Battle of Saragarhi: 21 Sikhs vs 10,000 Afghans | The Bravest Battle Ever Fought

Sourav Pradhan
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12 सितंबर 1897 नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर की वीरान पहाड़ियों में बने एक छोटे से मिलिट्री पोस्ट सारागढ़ी फोर्ट को 10,000 से भी ज्यादा अफरीदी और ओरजई पठानों की सेना चारों तरफ से घेर लेती है। उनका इरादा इस मिलिट्री पोस्ट को जीतने का था और उन्हें अपनी जीत आसान नजर आ रही थी क्योंकि इस किले की सुरक्षा में ब्रिटिश इंडिया के केवल 21 सिख सोल्जर्स ही तैनात थे। लेकिन उन्हें कहां पता था कि यह 21 सिख जवान इस दिन इतिहास की सबसे महान वीर गाथा लिखने वाले हैं। एक तरफ 10,000 पठान थे और दूसरी ओर केवल 21 सिख यानी इस तरह हर एक सिख जवान का करीब 500 पठानों से मुकाबला था। लेकिन इसके बावजूद एक भी सिख सिपाही ना तो डरा और ना ही पोस्ट छोड़कर भागा। 
उन 21 सिख जवानों ने अपनी पग को अपनी जान से ऊपर रखा और हवलदार ईश्वर सिंह के नेतृत्व में "जो बोले सोनिहाल सत श्री अकाल" के जयकारे के साथ वो 10,000 के तूफान पर बिजली बनकर टूट पड़े। सिखों की हर गोली और हर वार पठानों के लिए सीधे मौत का पैगाम बन गया। पठान सिखों की इस बहादुरी को देख दंग रह गए। जो लड़ाई उन्हें सिर्फ कुछ मिनटों की लग रही थी, वह देखते ही देखते 7 घंटों तक खींच गई। 

दुश्मन के हमलों से सिखों की संख्या भी घटती जा रही थी, लेकिन जब तक उनकी रगों में खून का एक भी कतरा बाकी रहा, वह बिना डरे मुंहत जवाब देते रहे। जब सिखों के पास गोलियां खत्म हो गई, तो उन्होंने अपनी राइफलों के बेनेट से दुश्मन के शरीर को चीरना शुरू कर दिया। किसी ने अकेले 20 पठानों को मौत के घाट उतार दिया तो किसी ने मौत के सामने भी मुस्कुराते हुए लड़ाई जारी रखी। यह सिर्फ एक जंग नहीं थी बल्कि यह बलिदान की वो मिसाल थी जिसे इससे पहले कभी देखा नहीं गया था। यूनेस्को ने इसे दुनिया की आठ सबसे महान कलेक्टिव एक्ट्स ऑफ ब्रेवरी में जगह दी और द लंदन गैजेट ने लिखा था कि उस रेजीमेंट को कोई नहीं हरा सकता जिसमें सिख सैनिक लड़ रहे हो। तो आइए जानते हैं इस अद्भुत युद्ध की पूरी कहानी जिसे आज भी वर्ल्ड मिलिट्री हिस्ट्री की मोस्ट करेजियस बैटल माना जाता है। 

आखिर कैसे केवल 21 सिख सैनिकों ने 10,000 पठानों के सात हमलों को नाकाम कर उनके छुड़ा दिए थे। 

19 सेंचुरी के मिड तक सेंट्रल एशिया में अपनी कॉलोनियों के विस्तार को लेकर ब्रिटिश और रशियन एंपायर के बीच एक डिप्लोमेटिक कॉन्फ्लिक्ट जारी था। जिसे द ग्रेट गेम के नाम से जाना जाता है। उस समय तक ब्रिटेन इंडिया में अपनी स्थिति काफी मजबूत कर चुका था। जबकि दूसरी तरफ रशिया नॉर्थ एशिया पर अपना दबदबा बनाते हुए परर्शिया जो आज का ईरान है उसकी सीमा तक आ पहुंचा था। ब्रिटेन को डर था कि कहीं रशिया उसकी सबसे इंपॉर्टेंट कॉलोनी इंडिया तक ना पहुंच जाए। इस खतरे को ध्यान में रखते हुए ब्रिटेन ने अफगानिस्तान को एक बफर स्टेट की तरह इस्तेमाल करने की नीति अपनाई। कई युद्धों के बाद ब्रिटिशर्स ने वहां अपने प्रभाव को बढ़ाया और अपने हितों के अनुसार वहां अपने पपेट शासक को गद्दी पर बिठा दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने अपनी मिलिट्री का डर दिखाकर अफगानिस्तान से सटे बलचिस्तान और नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस पर अपना कंट्रोल कर लिया और वहां ब्रिटिश मिलिट्री की मौजूदगी स्थापित कर दी। 

