंने कैप्टन रामचंद्र से कहा, रामचंद्र मेरे पेट में बहुत दर्द हो रहा है। तो मेरी बेल्ट खोल दो।
लेकिन जब रामचंद्र ने उनके वर्दी के अंदर हाथ डाला तो उन्हें महसूस हुआ कि मेजर शैतान सिंह की आंतें बाहर आ चुकी थी। इसलिए उन्होंने उनकी बेल्ट नहीं खोली। दुश्मन की ओर से अब भी लगातार मोटार फायरिंग जारी थी। चारों ओर तबाही मची हुई थी। भारतीय सैनिकों के तंबू जलकर खाख होने लगे थे और भारत की ओर से ज्यादातर जवान शहीद हो चुके थे। ऐसे में रामचंद्र के दिमाग में हरफूल सिंह की वह बात बार-बार दौड़ रही थी कि मेजर साहब को चीनियों के हाथ मत लगने देना। रामचंद्र ने सबसे पहले अपने पास मौजूद सभी सेंसिटिव डॉक्यूमेंट्स जला दिए और फिर अपने कुछ साथियों की मदद से मेजर शैतान सिंह को पीठ पर लादकर वहां से करीब 800 मीटर दूर ले गए और एक बड़े पत्थर के पास लाकर उन्हें लिटा दिया। मेजर शैतान सिंह युद्ध क्षेत्र को छोड़ना नहीं चाहते थे। लेकिन उनका शरीर अब लड़ने की हालत में नहीं बचा था।
शरीर से लगातार रिश्ते खून की वजह से वह बार-बार बेहोश हो रहे थे। इसके बावजूद उन्होंने दुश्मन को लाइट मशीन गन से निशाना बनाने के लिए अपनी पोजीशन ले ली। उन्होंने दुश्मन पर वार करते हुए अपनी सांस टूटने से पहले रामचंद्र से आखिरी बात कही। तुम मेरा यह कहना मान लो। फौरन अपनी पोस्ट पर लौट जाओ। अपने साथियों को बंदी होने से बचाओ और हो सके तो बटालियन हेड क्वार्टर्स जाकर सीईओ साहब को बताना कि हमारी कंपनी ने यह युद्ध किस बहादुरी के साथ लड़ा है। बस इतना कहकर सुबह के करीब 8:15 बजे मेजर शैतान सिंह अपनी आखिरी सांस तक लड़ते हुए शहीद हो गए। इसके बाद रामचंद्र फिर से मोर्चे पर लौटे और अपने बाकी साथियों के साथ मिलकर दुश्मन से लड़ने लगे। लेकिन चीनी सेना की भारी संख्या और उन्हें मिल रही हथियारों की सप्लाई के आगे वह और उनके बचे हुए साथी दुश्मन का ज्यादा देर तक सामना नहीं कर सके।
अब तक मेजर शैतान सिंह समेत कुल 114 भारतीय सैनिक अपने प्राणों की आहुति दे चुके थे। अब मैदान में यहां केवल छह भारतीय सैनिक जिंदा थे। लेकिन अब तक वह भी बेहद गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। इसी के चलते जल्द ही कैप्टन रामचंद्र समेत सभी जिंदा बचे छह के छह जवानों को चीनी सैनिक बंदी बनाकर अपनी मिलिट्री पोस्ट में ले गए। इन छह जवानों में से निहाल सिंह सबसे ज्यादा होश में थे और उन्होंने तय किया कि वह दुश्मन के जंगुल से भाग निकलेंगे। बंदी बनाए जाने की अगली ही रात निहाल सिंह पहरे पर तैनात चीनी सिपाहियों को चकमा देकर वहां से भाग निकले। रात के अंधेरे में उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि भारतीय सीमा में दाखिल होने का रास्ता किस तरफ से है। लेकिन इसके बावजूद वो एक अनुमान पर एक ही दिशा में लगातार भागते रहे। कुछ देर बाद जब चाइनीस सोल्जर्स को उनके भागने का पता चला तो उन्होंने निहाल सिंह को निशाना बनाते हुए ताबड़तोड़ फायरिंग शुरू कर दी। दुश्मन की फायरिंग के वक्त वो उनसे केवल 500 मीटर की दूरी पर थे और ऐसे में उनकी जान हलक में आ गई। लेकिन उन्होंने भागना नहीं छोड़ा।
