Battle of Haldighati: Maharana Pratap vs Akbar - The Battle That Changed History !

Sourav Pradhan
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18 जून 1576, राजस्थान के राजसमंद जिले में अरावली की ऊंची-नीची पहाड़ियों के बीच बसे एक दर्रे हल्दीघाटी के पास इतिहास का वह युद्ध लड़ा जा रहा था, जिसने आने वाली सदियों तक वीरता की मिसाल कायम कर दी। एक तरफ मुगल बादशाह अकबर की विशाल सेना थी, जिसमें 10,000 से ज्यादा सैनिक, सैकड़ों हाथी और बंदूकधारी थे। तो वहीं दूसरी तरफ सिर्फ 3000 घुड़सवार और थोड़ी सी संख्या में भील तीरंदाज थे। जिनका नेतृत्व मेवाड़ के शेर महाराणा प्रताप कर रहे थे। यह सिर्फ दो सेनाओं का टकराव नहीं था बल्कि स्वाभिमान और सत्ता के बीच की लड़ाई थी। 

अकबर चाहता था कि मेवाड़ भी बाकी राजपूत राज्यों की तरह उसके सामने झुक जाए। लेकिन महाराणा प्रताप ने साफ कर दिया था कि मेवाड़ की धरती किसी तुर्क बादशाह की गुलाम नहीं बन सकती। महाराणा के स्वाभिमान को देख अकबर के गुरूर को गहरी चोट पहुंची। जिसके बाद 18 जून 1576 के दिन हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों की सेनाएं आमने-सामने आ गई। यहां हर तलवार की चमक, हर तीर की चोट और हर योद्धा की हुंकार इस बात की गवाही दे रही थी कि राणा की सेना अपनी आखिरी सांस तक धरती मां की रक्षा करेगी। युद्धभूमि पर महाराणा प्रताप का घोड़ा चेतक गरज रहा था। जिसकी छलांगे दुश्मन की रगों में खून जमा देती थी। जब महाराणा ने चेतक को मानसिंह के हाथी की ओर दौड़ाया और भाले का वार किया तो पूरा मैदान संन रह गया। दुश्मन की भीड़ के बीच महाराणा प्रताप ऐसे लड़े मानो कोई इंसान नहीं बल्कि खुद अरावली का शेर कूद पड़ा हो। यह युद्ध इतना भयंकर था कि हल्दी घाटी जिसका यह नाम उसकी मिट्टी के पीले होने की वजह से पड़ा था। उस दिन यह मिट्टी लहू से लाल हो गई। 

लेकिन क्या महाराणा प्रताप मुगल बादशाह अकबर की विशाल शक्ति को रोक पाए? चेतक ने अपनी आखिरी सांस तक कैसे राणा की जान बचाई? हल्दीघाटी के बाद किस तरह प्रताप ने गोरिल्ला युद्ध से मुगल सेना को घुटनों पर ला दिया। आइए जानते हैं महाराणा प्रताप की वो अमर गाथा जो आज भी हर भारतीय के दिल में जोश और गर्व की लहर पैदा कर देती है। 

मेवाड़ का गौरव और स्वाभिमान सदियों से चमकता आ रहा था। लेकिन 16 सेंचुरी में जब मुगल एंपायर भारत में अपनी जड़े जमाने लगा तब मेवाड़ को इस गौरव की सबसे कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ा। सेंट्रल एशिया के फरगना से आए तैमूर लंग के वंशज बाबर ने 1526 में फर्स्ट बैटल ऑफ पानीपत में इब्राहिम लोदी को हराकर दिल्ली सल्तनत पर कब्जा कर लिया और भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी। 1530 में बाबर की मौत के बाद उसका बेटा हुमायूं गद्दी पर बैठा। लेकिन उसका शासन अनस्टेबल रहा। 1540 में शेरशाह सूरी ने उसे हराकर एग्जाइल में भेज दिया। इसी दौरान 9 मई 1540 को मेवाड़ के राणा उदय सिंह और उनकी पहली रानी जयवंताबाई के घर एक बेटे का जन्म हुआ जिसका नाम प्रताप रखा गया। यह मेवाड़ के लिए एक नए युग की शुरुआत थी। प्रताप की मां एक कृष्ण भक्त थी। इसलिए उन्होंने प्रताप को बचपन से ही महाभारत की कथाएं भगवान कृष्ण की शिक्षाएं और एथिकल वैल्यू सिखाई। साथ ही प्रताप को अपने ग्रैंडफादर राणा सांगा और ग्रेट एनसेेस्टर बप्पा रावल की वीरता की कहानियां भी सुनाई जाती। 

राणा सांगा ने फॉरेन इनवेडर्स के खिलाफ मेवाड़ की रक्षा की थी और बप्पा रावल ने मेवाड़ को एक पावरफुल राज्य बनाया था। इन स्टोरीज ने प्रताप के मन में देशभक्ति और स्वाभिमान की गहरी जड़े डाल दी। प्रताप का बचपन गुरुकुल और भील समुदाय के बीच बीता। सुबह वो गुरुकुल में वेद, शास्त्र और युद्ध कला सीखते और दोपहर में भीलों की बस्तियों में चले जाते। भील उन्हें प्यार से कीका कहते थे क्योंकि उनकी कम्युनिटी में बेटों को इसी नाम से पुकारा जाता था। भीलों के बीच रहते हुए प्रताप फिजिकली और मेंटली मजबूत होते गए। बहुत कम उम्र में ही वह घोड़ा दौड़ाने, तेजतर्रार तरीके से तलवार चलाने और तीरंदाजी में महारत हासिल कर चुके थे। उनका साहस देखकर लोग दंग रह जाते थे। राणा उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे होने के नाते उन्हें राज्य में युवराज की उपाधि मिली और वह आम जनता के बीच इस तरह से घुलमिल गए कि उनकी पॉपुलैरिटी छोटी सी उम्र से ही बढ़ने लगी। 