पहले के समय में भले ही ताकत का फैसला मिलिट्री स्ट्रेंथ से होता था, नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रोवियंस के रीजन में ओरग्जाई और अफीदी ट्राइब्स रहती थी। जिन्हें अपनी जमीन पर भारी हस्तक्षेप बिल्कुल मंजूर नहीं था। ब्रिटिश प्रेजेंट्स को उन्होंने अपनी आजादी पर हमला माना और ब्रिटिश पोस्ट और ट्रेड रूट्स पर हमले शुरू कर दिए। अंग्रेजों ने इन हमलों को रोकने और इस इलाके को सिक्योर करने के लिए फॉरवर्ड पॉलिसी के अंतर्गत यहां पहले से मौजूद कई किलों को मिलिट्री पोस्ट में बदलना शुरू किया। इन किलों में नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोवियंस के समाना एंड सुलेमान रेंज में दो इंपॉर्टेंट किले थे। फोर्ट लॉक हार्ट और फोर्ट गुलिस्तान जिन्हें कभी सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने बनवाया था। अंग्रेजों ने इन्हें भी अपने मिलिट्री पोस्ट बना लिया। लेकिन उनके लिए अब भी दिक्कत यह थी कि इन दोनों किलों के बीच कुछ मील की दूरी थी और बीच का रास्ता खड़ी चट्टानों और कांटेदार झाड़ियों से भरा हुआ था। इसलिए दोनों किले एक दूसरी जगह से नजर नहीं आते थे। अंग्रेजों ने दोनों किलों के बीच कम्युनिकेशन इस्टैब्लिश करने के लिए साल 1894 में उन दोनों किलों के बीच में मौजूद सारागढ़ी फोर्ट को हीलियोग्राफिक कम्युनिकेशन पोस्ट के रूप में डेवलप कर लिया। 

हीलियोग्राफ से मिरर के जरिए सनलाइट के लाइट फ्लैशेस को मोर्स कोड में बदलकर मैसेजेस एक पोस्ट से दूसरे पोस्ट तक भेजे जाते थे। इस तरह से अंग्रेजों ने तीनों पोस्टों को विजुअल सिग्नल के जरिए जोड़ दिया था। करीब 3 सालों तक यह व्यवस्था अच्छी चली और ब्रिटिशर्स ने नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोवंस को अपना सुरक्षा क्षेत्र बनाए रखा। लेकिन इस वक्त तक ओरजाई और अफरीदी ट्राइब्स के लोगों में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा काफी बढ़ गया था। उनके इस गुस्से को आधार बनाकर रिलीजियस लीडर मुल्ला ऑफ हद्दा ने और अफरीदी ट्राइब्स को एक साथ मिलाकर लगभग 10,000 सैनिकों की एक सेना तैयार कर ली। और 1897 में अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह शुरू कर दिया। अंग्रेजों ने अफगानी ट्राइब्स के विद्रोह को दबाने के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन के नेतृत्व में 36 सिख रेजीमेंट की पांच कंपनियों को नॉर्थ वेस्ट फ्रंटिया प्रोविंस के समाना हिल्स कुराग सनगर सहतोपधार और सारागढ़ी जैसे स्ट्रेटेजिक लोकेशनेशंस पर तैनात कर दिया। शुरुआती दिनों में दोनों पक्षों के बीच छोटे-मोटे टकराव होते रहे। लेकिन 3 सितंबर और 9 सितंबर 1897 को पठानों ने फोर्ड गुलिस्तान पर दो जोरदार हमले किए। दोनों ही मौकों पर मेजर चार्ल्स देव बॉय के नेतृत्व में फोर्ड गुलिस्तान पर तैनात 166 सिख सैनिकों ने साहस के साथ मुकाबला किया और पठानों को फोर्ट गुलिस्तान से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। 