कुछ दूर और चलने के बाद वहां उन्हें एक कुत्ता दिखाई दिया जो रेजांग ला में भारतीय सैनिकों की पोस्टिंग के दौरान वहां आया करता था। उस कुत्ते को देखकर निहाल सिंह को काफी हौसला मिला और उन्हें लगा कि यह कोई संकेत है। जब कुत्ते ने एक दिशा में चलना शुरू किया तो वह उसी को फॉलो करने लगे और आखिरकार नीचे मौजूद भारतीय बटालियन हेड क्वार्टर तक पहुंचने में कामयाब हो गए। निहाल सिंह आज भी मानते हैं कि उस कुत्ते के रूप में भगवान ने उनकी मदद करने के लिए किसी फरिश्ते को भेजा था। आगे रामचंद्र और उनके तीन साथी भी किसी तरह से चाइनीस सोल्जर्स के चंगुल से निकलकर बटालियन हेड क्वार्टर पहुंचने में सफल रहे। लेकिन दुर्भाग्य से एक सैनिक की चाइना के प्रिजन हाउस में ही मौत हो गई।
13 कुमाऊं के केवल 120 जवानों ने बर्फीली पहाड़ियों से ढके रेजांग ला के बैटल फील्ड में चाइनीस सैनिकों का इतनी बहादुरी से मुकाबला किया था कि उन्होंने चाइना की तरफ से आई करीब-करीब आधी टुकड़ी का सफाया कर दिया था। साथ ही चीन के सैकड़ों सैनिक बुरी तरह से घायल हो चुके थे। अगर भारत के उन 120 वीर जवानों के पास बेहतर राइफिलें, भरपूर गोला बारूद, बर्फ से बचने के लिए पर्याप्त कपड़े और जरूरी आर्टिलरी सपोर्ट होता, तो यह बहादुर जवान ना जाने चीन की सेना का और कितना बुरा हश्र करते। जहां 1962 के इस इंडो चाइना वॉर में दूसरे मोर्चों पर चाइनीस सोल्जर्स एक आसान जीत हासिल कर रहे थे। वहीं रेजांग लॉ पर भारतीय जवानों ने उन्हें कई घंटों तक इंगेज करके ना केवल उनके बड़ी तादाद में सैनिकों को मार गिराया बल्कि उनके वॉर एमुनेशन के एक बड़े हिस्से को भी बुरी तरह से बर्बाद कर दिया था।
इतनी बड़ी क्षति के बाद चाइनीस सोल्जर्स अपने मेन ऑब्जेक्टिव चुल की एस ट्रिप को कब्जाने की हिम्मत नहीं कर सके और जीत के बावजूद वो अपने मकसद में बिना कामयाब हुए पीछे की ओर लौट गए। इस बैटल के केवल 3 दिन बाद चाइना ने सीजफायर की भी घोषणा कर दी और दोनों देशों के बीच एक महीने से चला आ रहा लंबा युद्ध भारत की हार के साथ समाप्त हो गया।
रेजांग लॉ बैटल को इंडियन मिलिट्री हिस्ट्री की सबसे भयंकर लड़ाईयों में से एक माना जाता है। जहां एक इलाके की रक्षा करते हुए लगभग सभी जवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। लेकिन अफसोस की बात यह है कि इन वीरों के बलिदान को देश ने लंबे समय तक अनदेखा किया। 