उसी बीच राजस्थान की धरती से थोड़ी ही दूर सिंध के अमरकोट में 1542 में हुमायूं के बेटे जलालुद्दीन अकबर का जन्म होता है। अकबर को 1556 में सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही दिल्ली की गद्दी पर बैठा दिया जाता है। क्योंकि अकबर उम्र में छोटा था इसलिए असली शक्ति उसके रीजेंट बैरम खान के पास थी। लेकिन जल्द ही अकबर ने बैरम खान को हटाकर पूरी पावर अपने हाथों में ले ली और अपनी एक्सपेंशनिस्ट पॉलिसी के तहत 1562 में मालवा के शासक बाज बहादुर को सरंगपुर की लड़ाई में हराकर अकबर ने मुगल एंपायर को लगातार फैलाना शुरू कर दिया। अब उसकी नजर राजस्थान पर थी क्योंकि यहां से गुजरात के समुद्र तट तक जाने वाले ट्रेड रूट्स गुजरते थे जो स्ट्रेटेजिकली काफी इंपॉर्टेंट थे। लेकिन उस समय राजस्थान में राजपूतों की वीरता अपने शिखर पर थी। 

अकबर चाहता था कि वह उसके आगे झुके। इसलिए उसने उन्हें मनाने और दबाने के लिए हर तरीका अपनाया। कभी सेना का जोर दिखाकर, कभी डिप्लोमेसी से तो कभी शादियों के रिश्ते बनाकर उसने कई राजपूत रियासतों को अपने मुगल साम्राज्य के अंडर कर लिया। आमेर के राजा भारमल ने भी अपनी बेटी हरखाबाई की शादी अकबर से करके मुगलों से संधि कर ली। धीरे-धीरे आमेर, मारवाड़ और बूंदी जैसे कई राजपूत राज्य अकबर के अंडर आ गए। जिससे अकबर की शक्ति और बढ़ गई। लेकिन जब एक-एक करके राजस्थान के सभी राजपूत राज्य अकबर के आगे झुक गए, तब भी मेवाड़ का राज्य चट्टान की तरह अडिग खड़ा था। मेवाड़ के राणा उदय सिंह ने अपने सिर को अकबर के दरबार में झुकाने से इंकार कर दिया। उदय सिंह ने अकबर को क्लियर मैसेज भेजा कि वह केवल भगवान एक लिंग जी के दीवान हैं और किसी मानव शासक के अधीन रहना वह कभी स्वीकार नहीं करेंगे। इस जवाब से अकबर गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने तय किया कि वह मेवाड़ को अपने कंट्रोल में लेकर ही रहेगा। अकबर ने मेवाड़ के चित्तौड़गढ़ किले की घेराबंदी का प्लान बनाया। 

यह फोर्ट अपनी नेचुरल पोजीशन और मजबूत दीवारों के कारण इंपेनिट्रेबल माना जाता था। इसकी ऊंची पहाड़ियां, खड़ी ढलाने और विशाल दीवारें इसे लगभग अजय बनाती थी। अकबर की सेना ने सीधे अटैक के बजाय लंबी घेराबंदी की स्ट्रेटजी अपनाई और फोर्ट के चारों ओर घेरा डालकर मिट्टी के टीले बनवाए। तोपों से हमले किए और सुरंगों में बारूद भरकर विस्फोट किए। कई महीनों की घेराबंदी और बारूदी हमलों की वजह से आखिरकार किले की दीवारें टूट गई और मुगल सेना अंदर घुस गई। लेकिन शौर्य और पराक्रम से भरे राजपूतों ने हार मानने के बजाय अपने सम्मान और धर्म की रक्षा के लिए एक भयंकर लड़ाई लड़ी। जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया जैसे ब्रेव सोल्जर्स ने केसरिया कपड़े पहनकर अपनी आखिरी सांस तक लड़ाई लड़ी। जब यह साफ हो गया कि अकबर की विशाल सेना के आगे टिकना असंभव है तो राजपूत महिलाओं ने जौहर की आग में कूदकर अपनी मर्यादा की रक्षा की। मुगलों की सेना ने किले पर कब्जा करने के बाद गुस्से और बदले की भावना से लगभग 30 से 40,000 निर्दोष सिविलियंस का कत्लेआम कर दिया। यह क्रुलिटी अकबर की लिबरल इमेज पर एक गहरा दाग बन गई। 