इन हमलों से सतर्क होकर इस पूरे मिशन के कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन ने तीनों फोर्ट्स के बीच कम्युनिकेशन और सुरक्षा को और मजबूत करने का फैसला लिया। उन्होंने सारागढ़ी फोर्ट पर कुछ और सैनिकों को भेजा, जिससे वहां सैनिकों की संख्या बढ़कर 21 हो गई। इधर दो बार हारने के बाद भी पठान फिर से हमला करने की तैयारी में थे। अब तक उन्हें समझ आ चुका था कि हर बार उनका हमला इसलिए नाकाम होता है क्योंकि जब भी वह किसी एक फोर्ट पर हमला करते हैं सारागढ़ी पोस्ट से तुरंत दूसरी पोस्ट पर सिग्नल भेज दिया जाता है और वहां से रीइंफोर्समेंट आ जाती है। इसलिए इस बार उन्होंने सारागड़ी को आइसोलेट करने का प्लान बनाया ताकि तीनों फोर्ट्स के बीच की कम्युनिकेशन लाइन टूट जाए और एक फोर्ट के सैनिक दूसरे फोर्ट की मदद ना कर सकें। पूरी तैयारी हो जाने के बाद 12 सितंबर को 10,000 से भी ज्यादा पठानों ने एक बहुत बड़ा हमला करके सारागढ़ी को चारों ओर से घेर लिया और उसे बाकी के दोनों किलों से बिल्कुल अलग-थलग कर दिया। 

अब सारागड़ी की सुरक्षा का जिम्मा वहां मौजूद केवल 21 सोल्जर्स के कंधों पर था। सारागढ़ी का किला करीब 6000 फीट की ऊंचाई पर था। जिसमें एक ब्लॉक हाउस और लूप होल्ड रैंपार्ट्स थे। भले ही एक छोटी मिलिट्री पोस्ट थी, लेकिन एक हिलियोग्राफिक कम्युनिकेशन सेंटर होने की वजह से यह स्ट्रेटेजिकली काफी ज्यादा इंपॉर्टेंट थी। यहां तैनात 21 सिख सैनिकों का नेतृत्व हवलदार ईश्वर सिंह कर रहे थे। सिख जवानों के पास सिंगल शॉट मार्टिनी हेनरी 303 राइफलें थी जो हर मिनट में 10 राउंड फायर कर सकती थी। इसके अलावा हर सैनिक के पास 400 गोलियां थी। जिनमें से 100 गोलियां सोल्जर्स अपनी पॉकेट्स में रखते थे और 300 इमरजेंसी रिजर्व में रखी जाती थी। 12 सितंबर 1897 की सुबह 8:00 बजे जब हवलदार ईश्वर सिंह ने अपनी दूरबीन से नॉर्थ डायरेक्शन की तरफ नजर दौड़ाई तो उनकी आंखें खुली की खुली रह गई। 

उन्होंने देखा कि 10,000 पठानों के 14 लश्कर झंडों, भालों और बंदूकों के साथ तेजी से सारागढ़ी किले की ओर बढ़ रहे हैं। कम्युनिकेशन पोस्ट पर तैनात सिपाही गुरमुख सिंह ने यह मैसेज तुरंत हीलियोग्राफ के जरिए फोर्ट लॉकहार्ट में मौजूद लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन को भेजा कि दुश्मन मेन गेट के पास पहुंच चुका है। जल्द से जल्द रीइंफोर्समेंट की जरूरत है। मैसेज मिलते ही लेफ्टिनेंट कर्नल हॉटन ने अपनी एक टुकड़ी को सारागड़ी की सहायता के लिए भेजने की कोशिश की लेकिन वो कामयाब नहीं हो सके क्योंकि पठानों ने पहले ही फोर्ट लॉक हार्ट और सारागड़ी के बीच की सप्लाई लाइन को काट दिया था। लेफ्टिनेंट कर्नल हॉटन के पास अब कोई ऑप्शन नहीं बचा। इसलिए उन्होंने फोर्ट सारागढ़ी को मैसेज दिया अनेबल टू ब्रेक थ्रू होल्ड पोजीशन। अब इन 21 सिख जवानों के पास दो रास्ते बचे थे। या तो वह पठानों के सामने सरेंडर करके अपनी जान बचा सकते थे या फिर इतनी बड़ी सेना का आखिरी सांस तक सामना करके अपनी ड्यूटी निभाते। 