120 में से जो पांच सैनिक लौट कर आ गए थे। उन्होंने बटालियन हेड क्वार्टर में अपने सीनियर ऑफिसर्स को युद्ध की पूरी सच्चाई बताई कि रेजांग लॉ में दुश्मन से मुकाबला करते हुए उन पांचों के अलावा उनकी टुकड़ी के सारे जवान शहीद हो गए हैं। आगे उन जवानों ने सीनियर ऑफिसर्स को यह भी बताया कि रेजांग ला पर उन्होंने और उनके साथी जवानों ने 1300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था। ऐसे में वहां मौजूद दो-तीन ऑफिसर्स को छोड़कर किसी को भी उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ और उन्हें यही लगा कि यह लोग झूठ बोल रहे हैं और युद्ध का मैदान छोड़कर भाग आए हैं। सिर्फ इतना ही नहीं इसके बाद उन्हें कोर्ट मार्शल की धमकी देते हुए उनके खिलाफ एक जांच कमेटी बनाई गई।
अपनों से मिले अपमान ने जिंदा वापस लौटे जवानों का दिल तोड़ कर रख दिया। यहां तक कि समाज भी उन्हें शक की निगाहों से देखने लगा। किसी ने उन्हें भगोड़ा कहा तो किसी ने देशद्रोही इतना ही नहीं उनके बच्चों तक को स्कूलों से निकाल दिया गया। जहां इस बैटल से जिंदा बचे पांचों सैनिकों को बदनामी से गुजरना पड़ रहा था तो वहीं बाकी शहीद हुए सैनिकों की भी कोई खोज खबर नहीं ली गई और उनके पार्थिव शरीर करीब 3 महीने तक बर्फ पर यूं ही पड़े रहे। लड़ाई खत्म होने के बाद वहां भारी बर्फबारी हुई थी। जिस वजह से उस इलाके को नो मैनस लैंड घोषित कर दिया गया था और इसलिए वहां कोई लोकल भी नहीं जा पाया था। लेकिन युद्ध खत्म होने के करीब 3 महीने बाद फरवरी 1963 में एक गढ़रिया अपनी भेड़ों को चरातेचराते रास्ता भटक गया और रेजिंगला पहुंच गया। उसने यहां हाथों में राइफल और ग्रेनेड लिए कई भारतीय जवानों के शवों को देखकर तुरंत नजदीकी इंडियन आर्मी पोस्ट तक इसकी सूचना दी।
इसके बाद 10 फरवरी 1963 को इंडियन आर्मी का एक जांच दल ब्रिगेडियर टीएन रायना के नेतृत्व में रेड क्रॉस के रिप्रेजेंटेटिव्स के साथ रेजांगला पहुंचा। बर्फ से ढकी उन पहाड़ियों में जहां कभी बंकर और मोर्चे थे, वहां अब सिर्फ वीरता की खामोश गवाही बची थी। चीनी गोलाबारी से तबाह हो चुके मोर्चों के पास बिखरे रेत के बोरे, गोलियों और बमों के टुकड़े और हर तरफ युद्ध की तबाही का मंजर था। कुछ सैनिकों के शव, गोलियों और छर्रों से छलनी होकर अब भी वहां वैसे के वैसे पड़े थे। उनके हाथों में अब भी उनकी राइफलें थी, ग्रेनेड थे जैसे मरते दम तक वह लड़ते रहे हो। नर्सिंग असिस्टेंट धर्मपाल दैया के हाथ में अब भी पट्टी और मॉर्फिन की सिरिंज थी। उन्होंने अपनी जान एक घायल साथी की जान बचाते हुए गवाई थी। किसी भी जवान की पीठ पर गोली नहीं लगी थी और हर एक ने सीने पर गोली खाई थी जिससे साफ पता चल रहा था कि उनमें से किसी ने भी भागने की कोशिश नहीं की थी। मेजर शैतान सिंह का पार्थिव शरीर अब भी एक बड़े पत्थर के सहारे वैसा ही टिका हुआ था जैसा उनके साथी कैप्टन रामचंद्र छोड़कर गए थे।