चित्तौड़ के फोर्ट पर अकबर की सेना का कब्जा हो जाने के कारण राणा उदय सिंह को चित्तौड़ छोड़कर गोंगुदा में शेल्टर लेना पड़ा। इस समय युवा प्रताप चित्तौड़ में ही रहकर मुगलों से लड़ना चाहते थे। लेकिन बड़ों के कहने पर उन्होंने भी किला छोड़ दिया। गोंगुदा में रहकर राणा उदय सिंह ने उदयपुर शहर की स्थापना की और वहीं से अपना शासन चलाया। यूं तो प्रताप उदय सिंह के सबसे बड़े बेटे थे। लेकिन उदय सिंह ने अपनी सबसे प्रिय रानी धीरबाई के बेटे जगमाल सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। यह फैसला राजपूत परंपरा के खिलाफ था जिसके अनुसार गद्दी का हकदार सबसे बड़ा बेटा होता था। जबकि जगमाल उनका नौवां बेटा था। लेकिन पिता की इस इच्छा को प्रताप ने सम्मान देते हुए एक्सेप्ट कर लिया। हालांकि इस फैसले से मेवाड़ की जनता बिल्कुल भी खुश नहीं थी। स्थिति तब और बिगड़ गई जब 1572 में राणा उदय सिंह की डेथ हुई। उनके अंतिम संस्कार में जगमाल सिंह के अलावा मेवाड़ का हर व्यक्ति मौजूद था। जगमाल उस समय महल में अपना राज्य अभिषेक करवा रहा था। जगमाल के इस रिस्पांसिबल बिहेवियर ने सामंतों और जनता को और भड़का दिया। सबकी नजर में प्रताप ही सही उत्तराधिकारी थे। इसलिए सामंतों और सरदारों ने जगमाल को राजगद्दी से हटा दिया और गोगुंदा की पहाड़ियों में मौजूद प्रताप का राज्या अभिषेक करते हुए उन्हें मेवाड़ का राणा घोषित कर दिया। 

राजपूत राज्यों में राजा को राणा कहा जाता था इसलिए वह प्रताप से अब महाराणा प्रताप बन चुके थे। लेकिन जब महाराणा प्रताप ने सत्ता संभाली तब मेवाड़ की स्थिति बेहद खराब थी। खजाना खाली था। चित्तौड़ सहित मेवाड़ के बड़े हिस्से पर मुगलों का कब्जा था और आसपास के राज्य पहले ही अकबर के अधीन हो चुके थे। चित्तौड़ की हार की टीस महाराणा प्रताप के दिल में कांटे की तरह चुभ रही थी। सत्ता संभालते ही उन्होंने अपने सरदारों को बुलाया और शपथ ली कि मेवाड़ का स्वाभिमान हमेशा ऊंचा होगा। चित्तौड़ के किले पर लहराता मुगल ध्वज मेरे कलेजे को छलनी करता है। मैं शपथ लेता हूं कि जब तक मेवाड़ को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं करवा लेता, मैं राजमहलों में नहीं रहूंगा। पलंग पर नहीं सोऊंगा और सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करूंगा। 

7 फीट 5 इंच लंबे और 110 किलो वजन के महाराणा प्रताप के मुंह से शेर की हुंकार की तरह बरसते इन शब्दों ने सरदारों में ऐसा जोश भर दिया कि वह अब किसी से भी टकराने को तैयार थे। इसके बाद महाराणा प्रताप ने सबसे पहले अपने डिफेंसेस मजबूत किए। उन्हें मालूम था कि कभी ना कभी मुगलों से युद्ध होना ही है। इसलिए उन्होंने मेवाड़ में छप्पन और गोंडवाड़ के इलाकों पर अपनी पकड़ मजबूत की और साथ ही अरावली के जंगलों में रहने वाले भीलों से अपने पुराने रिश्ते और गहरे किए। लोहारों को नए हथियार बनाने का जिम्मा सौंपा गया। सरदारों को लगातार युद्ध कला की प्रैक्टिस करवाई गई और जनता में अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान की भावना जगाई गई। इस दौरान अकबर को जब महाराणा प्रताप की तैयारियों की खबर मिली तो वह भी हैरान रह गया। वह जानता था कि महाराणा प्रताप बाकी राजपूत राजाओं की तरह आसानी से सरेंडर नहीं करेंगे। इसलिए उसने फोर्सफुल अटैक के बजाय पहले डिप्लोमेसी का सहारा लिया। 1573 में उसने अपने दरबारी जलाल खान कोर्ची को मेवाड़ भेजा। जिसने महाराणा प्रताप से मुगलों की अधीनता स्वीकार करने की अपील की। लेकिन प्रताप ने साफ इंकार कर दिया। इसके बाद अकबर ने अपने कोर्ट के नवरत्नों में से एक आमेर के राजा मानसिंह को मेवाड़ भेजा। मानसिंह मुगलों के प्रति वफादार था और अकबर का रिश्तेदार भी था। उससे पहले उसके पिता भगवंत दास और अकबर के नवरत्नों में से एक राजा टोडरमल भी अकबर की तरफ से महाराणा प्रताप को मनाने आ चुके थे। मगर सब नाकाम रहे। लेकिन मानसिंह को लगता था कि वह महाराणा प्रताप को अकबर के आगे झुकने के लिए राजी कर लेगा। इसी कोशिश में वह उदयपुर आता है। जहां महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह उसका भव्य स्वागत करते हैं। उदय सागर झील के पास एक टीले पर मानसिंह के लिए दावत का इंतजाम होता है। जहां सोने चांदी की थालियों में खाना परोसा जाता है। लेकिन मानसिंह जिस व्यक्ति से मिलने आया था उसे वो महाराणा प्रताप कहीं भी दिखाई नहीं दिए। 