हवलदार ईश्वर सिंह ने अपने सभी साथियों को इकट्ठा किया और उनसे पूछा कि क्या उन्हें इस पोस्ट को छोड़ देना चाहिए ताकि उन सबकी जान बच सके या फिर उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपनी आखिरी सांस तक मोर्चा संभाले रखना चाहिए। अपने कमांडर के इस सवाल पर सभी सिख सैनिकों ने एक आवाज में जोर से चिल्लाकर कहा, "हम मोर्चा नहीं छोड़ेंगे और अपनी आखिरी सांस तक लड़ेंगे।" टुकड़ी का हर सिपाही ईश्वर सिंह को अपने पिता समान मानता था। उन्होंने इस इलाके में कई लड़ाईयां लड़ रखी थी, इसलिए उन्हें इस पहाड़ी क्षेत्र की ज्योग्राफिक कंडीशन के साथ-साथ पठानों की फाइटिंग एबिलिटी और उनकी मानसिकता की भी गहरी समझ थी। उन्होंने जैसे ही देखा कि दुश्मन उन पर हमला करने के लिए उनके काफी नजदीक आ गया है। उन्होंने एक सिपाही को बिगुल बजाने के आदेश देकर टुकड़ी को दो हिस्सों में बांट दिया। उन्होंने एक टुकड़ी को बैठकर फायरिंग पोजीशन लेने का आदेश दिया। जबकि दूसरी टुकड़ी को खड़े होकर स्थिति का मुआयना करते हुए दुश्मन की ईंट से ईंट बजाने के लिए तैयार रहने को कहा। सुबह के 9:00 बजते-बते पठान लड़ा के किले के एकदम करीब आ गए। पठानों का एक सैनिक हाथ में सफेद झंडा लिए किले की तरफ बढ़ा और पश्तों में चिल्लाकर कहा, "हम हमारा तुमसे कोई झगड़ा नहीं है। हमारी लड़ाई अंग्रेजों से है। तुम तादाद में बेहद कम हो, मारे जाओगे। इसलिए हथियार डाल दो। हम तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाएंगे और तुम्हें यहां से सुरक्षित बाहर निकल जाने का रास्ता देंगे। 

इस पर हवलदार ईश्वर सिंह ने उस पठान सैनिक को पश्तों में ही जवाब देते हुए कहा, "यह अंग्रेजों की नहीं महाराजा रंजीत सिंह की जमीन है और हम इसकी रक्षा आखिरी सांस तक करेंगे।" हवलदार ईश्वर सिंह के इस कड़े जवाब से पठान बौखला गए और उन्होंने सारागढ़ी किले पर ताबड़तोड़ गोलियां चलानी शुरू कर दी। आसपास का पूरा इलाका गोलियों की तड़-तड़ाहट से गूंज उठा। लेकिन सिख सैनिक अब भी खामोश थे और पठानों के इस दुस्साहस का कोई जवाब नहीं दे रहे थे। उनके जवाबी फायर ना करने से पठान भारी कंफ्यूजन में पड़ गए कि आखिर सिख सैनिक गोली क्यों नहीं चला रहे हैं? असल में हवलदार ईश्वर सिंह ने अपने जवानों को निर्देश दे रखे थे कि जब तक दुश्मन उनकी इफेक्टिव फायरिंग रेंज में ना आ जाए तब तक कोई गोली ना चलाई जाए। सिख सैनिकों के पास केवल 8,400 गोलियां थी और सामने दुश्मनों की संख्या 10,000 से भी ज्यादा थी। इसलिए हवेलदार ईश्वर सिंह एक-एक गोली का इस्तेमाल केवल दुश्मन की जान लेने के लिए करना चाहते थे। 

इसके बाद जैसे ही पठान लड़ाके सिख सैनिकों की फायरिंग रेंज में आए, सिखों ने एक ही स्वर में जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल का जयकारा लगाया और पठानों को चुन-चकर निशाना बनाने लगे। सिख सैनिक ऊंचाई पर थे और उन्हें इसका भरपूर फायदा मिल रहा था। सिखों की 0.33 कैलिबर की राइफलों से निकली हर गोली किसी न किसी पठान लड़ाके की मौत का कारण बन रही थी। केवल एक घंटे में ही पठानों की पहली पंक्ति पूरी तरह से ढेर हो गई और उनके 60 सैनिक मारे गए। लेकिन इस दौरान सिखों की तरफ से सिपाही भगवान सिंह भी शहीद हो गए। वहीं नायक लाल सिंह बुरी तरह घायल हो गए। पठानों का पहला हमला केवल 1 घंटे में फेल हो चुका था। वो बिखर चुके थे और बिना किसी मकसद के इधर-उधर भाग रहे थे। उनके पास सिखों की सटीक फायरिंग का कोई जवाब नहीं था। इस नाकामी के बाद पठानों ने स्ट्रेटेजिक असॉल्ट की योजना बनाई। एक दस्ते को मेन गेट से हमला करने के लिए भेजा गया। जबकि दूसरी टीम को फोर्ट की दीवारों को तोड़कर अंदर घुसने की जिम्मेदारी दी गई। सिख अपनी पोजीशन से लगातार पठानों को मुंहत जवाब देते रहे। उनका एक ही मकसद था कि रीइंफोर्समेंट आए या ना आए। लेकिन दुश्मनों को ज्यादा से ज्यादा वक्त तक सारागड़ी में उलझाए रखना है। इस दौरान काफी तेज हवा चल रही थी। इसलिए पठानों ने सूखी घासों में आग लगा दी ताकि धुएं का फायदा उठाकर वह आगे बढ़ सके। जल्द ही धुएं की मोटी परत ने पूरे इलाके को ढक लिया। 