उनके पैरों में अब भी रस्सियों से बंधी एलएमजी थी और उंगली ट्रिगर पर अब भी वैसी की वैसी जमी हुई थी। जब ब्रिगेडियर टीएन रैना ने यह सब अपनी आंखों से देखा तो वह अपने आंसू रोक नहीं सके। उन्हें और उनके साथ मौजूद जवानों को यह गिल्ट भी खाए जा रहा था कि उन्होंने क्यों 3 महीने तक अपने इन शहीद साथियों की तलाश नहीं की। 13 फरवरी तक 114 में से कुल 97 जवानों के शव मिल सके। कुछ जवानों के हाथों से उनके हथियार तक नहीं निकाले जा सके क्योंकि वह इतनी मजबूती से उन्हें थामे हुए थे कि उनकी उंगलियां काटनी पड़ी। 96 सैनिकों का वही अंतिम संस्कार पूरे सैन्य सम्मान के साथ किया गया।
ब्रिगेडियर टीएन रैना ने खुद अपने हाथों से इन सभी सैनिकों के शवों को सामूहिक चिता की अग्नि दी। इस मार्मिक दृश्य को देखकर वहां उपस्थित हर व्यक्ति की आंखों में आंसू थे और वह उनकी वीरता को याद कर रहे थे। मेजर शैतान सिंह का पार्थिव शरीर अंतिम संस्कार के लिए उनके जोधपुर स्थित घर भेजा गया। भारतीय सेना के इतिहास में यह पहली बार हुआ था जब किसी शहीद का शरीर घर भेजा गया था।
उनके अंतिम दर्शन के लिए हजारों लोग सड़कों पर उमड़ पड़े। हर गली, हर नुक्कड़, हर छत पर खड़े होकर हजारों लोग उनकी अंतिम यात्रा को नम आंखों से देख रहे थे। आंखों में भले ही आंसू थे, लेकिन सभी का सीना गर्व से चौड़ा था क्योंकि वह अपने शूरवीर को अंतिम विदाई दे रहे थे। इसके बाद इंडियन गवर्नमेंट ने इन जवानों के बलिदान को स्वीकारते हुए मेजर शैतान सिंह को युद्ध क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम दिखाने और उनके शानदार नेतृत्व के लिए मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित किया।
इसके अलावा तीनों प्लेटून कमांडर्स नायब सूबेदार हरिराम, नायब सूबेदार सुरजाराम और कैप्टन रामचंद्र और उनके साथ नायक रामकुमार, नायक गुलाब सिंह, लैंस नायक सिंह राम, नायक हुकुमचंद और नर्सिंग असिस्टेंट धर्मपाल भैया को वीर चक्र से सम्मानित किया गया। साथ ही सीएचएम हरफूल सिंह, हवलदार जय नारायण, हवलदार फूल सिंह और सिपाही निहाल सिंह को सेना मेडल देकर सम्मानित किया गया।
साथ ही 13 कुमाऊं रेजीमेंट को बैटल ऑनर रेजांग लॉ और थिएटर ऑनर लद्दाख जैसे प्रेस्टीजियस टाइटल से नवाजा गया। यहां तक कि चाइनीस आर्मी भी उनकी वीरता से इतनी प्रभावित हुई थी कि रेजांग लॉ से लौटते समय उन्होंने भारतीय जवानों के शवों के पास अपनी राइफलल्स उल्टी गाड़कर उन पर सम्मान के प्रतीक के रूप में अपनी टोपी रख दी थी। साल 1963 में ही इंडियन गवर्नमेंट ने त्रिशूल में रेजांग ला वॉर मेमोरियल बनवाया।
जिन पर यहां शहीद हुए सभी 114 वीर जवानों के नाम अंकित है। यह स्मारक आज भी हर भारतीय को याद दिलाता है कि देश की मिट्टी को बचाने के लिए किन वीरों ने अपना लहू बहाया था। बैटल ऑफ एजांगला भारत और चीन के बीच 1962 में हुए वॉर का एक हिस्सा थी।
और अगर आप 1962 इंडो चाइना वॉर की पूरी कहानी जानना चाहते हैं तो आप हमारी पिछली आर्टिकल पढ़ सकते हैं।
।। जय हिन्द, जय भारत ।।


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