यह देखकर मानसिंह के गुरूर को गहरी चोट पहुंची, और उसने महाराणा के पुत्र अमर सिंह से कहा, कि वह तब तक खाने को हाथ नहीं लगाएगा, जब तक महाराणा स्वयं उसके साथ बैठकर भोजन नहीं करते। अमर सिंह ने मानसिंह से कहा कि महाराणा के पेट में दर्द है। इसलिए वो उसके साथ भोजन नहीं कर पाएंगे। यह सुनकर भी मानसिंह अपनी जिद पर अड़ा रहा। जब यह बात महाराणा प्रताप तक पहुंची तो उन्होंने उसके लिए जो संदेश भेजा उसे सुन मान सिंह के चेहरे का रंग सफेद पड़ गया। महाराणा का संदेश था कि वह ऐसे राजपूत के साथ खाना नहीं खा सकते जिसने अपनी बुआ की शादी एक तुर्क से कर दी हो। दरअसल महाराणा प्रताप ने अकबर को कभी भारत का नहीं माना। वह अकबर को हमेशा तुर्क कह कर ही संबोधित करते थे। जहां अकबर के पूर्वजों की जड़े थी। यह सुनते ही मानसिंह तिलमिला उठा। उसने भोजन नहीं किया और घोड़े पर सवार होकर महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह से कहा, "मुगल बादशाहत को ठुकराना एक संघर्ष को चुनौती है। अगर तुम युद्ध चाहते हो, तो तुम्हारी यह इच्छा जल्दी ही पूरी होगी। मैं महाराणा का अभिमान चूरचूर कर दूंगा। अब हमारी अगली मुलाकात युद्धभूमि में होगी। तभी अमर सिंह के साथ खड़े भीम सिंह डोडिया ने मानसिंह से व्यंग में कहा जब लड़ने आओ तो अपने फूफा अकबर को साथ लाना मत भूलना। यह सुन मान सिंह और बुरी तरह से बौखला गया। कहते हैं कि मानसिंह के जाने के बाद महाराणा प्रताप ने उन बर्तनों को धुलवाया जिनमें उसे खाना परोसा गया था। 

ताकि उनकी नजरों में उस पाप को धोया जा सके जो पाप मानसिंह ने अपनी बुआ की अकबर से शादी करवाकर किया था। जब मानसिंह ने अकबर के दरबार में पहुंचकर महाराणा प्रताप द्वारा किए गए ह्यूमिलिएशन की कहानी सुनाई तो अकबर आग बबूला हो उठा। इससे पहले भी वह कई दूतों को भेज चुका था। लेकिन हर बार महाराणा प्रताप ने मुगलों के आगे झुकने से साफ इंकार कर दिया था। गुस्से से भरे अकबर ने अब मेवाड़ को सबक सिखाने की ठान ली। उसने मेवाड़ को अधीन करने के लिए मानसिंह को सेना को लीड करने की जिम्मेदारी सौंप दी। अब तक अकबर के पाले में महाराणा प्रताप के दो भाई भी थे। जगमाल सिंह को जब राजगद्दी से हटाया गया था तब वह मेवाड़ छोड़कर अकबर की शरण में आ गया था। अकबर ने उसे जहाजपुर की जागीर सौंप दी ताकि वह महाराणा प्रताप के खिलाफ उसका साथ दे सके। इससे पहले महाराणा प्रताप का एक और भाई शक्ति सिंह भी अकबर के रहमोकरम पर अपनी जिंदगी काट रहा था। इस तरह महाराणा प्रताप के दो भाई दुश्मन से हाथ मिला चुके थे। 
मानसिंह जो पहले से ही महाराणा द्वारा किए गए अपमान की आग में जल रहा था उसकी लीडरशिप में एक विशाल मुगल सेना तैयार की जाती है। जिसमें करीब 10,000 सैनिक, सैकड़ों हाथी, घुड़सवार, तीरंदाज और बंदूकधारी भी थे। इस सेना में आसफ खान को सेकंड कमांडर अपॉइंट किया गया था। सेना में गाजी खान, बादाक्षी, सैयद अहमद बरहा, गाजी खान, मेहतर खान और अली मुराद जैसे कई जाने-माने मुस्लिम वॉरियर शामिल थे। जबकि लोनकरण कछवाहा, माधव सिंह और जगन्नाथ कछवाहा जैसे कई राजपूत सरदार भी मुगल सेना की तरफ से महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़ने वाले थे। 

मुगल सेना मेवाड़ के नॉर्थ ईस्टर्न पार्ट से एंट्री करते हुए मांडलगढ़ के कस्बे में डेरा डालकर युद्ध की तैयारी में जुट गई। इधर महाराणा प्रताप पहले से ही युद्ध का इंतजार कर रहे थे। मेवाड़ की सेना गोंगुदा में अपनी स्ट्रेटजी बना रही थी। महाराणा प्रताप की सेना में करीब 3000 घुड़सवार और 400 भील तीरंदाज थे। देखा जाए तो मुगल सेना महाराणा प्रताप की सेना से चार गुना बड़ी थी। लेकिन करज एंड पर्सिस्टेंस में प्रताप की सेना का कोई मुकाबला नहीं था। उनके साथ बड़ी सादड़ी के झाला सिंह, सलूंबर के कृष्णदास टुंडावत और रावत नेतसी जैसे कई वीर राजपूत सरदार थे। भील जनजाति के मुखिया राव पुंजा ने भी राणा का साथ दिया। एक और खास योद्धा हकीम खान सूर थे जो शेरशाह सूरी के वंशज थे और मुगलों के खिलाफ अपनी एनसेेस्ट्रल एनिमिटी के कारण मेवाड़ की सेना के साथ थे। महाराणा प्रताप ने मुगल सेना की तादाद ज्यादा होने की वजह से उसको हल्दीघाटी के दर्रे में घेरने का प्लान बनाया। अपनी पीली रंग की मिट्टी के कारण इस घाटी का नाम हल्दीघाटी पड़ा जिसके बीच से निकलने का रास्ता इतना नैरो था कि एक साथ ज्यादा सैनिक इसमें से नहीं निकल सकते थे। 