इससे पठान सिख सैनिकों की आंखों से ओझल हो गए और इसका फायदा उठाते हुए पठान धीरे-धीरे किले की दीवार तक पहुंचने में कामयाब हो गए। पठानों के किले के पास आ जाने से अब सिख सैनिक भी पठानों की फायरिंग रेंज में आ चुके थे। ऐसे में जल्दी ही सिख खेमे में भी घायलों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी। इसी बीच सिपाही बूटा सिंह और सिपाही सुंदर सिंह को अपनी जान की आहुति देनी पड़ी। सिखों के पास गोलियां भी तेजी से कम होती जा रही थी। ऐसे में सिग्नल मैन गुरख सिंह ने कर्नल हॉटन को संदेश भेजा पठानों का हमला तेज हो गया है और हमारी गोलियां खत्म होने को है। इस पर कर्नल हॉटन ने गुरमुख सिंह को संदेश भेजा कि अंधाधुंध गोलियां ना चलाई जाए। वह गोलियां तभी चलाए जब उन्हें पक्का यकीन हो कि उनकी गोली दुश्मन को ही लगेगी। इस दौरान लॉकहट फोर्ट पर मौजूद कुछ जवानों ने सारागड़ी की जवानों की मदद करने की कोशिश भी की। 

लेकिन जल्दी ही पठानों के रिस्पांस से उन्हें अपने कदम पीछे खींचने पड़े। इस बीच कुछ पठान सारागढ़ी किले के राइट साइड की दीवार के ठीक नीचे पहुंच चुके थे और वहीं से उन्होंने अपने हथियारों से किले की दीवार को तोड़ना शुरू कर दिया। यह बात जब हवलदार ईश्वर सिंह को पता लगी तो उन्होंने अपने चार साथियों को मेन हॉल की तरफ भेजा ताकि वह दीवार के उस हिस्से की सुरक्षा कर सके। लेकिन पठान अब ऐसी पोजीशन में आ चुके थे जहां से उन चारों सिख सैनिकों के लिए उनसे मुकाबला करना लगभग नामुमकिन हो गया। इसके बाद पठानों ने सिखों की गोलियों से बचने के लिए अपने सिरों पर चारपाइयों की ढाल बनाकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया। ऐसा करते हुए पठान किले के ऐसे एंगल तक पहुंच गए जहां ऊंचाई पर बैठे सिख सैनिक भी उन्हें नहीं देख पा रहे थे। पठानों की यह पोजीशन फोर्ट गुलिस्तान के कमांडर मेजर देव बॉय को उनके किले से साफ दिख रही थी और उन्होंने सारागढ़ी किले पर इस बारे में सिग्नल्स भी भेजे लेकिन गुरमुख सिंह लॉकट फोर्ट से आ रहे सिग्नल्स को पढ़ने में व्यस्त थे इसलिए यह चेतावनी नजरअंदाज हो गई। 

इस बीच किले के मेन ब्लॉक में पठानों से लड़ते हुए चार सिख सैनिकों में से तीन साहिब सिंह, जीवन सिंह और दया सिंह शहीद हो गए। अब मेन ब्लॉक में केवल लांस नायक चंदा सिंह अकेले रह गए। यह स्थिति देखकर ऊपर पोजीशन लिए हवलदार ईश्वर सिंह और उनके बाकी के साथी अपनी पोजीशन को छोड़कर मेन ब्लॉक में आ गए। लेकिन सिख सैनिकों के पास अब गोलियां लगभग खत्म हो चुकी थी और घमासान युद्ध को 3 घंटे से ज्यादा हो गए थे। जहां युद्ध की शुरुआत में 21 सैनिक थे वहीं अब उनकी संख्या घटकर केवल 10 रह गई थी। इस दौरान सिखों ने पठानों के कई हमलों को नाकाम कर दिया था। लेकिन इस वक्त तक पठानों ने किले की दीवार में इतना बड़ा सुराख कर लिया था कि वह उससे अंदर दाखिल होने लगे। ऐसे में हवलदार ईश्वर सिंह ने अपने साथियों को आदेश दिया कि सभी अपनी राइफलों में बेनेट लगा ले ताकि जैसे ही कोई पठान उस बड़े सुराग से अंदर घुसे उसे या तो गोली मार दी जाए या फिर बेनेट भोंक उसकी जान ले ली जाए। 

इसके बाद जैसे ही पठान उस सुराग से किले के अंदर घुसने की कोशिश करते पहले से तैयार सिख सैनिक उन्हें बेनेट भोंक कर मार देते। इस टेक्निक से कई पठानों को मौत के घाट उतार दिया गया। लेकिन जल्दी ही पठान भी सतर्क हो गए। वह बांस की सीढ़ियों से किले पर चढ़ने लगे और दीवार के उस सुराख के पास मौजूद सिख सैनिकों को पीछे धकेलने के लिए किले के मेन गेट पर आग लगा दी। मेन गेट लकड़ी का था इसलिए वह जल्दी ही आग में जलकर ध्वस्त होने लगा। अब सैकड़ों पठान किले के अंदर घुसने लगे और हर दिशा से हमला करने लगे। लड़ाई अब काफी नजदीक से होने लगी। हर मिनट के साथ पठानों की संख्या बढ़ने लगी। इतनी भारी संख्या में पठानों के अलग-अलग दिशाओं से हमलों का एक साथ जवाब दे पाना बचे हुए 10 सिखों के लिए काफी मुश्किल हो गया। अब तक हवलदार ईश्वर सिंह भी गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। उनका शरीर खून से लथपथ था और उनके लिए खड़े रहना भी मुश्किल हो रहा था। 

इसके बावजूद उन्होंने युद्ध करना नहीं छोड़ा और अपने दो साथी सिपाहियों को आदेश दिया कि वह उन्हें खींच कर किले की टूटी हुई दीवार तक ले जाए। जहां से वह पठानों को किले के अंदर घुसने से रोक सके ताकि उनके साथियों को फिर से मोर्चा संभालने का समय मिल सके। सैनिकों ने वैसा ही किया और वह हवलदार ईश्वर सिंह को उस जगह तक ले आए। वहां पहुंचते ही तीनों ने अपनी राइफल के बेनेट से कई पठानों के शरीर को चीर कर उन्हें मार डाला। लेकिन इस संघर्ष में यहां मौजूद हवेलदार ईश्वर सिंह के दोनों साथी भी वीरगति को प्राप्त हो गए। अब इस पोजीशन पर दुश्मनों की भारी संख्या का हवलदार ईश्वर सिंह अकेले ही मुकाबला करने लगे। वह खून से लथपथ चारों तरफ से दुश्मनों से घिरे थे। लेकिन फिर भी उन्होंने इतनी बहादुरी से लड़ाई लड़ी कि वहां मौजूद पठानों की रूह कांप गई। उनके शरीर पर वार करते वक्त पठानों के हाथ कांप रहे थे। लेकिन आखिरकार हैंड टू हैंड कॉम्बैट में दर्जनों दुश्मनों को मौत के घाट उतार कर हवलदार ईश्वर सिंह अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शहीद हो गए। अब सारागढ़ी के किले में केवल पांच सिख सैनिक ही बचे थे। उनमें से चार सैनिक किले की भीतरी इमारत में तैनात थे। जबकि सिग्नल मैन गुरमुख सिंह अब भी सिग्नल टावर पर रहकर कम्युनिकेशन का जिम्मा संभाले हुए थे। वो यहां की लड़ाई की एक-एक खबर दूसरे फोर्ट तक पहुंचा रहे थे। 