18 जून 1576 की सुबह सूरज उगने से पहले ही दोनों शिविरों में हलचल शुरू हो जाती है। महाराणा प्रताप अपनी 3000 की कैबलरी को दो हिस्सों में बांटते हैं। एक छोटा हिस्सा हकीम खान सूर की लीडरशिप में था जिसमें रामदास राठौर, कृष्णदास चुंडावत और रावत नेतसी जैसे वॉरियर्स शामिल थे। सेना का मुख्य हिस्सा खुद राणा प्रताप की लीडरशिप में था। इस टुकड़ी में राजा रामशाह तोमर और झाला सिंह थे। जैसे ही सूरज की पहली किरणें हल्दीघाटी पर पड़ी युद्ध का बिगुल बच जाता है। मुगल सेना की एडवांस फ्रंटलाइन यूनिट सैयद हाशिम बरह की लीडरशिप में हल्दीघाटी के वेस्टर्न पार्ट की ओर बढ़ती है। महाराणा प्रताप की सेना पहले से ही तैयार थी। जैसे ही मुगलों की सेना नजदीक आई, मेवाड़ की छोटी टुकड़ी ने बिजली की तरह अचानक तेज हमला बोल दिया। इस सडन एंड शार्प अटैक ने मुगल फ्रंटाइन यूनिट को पूरी तरह से तितर-बितर कर दिया। उबड़ खाबड़ जमीन और कांटों भरे रास्तों ने मुगल सैनिकों को और परेशान किया जिसकी वजह से एक कंफ्यूजन का माहौल क्रिएट हुआ और हाशिम बरहा की यूनिट पीछे हटते हुए कुछ ही पलों में अपनी ही सेना की एक यूनिट से जा टकराई जिसका नेतृत्व आसफ खान और जगन्नाथ कछुआ कर रहे थे। इस अफरातफरी में मुगल सेना के राजपूत सैनिक भेड़ों की तरह भाग खड़े हुए। 

इस बीच महाराणा प्रताप की मेन यूनिट ने हल्दीघाटी के मुहाने पर मुगल सेना की दूसरी टुकड़ी पर भी जोरदार हमला बोल दिया। जिसका नेतृत्व काजी खान और शिकरी के शेखजादे कर रहे थे। महाराणा प्रताप की अगुवाई में यह हमला इतना जबरदस्त था कि काजी खान की यूनिट की हालत खराब हो गई और मुगल सेना में भगदड़ मच गई। इसके बाद जैसे ही युद्ध हल्दीघाटी के ऊपरी हिस्से से निकलकर खमनोर के खुले मैदानों में पहुंचा, दोनों सेनाओं को मूव करने की जगह मिल गई और लड़ाई और भी ज्यादा भयंकर हो गई। मेवाड़ की सेना ने अपने इनिशियल अटैक्स में मुगल सेना को पूरी तरह से हिला दिया। जब चारों तरफ से मुगल सेना में हाहाकार मच गया तब मानसिंह ने खुद युद्ध के मैदान में उतरने का फैसला किया। इस बीच मुगलों की सेना में बंदूकों से फायर करने वाले सैनिक भी थे जिन्होंने मोर्चा संभालते हुए मेवाड़ की सेना पर गोलियों की बौछार शुरू कर दी। भालों और तलवारों से गोलियों का मुकाबला नहीं हो सकता था। इसलिए इस बार बंदूक धारियों के हमले से मेवाड़ की सेना को भारी नुकसान हुआ और उनके कई सैनिक मारे गए। 

जब महाराणा प्रताप को लगा कि मुगलों की सेना भारी पड़ती दिख रही है तो उन्होंने हाथियों को बैटल फील्ड में उतारने का आदेश दिया। इसके बाद युद्ध में हाथियों की एंट्री हुई। मुगल सेना का गजमुखता नामक हाथी मैदान में उतरा जिसका मुकाबला मेवाड़ की सेना के हाथी लोना ने किया। लोना ने गजमुखता को बुरी तरह से घायल कर दिया जो इस वार से मैदान छोड़कर भागने ही वाला था कि तभी एक गोली ने लोना के महावत को मार गिराया। जिस कारण लोना युद्ध से बाहर हो गया। तभी मेवाड़ का सबसे प्रसिद्ध हाथी रामप्रसाद युद्ध में शामिल होता है। रामप्रसाद इतना विशाल था कि उसने मुगल सेना में भारी तबाही मचा दी। मुगल सेना के गजराज और रणमंदिंगर नाम के हाथी भी रामप्रसाद के सामने ज्यादा देर तक टिक नहीं पाए। लेकिन तभी एक तीर ने राम प्रसाद के महावत को भी मार गिराया। जिसके बाद मुगल सेना ने राम प्रसाद को पकड़ लिया। यह इस युद्ध में मुगलों को मिली सबसे बड़ी सफलता थी। इस हाथी को बाद में अकबर को तोहफे में पेश किया गया। जिसके किस्से अकबर ने कई बार सुने थे। अकबर ने उसका नाम बदलकर राम प्रसाद से पीर प्रसाद कर दिया और उसे खाने के लिए एक से बढ़िया एक चीजें दी। लेकिन इस हाथी की वफादारी महाराणा प्रताप के लिए ऐसी थी कि उसने हर स्वादिष्ट खाने को ठुकरा दिया और मुगलों का खाना पानी लिए बिना ही 18 दिन बाद राम प्रसाद की मृत्यु हो गई। 

राम प्रसाद के पकड़े जाने के बाद महाराणा प्रताप की तलवार पहले से भी ज्यादा चमकने लगती है। अपने प्रिय घोड़े चेतक पर सवार होकर वह मुगल सेना के बीच ऐसे लड़ रहे थे जैसे कोई बिजली कड़क रही हो। उनकी तलवार जिधर घूमती दुश्मनों के सिर धड़ से अलग हो जाते। इस बीच उनके बहादुर सरदार भीम सिंह डोडिया ने दूर से मुगल सेनापति मानसिंह को देखा जो अपने हाथी पर बैठा युद्ध का नेतृत्व कर रहा था। भीम सिंह ने एक पल भी नहीं सोचा और मानसिंह की तरफ अपनी पूरी ताकत से भाला फेंका। भाला अपनी दिशा से थोड़ा चूक गया और मानसिंह बाल-बाल बच गया। इसी बीच मुगल सोल्जर्स ने भीम सिंह को घेर लिया। अकेले होते हुए भी सरदार भीम सिंह डोडिया ने एक साथ सैकड़ों मुगल योद्धाओं से मुकाबला किया और दर्जनों मुगल सैनिकों को मिट्टी में मिलाकर वीरता से लड़ते हुए रणभूमि में अपनी जान की आहुति दे दी। 

भीम सिंह को गिरते हुए देखकर महाराणा प्रताप का क्रोध चरम पर पहुंच जाता है। उनकी आंखों में मानसिंह के लिए प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठी और वह अपने घोड़े चेतक को सीधा मानसिंह के हाथी की ओर मोड़ देते हैं। जब राणा का युद्ध घोष जय एकलिंगनाथ पूरे युद्ध के शोर को चीरता हुआ मानसिंह के कानों तक पहुंचा तो उसकी आत्मा थर्रा उठी। चेतक ने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि कोई भी उसे रोक नहीं सका। तलवारों, भालों और तीरों की बौछार के बीच चेतक मानसिंह के हाथी तक पहुंच गया, और एक बड़ी छलांग मारते हुए चेतक ने अपने अगले पैर हाथी के दांतों पर रख दिए। इसी पल महाराणा प्रताप ने अपने लंबे भाले से मानसिंह पर जोरदार वार किया। भाला महावत को भेदता हुआ हाथी के हौदे से जा टकराया जिसमें मानसिंह छिपा हुआ था। महावत तुरंत मारा गया और हाथी बेकाबू होकर मुगल सेना के बीच भागने लगा। हाथी को बेकाबू होता देख, महाराणा प्रताप को लगा कि भाले की चोट से मानसिंह भी मर गया होगा। इसलिए वह उसे छोड़कर पीछे हट गए। लेकिन, यह इस युद्ध का टर्निंग पॉइंट था। अगर यहां मानसिंह मारा जाता तो युद्ध यहीं खत्म हो सकता था। 

लेकिन वो किस्मत से बच गया था। इस दौरान महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का पैर काफी जख्मी हो गया था। क्योंकि चेतक जब मानसिंह के हाथी की सूंड पर चढ़ा था तब उसकी सूंड पर तलवार बंधी थी। जिसकी तेज धार ने चेतक के पैर को घायल कर दिया था। इस बीच राजा रामशाह तोमर ने भी राणा की रक्षा में अपनी जान दे दी। वह लगातार राणा के सामने एक ढाल बनकर लड़े और मुगल सेना के हमलों को रोकते रहे। उनके तीनों बेटों ने भी अपने पिता के साथ वीरता से लड़ते हुए अपनी जान का बलिदान दे दिया। ऐसे ही ब्रेव वॉरियर्स के कारण अभी तक महाराणा प्रताप की सेना हर मोर्चे पर मुगल सेना से काफी आगे थी। मुगल सैनिक तादाद में ज्यादा होने के बाद भी मेवाड़ की सेना के आगे ढेर हो रहे थे। साफ था कि महाराणा प्रताप और उनकी सेना अपने स्वाभिमान और अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए जंग लड़ रही थी। इसलिए उनके हर वार में एक जोश भरा हुआ था। वहीं मुगल सेना अपने बादशाह के लालच और विस्तारवादी नीति के कारण युद्ध में थी। जिस वजह से उनका मनोबल राणा की बहादुर सेना के आगे टूटता जा रहा था। इस जगह की कड़ाके की धूप और प्यास से मुगल सेना का हाल और भी बुरा हो चुका था। जबकि मेवाड़ की सेना इस गर्मी की आधी थी। इन सब कारणों से मुगल सेना युद्धभूमि छोड़कर भागने लगी। 

ऐसे में युद्ध को हारता देख भीतर खान जो बनास नदी के पास मुगल सेना की पिछली टुकड़ी के साथ था, वह एक चालाकी भरी चाल चलता है। वो नगाड़े बजवाकर यह झूठी खबर फैलाता है कि खुद बादशाह अकबर अपनी विशाल सेना के साथ युद्ध में शामिल होने आ रहे हैं। इस खबर ने मुगल सेना में नया जोश भर दिया और जो सैनिक भाग रहे थे, वह वापस लौटने लगे। 

इस झूठी खबर को सच मानकर महाराणा प्रताप की सेना जो पहले से ही संख्या में कम थी उसको लगने लगा कि अगर अकबर की अतिरिक्त सेना आ गई तो उनका और भी ज्यादा नुकसान होगा। ऐसे में महाराणा प्रताप के साथी सरदारों ने उनसे अपील की कि वह खुद जंग से बाहर निकल जाए ताकि वह आगे लड़ाई जारी रख सके। यह एक टैक्टिकल रिट्रीट था। इसलिए अपने सरदारों के कई बार कहने पर महाराणा प्रताप पीछे हटने को तैयार हो गए। महाराणा के जंग से बाहर निकलने के लिए मुगल सेना का ध्यान भटकाना जरूरी था।