संख्या में केवल पांच होने के बाद भी सिखों ने हार नहीं मानी। भीतरी इमारत में मौजूद चारों सैनिकों ने अपनी पीठ एक दूसरे से सटाई। अपनी बेनेट को आगे किया और एक साथ दुश्मनों पर टूट पड़े। इस तरह काफी देर तक आमने-सामने की भयंकर लड़ाई चलती रही। चारों सिखों ने इस दौरान अद्भुत वीरता का परिचय देते हुए कई पठानों को मौत की नींद सुला दिया। लेकिन इस भयानक लड़ाई में तीन सिख सैनिकों को भी अपना बलिदान देना पड़ा। इस दौरान लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन ने एक बार फिर 78 सोल्जर्स के साथ सारागड़ी में घिर चुके अपने साथियों की मदद के लिए दुश्मनों पर फायरिंग करनी शुरू कर दी ताकि पठानों का ध्यान भटकाया जा सके लेकिन इसका कोई खास असर नहीं पड़ा। जब हॉटन अपनी टुकड़ी के साथ किले से मात्र 500 मीटर की दूरी पर पहुंचे, तब उन्होंने देखा कि पठान किले की दीवारों को पार कर चुके हैं और मेन गेट आग की लपटों में घिरा हुआ है। उन्हें समझ में आ गया कि अब सारागढ़ किला गिर चुका है। अब किले के मेन ब्लॉक में केवल दो ही सिख जिंदा बचे थे। एक थे गंभीर रूप से घायल हो चुके लाल सिंह और दूसरे थे घायल सैनिकों की मदद के लिए तैनात एक नॉन कॉम्पिटेंट अटेंडेंट जिसे दांत कहा जाता था। 

उस समय के ब्रिटिश फौज के नियमों के अनुसार नॉन सोल्जर पर्सनल को हथियार उठाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन अपना अंत करीब देख उस नॉन सोल्जर दाद ने भी राइफल उठा ली और अपनी जान गवाने से पहले पांच पठानों की जान ले ली। इधर बुरी तरह जख्मी हो चुके लाल सिंह चलने तक की स्थिति में नहीं थे। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने एक जगह पर लेट कर ही लगातार फायरिंग करना जारी रखा और कई पठानों को धराशाई करने के बाद खुद भी शहीद हो गए। अब सारागढ़ी किले में सिखों की तरफ से केवल 19 साल के सिपाही गुरमुख सिंह जिंदा बचे थे। जो अब भी दूसरे फोर्स को सिग्नल्स भेजकर यहां की स्थिति के बारे में बता रहे थे। उन्होंने दोपहर 3:30 बजे फोर्ट लॉक हार्ड पर आखिरी संदेश भेजा। मेन गेट टूट चुका है। अब मैं अकेला बचा हूं। कृपया युद्ध करने की परमिशन दें। दूसरी ओर से उन्हें कम्युनिकेशन का काम छोड़कर जंग लड़ने की परमिशन दे दी गई। सिपाही गुरमुख सिंह ने अपना हीलियोग्राफ नीचे रखा। अपनी राइफल उठाई और हजारों दुश्मनों से सीधी टक्कर लेने अकेले ही किले के मेन ब्लॉक की ओर बढ़ गए। जैसे ही वह वहां पहुंचे, उन्होंने देखा कि पूरा किला लाशों की कब्रगाह बना हुआ था। 

वहां सैकड़ों पठानों की लाशों के साथ-साथ उनके सभी साथियों के पार्थिव शरीर भी थे। जिन्होंने बेहद बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी। अपने साथियों को यूं जमीन पर पड़ा देखकर 19 साल के इस नौजवान की आंखों में प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी। उन्होंने बिना एक पल गवाए लपक कर किले के रेस्ट रूम में पोजीशन ले ली और वहीं से अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। जो भी दुश्मन उनकी गोलियों के सामने आया, वो वही ढेर हो गया। लगातार जो बोले सोनिहाल सत श्री अकाल का जयकारा लगाते हुए गुरमुख सिंह दुश्मन की सेना पर इतने बेखौफ होकर हमला कर रहे थे कि ऐसा लग रहा था जैसे आज उनके हर वार पर स्वयं मृत्यु सवार है। देखते ही देखते उन्होंने अकेले ही 20 से ज्यादा पठानों को मौत के घाट उतार दिया। हजारों दुश्मनों के बीच आज उनका ऐसा खौफ था कि जब तक उनके हाथ में राइफल रही तब तक उनकी ओर बढ़ने की किसी में हिम्मत नहीं हुई।

लेकिन एक अकेला सैनिक आखिर कब तक हजारों से लड़ सकता था। चारों ओर से बरसती गोलियों से वह गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। फिर भी उनकी राइफल से तब तक गोलियां गरजती रही जब तक उनके शरीर में अंतिम सांस बाकी थी। सिपाही गुरमुख सिंह के सर्वोच्च बलिदान के साथ ही सारागढ़ी का किला पठानों के कब्जे में चला गया। पठानों ने अपनी 10,000 से ज्यादा की सेना के गुरूर में जिस लड़ाई को सिर्फ कुछ मिनटों का समझा था, 21 सिखों ने उसको पूरे 7 घंटों तक खींच दिया था। इन मात्र 21 सिख सैनिकों ने करीब 600 दुश्मनों को मार गिराया था और सैकड़ों को बुरी तरह से घायल कर दिया था। 21 सिखों की इस वीरता और बलिदान को आज भी दुनिया के सबसे बड़े और ऐतिहासिक लास्ट स्टैंड्स में गिना जाता है। 21 सैनिकों के हाथों सैकड़ों साथियों को खोने और लगातार 7 घंटे तक युद्ध करने के बाद पठानों का मनोबल बुरी तरह टूट चुका था। इसका परिणाम यह हुआ कि लॉकहाट और गुलिस्तान में तैनात 36 रेजीमेंट के सिख सैनिकों ने एकजुट होकर 14 सितंबर 1897 को सारागढ़ी किले को फिर से पठानों के कब्जे से मुक्त करवा लिया। 

जब अंग्रेज अफसर और दूसरे सिख सैनिक किले के अंदर पहुंचे, तो वहां उन्हें यहां तैनात सभी सिख सैनिकों के शव दिखे। इस पूरे मिशन के कमांडर लेफ्टिनेंट कर्नल जॉन हॉटन उन वीरों को सैल्यूट करने से खुद को रोक नहीं पाए। उन्होंने सैल्यूट किया और उन बहादुर सिख सोल्जर्स के अद्वितीय बलिदान की खबर लंदन तक पहुंचाई। उस समय ब्रिटिश पार्लियामेंट का सेशन चल रहा था। जैसे ही यह खबर हाउस ऑफ कॉमस में पहुंची, वहां मौजूद सभी सांसद उन 21 सिख वॉरियर्स के सम्मान में खड़े हो गए और उनके सुप्रीम सैक्रिफाइस की प्रशंसा तालियां बजाकर की। 11 फरवरी 1898 को द लंदन गैजेट ने उन बहादुर सैनिकों की वीरता को सरहाते हुए लिखा सभी ब्रिटेन और भारतवासियों को 36 सिख रेजीमेंट के इन सैनिकों पर गर्व है। हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं कि जिस सेना में सिख सिपाही लड़ रहे हो उस सेना को कोई नहीं हरा सकता। क्वीन विक्टोरिया ने सभी 21 सोल्जर्स को इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट से सम्मानित करने का आदेश दिया। यह उस समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में इंडियंस को मिलने वाला सबसे बड़ा गैलेंट्री अवार्ड था जो उस समय के ब्रिटेन के विक्टोरिया क्रॉस और आज के परमवीर चक्र के बराबर माना जाता है।

यूनेस्को ने इस युद्ध को दुनिया की आठ सबसे महान कलेक्टिव एक्ट्स ऑफ ब्रेवरी में स्थान दिया। साल 2020 में उन 21 सिखों का नेतृत्व करने वाले हवलदार ईश्वर सिंह की ब्रिटेन में 10 फीट ऊंची ब्रोंज़ की स्टैचू लगाई गई। इंडियन आर्मी की सिख रेजीमेंट इस बैटल को आज भी याद करती है। वह हर साल 12 सितंबर को सारागड़ी डे के रूप में मनाते हैं। 21 सरफरोज़ सारागड़ी 1897 नाम की एक टीवी सीरीज और साल 2019 में आई केसरी फिल्म इस महान युद्ध पर ही आधारित है। 

फिल्म केसरी में हवलदार ईश्वर सिंह का किरदार एक्टर अक्षय कुमार ने निभाया था। आज भी इस महान युद्ध को दुनिया भर के लोग लास्ट स्टैंड्स के रूप में याद करते हैं। अंग्रेजों ने सारागड़ी को अपने कब्जे में लेने के बाद वहां जली हुई ईंटों से वीर सैनिकों की याद में एक मेमोरियल पिलर बनवाया था। इसके अलावा उनके सम्मान में अमृतसर और फिरोजपुर में गुरुद्वारे भी बनवाए गए ताकि आने वाली पीढ़ियां उनके बलिदान से प्रेरित होती रहे।

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