तब युद्ध के मैदान में एक पुराना इतिहास दोहराया जाता है। खानवा का युद्ध जो 1527 में मुगल बादशाह बाबर और महाराणा प्रताप के दादा राणा सांगा के बीच लड़ा गया था उसमें झाला अज्जा ने राणा सांगा का भेष धरकर लड़ाई लड़ी थी ताकि राणा सांगा की जान बचाई जा सके। ऐसा ही कुछ हल्दीघाटी के लड़ाई में भी हुआ। महाराणा प्रताप को सेफली बाहर निकालने के लिए झाला मान सिंह ने उनका शाही छत्र लिया और खुद जंग में कूद पड़े। गौर करने की बात यह है कि राणा सांगा की जान बचाने वाले झाला अज्जा इन्हीं झाला मानसिंह के पूर्वज थे। झाला मान सिंह महाराणा प्रताप के रूप में ढलकर मुगल सेना के बीच में काफी अंदर तक घुस गए और अपने साथियों के साथ अंत तक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए। उनके इस बहादुरी और बलिदान ने महाराणा प्रताप और उनके कई सैनिकों को सेफली निकलने का मौका दे दिया था। 

राणा अपने वफादार घोड़े चेतक पर सवार होकर युद्ध के मैदान से निकल गए। चेतक पहले ही मानसिंह के हाथी की सूंड में लगी तलवार से बुरी तरह से घायल हो चुका था। इसके बावजूद जब भागते हुए चेतक के रास्ते में एक बेहद चौड़ी खाई आई तब उसने एक जोर की छलांग लगाकर उसे भी पार कर लिया और अपनी आखिरी सांस त्यागने से पहले महाराणा को सुरक्षित पहाड़ियों तक पहुंचा दिया। कभी दुश्मनों के आगे हार ना मानने वाले और कभी भी कमजोर ना पड़ने वाले महाराणा प्रताप चेतक को मृत देख उसके ऊपर सिर रखकर रोने लगे। बाद में उन्होंने चेतक की याद में एक स्मारक बनवाया। जहां उसकी मृत्यु हुई थी। मानसिंह और उसकी सेना महाराणा प्रताप से इतनी डरी हुई थी कि उन्होंने मेवाड़ की सेना का पहाड़ियों में पीछा करने की हिम्मत नहीं की। उन्हें डर था कि महाराणा की सेना पहाड़ियों में छिपकर अचानक हमला कर सकती है।

अगले दिन गोंगुदा में मानसिंह और अन्य सरदारों ने डीप ट्रेंचेस खोदी और ऊंची दीवारें बनवाई ताकि राणा की सेना दोबारा हमला ना कर सके। इसके बावजूद प्रताप ने गोंगुदा किले की रसद रुकवा दी। जिस वजह से किले पर तैनात मुगल सेना को खाने के लाले पड़ गए। नौबत यहां तक आ गई कि मुगल सैनिकों को भोजन के लिए अपने घायल घोड़ों को मारकर खाना पड़ा। महाराणा प्रताप को भले ही आगे के युद्ध के लिए कुछ कदम पीछे हटना पड़ा था लेकिन उन्होंने अकबर के मंसूबों को नाकाम कर दिया था। अकबर का मकसद महाराणा प्रताप को जिंदा पकड़ना और मेवाड़ को मुगल साम्राज्य में मिलाने का था। लेकिन दोनों ही उद्देश्यों में अकबर की सेना नाकाम रही। इस वजह से अकबर इतना नाराज था कि जब मुग़ल सेना का सेनापति मानसिंह युद्ध के बाद अकबर के दरबार में पहुंचा तो नाराज अकबर ने उसके लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए। 

अकबर ने इस लड़ाई के बाकी जनरल आसफ खान और काजी खान को भी काफी समय तक अपने दरबार में बैठने तक नहीं दिया। इससे साफ होता है कि अकबर हल्दीघाटी युद्ध के परिणाम से बिल्कुल भी खुश नहीं था। इधर महाराणा प्रताप खुद को और भी स्ट्रांग करने में लगे हुए थे। इस बीच उन्होंने लड़ाई लड़ने की अपनी स्ट्रेटजी भी चेंज की। उनकी सेना को गोरिल्ला वॉरफेयर में महारत हासिल थी। इसलिए मुगलों से डायरेक्ट कॉन्फट्रेशन की जगह इसी के तहत उन्होंने अपने हमले जारी रखे। लोकल भीलों की मदद से महाराणा प्रताप गोरिल्ला युद्ध करने लगे। वो मुगलों पर घात लगाकर हमला करते और फिर जंगलों में गायब हो जाते। ऐसा लगता था कि महाराणा प्रताप 100 जगह एक साथ खड़े हैं। इससे अकबर की सेना का मनोबल टूटने लगा।

मुगलों को इतना भय हो गया था कि उन्हें मालूम ही नहीं था कि उन पर कब और कहां से हमला हो जाए। गोरिल्ला युद्ध के कारण मेवाड़ को जीतने निकली मुगल सेना खुद मेवाड़ में कैद होकर रह गई थी। लेकिन महाराणा प्रताप तब तक चैन की सांस नहीं लेने वाले थे जब तक वो अकबर से अपने राज्य का हर हिस्सा वापस नहीं छीन लेते। इसलिए उन्होंने एक और बड़े युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने अपने सरदारों को कहा कि धन इकट्ठा करके एक विशाल सेना का निर्माण किया जाए। जब महाराणा प्रताप के बचपन के दोस्त भाबाशाह को पता लगा कि महाराणा को सेना खड़ी करने के लिए पैसे की जरूरत है तो उन्होंने अपनी सारी दौलत महाराणा प्रताप को सौंप दी। इसके बाद महाराणा प्रताप एक बड़ी सेना को खड़ा करते हैं और हल्दीघाटी युद्ध के 6 साल बाद 1582 में मुगल सेना और महाराणा प्रताप के बीच दिवेर का युद्ध लड़ा जाता है। उनकी सेना दिवेर के पाससेस में मुगल ठिकानों पर बिजली की तरह टूट पड़ी। इस युद्ध में मुगल सेना का नेतृत्व अकबर का चाचा सुल्तान खान कर रहा था। 

महाराणा प्रताप के बेटे अमर सिंह ने सुल्तान खान को भाले के वार से मार गिराया। मुगल कमांडर की मौत के बाद मुगल सेना भाग खड़ी हुई। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की निर्णायक जीत हुई और 36,000 मुगल सैनिकों ने महाराणा प्रताप के सामने सरेंडर कर दिया। यह वही जीत थी जिसके लिए महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध में अपने पांव पीछे किए थे। लेकिन इस जीत के बाद भी वह रुके नहीं। उन्होंने आगे बढ़ते हुए एक ही दिन में 36 मुगल पोस्टों को तहस-नहस कर दिया और देखते ही देखते राणा की सेना ने कुंभलगढ़, गोगुंदा और उदयपुर को भी वापस जीत लिया।

इस दौरान महाराणा प्रताप का मुकाबला अकबर के सेनापति बहलोल खान से भी हुआ था। उसके बारे में कहा जाता था कि वह कभी कोई जंग नहीं हारा था। साथ ही वह इतना जालिम था कि वह लोगों को दर्दनाक तरीके से मारता था। युद्ध में जब बहलोल खान का महाराणा प्रताप से सामना हुआ तो वह थोड़ी देर भी उनके सामने नहीं टिक सका। महाराणा प्रताप ने बहलोल को एक ही वार में चीर दिया। कहा जाता है कि यह वार ऐसा था कि बहलोल उसके घोड़े सहित दो हिस्सों में बंट गया। दिवेर की हार से बौखलाए अकबर ने 1584 में राणा को हराने की आखिरी कोशिश की। उसने जगन्नाथ कछुआ को प्रताप को बंदी बनाने के लिए भेजा। लेकिन वह बुरी तरह से पराजित हुआ और प्रताप से माफी मांगकर हरजाना देकर लौटा। 

अकबर अब यह मान चुका था कि वह इस शेर को कभी कैद नहीं कर पाएगा। इसलिए उसने महाराणा प्रताप को अकेला छोड़ना ही बेहतर समझा। 1585 के बाद मुगल सेना का ध्यान नॉर्थ वेस्ट की ओर चला गया। जिसका फायदा उठाकर महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के ज्यादातर हिस्सों को वापस जीत लिया और चामुंड को उन्होंने अपनी नई कैपिटल बना लिया। महाराणा प्रताप मानसिंह को सबक सिखाना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने बेटे अमर सिंह को सेना के साथ आमेर के मालपुरा पर अटैक करने के लिए भेजा। जल्द ही अमर सिंह की सेना ने मानसिंह की सेना को हराकर उसकी बेशुमार दौलत पर कब्जा कर लिया। इसके बाद अगले 12 सालों तक महाराणा प्रताप ने मेवाड़ पर ऐसा शासन किया कि राज्य की खोई हुई चमक वापस लौट आई। लेकिन 1597 में 56 साल की उम्र में जब महाराणा प्रताप शिकार पर निकले थे उस समय उन्हें चोट लगी जिससे वह कभी उभर नहीं पाए और उनकी मृत्यु हो गई। उनके निधन से एक युग का अंत हो गया। कहते हैं कि जब उनकी मौत की खबर अकबर को लाहौर में उसके दरबार में दी गई तो वह भी अपने सबसे बहादुर दुश्मन को याद करके रो पड़ा।

उस समय राजस्थान के एक मशहूर कवि दुरसाड़ा भी अकबर के दरबार में मौजूद थे। उन्होंने उस समय महाराणा प्रताप की मौत की खबर मिलने पर जो कविता लिखी उसका सार था तुमने कभी अपने घोड़े पर शाही दाग नहीं लगने दिया। तुमने अपनी पगड़ी कभी नहीं झुकाई। तुमने अपने घोड़े पर शाही मोहर नहीं लगने दी। तुम कभी नवरोस में बादशाह से मिलने नहीं आए। आज जब तुम्हारी मृत्यु का समाचार दरबार में आया है, देखो बादशाह का सिर झुक गया है और उसकी आंख से आंसू बह निकले हैं। तुम जीत गए प्रताप। अकबर ने कविता सुनने के बाद दूरसा आड़ा को इनाम दिया था। इस तरह मृत्यु के बाद भी महाराणा प्रताप अपने दुश्मन से जीत गए थे और वह अपने साहस और वीरता के चलते हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गए। 

उनके बाद उनके बेटे अमर सिंह मेवाड़ के राणा बने। शुरू के करीब दो दशकों तक उन्होंने भी मुगलों से लड़ाई जारी रखी। लेकिन लंबे संघर्ष के बाद 1615 में उन्होंने मुगलों से समझौता कर लिया जिसमें चित्तौड़गढ़ वापस मेवाड़ को लौटा दिया गया और यह तय हुआ कि मेवाड़ भले ही मुगलों के अधीन रहेगा लेकिन उसके महाराणा कभी भी मुगल दरबार में पेश नहीं होंगे।

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