Untold story of Homi Bhabha: The Genius Who Made India’s Nuclear Dream Possible

Sourav Pradhan
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22 जनवरी 1966 एयर इंडिया की फ्लाइट 1001 मुंबई के साक्र क्रूज इंटरनेशनल एयरपोर्ट से लंदन के लिए उड़ान भरती है। इस फ्लाइट को मुंबई से दिल्ली फिर बेरूट और जेनेवा होते हुए लंदन जाना था। इस जहाज में 117 लोग सवार थे। इन्हीं में से एक थे भारत के वह महान वैज्ञानिक जिनकी महत्वाकांक्षाओं ने विदेशी ताकतों की नींद उड़ा रखी थी। कैमब्रिज से पढ़ाई करने के बाद कॉस्मिक रेस और थ्योरेटिकल फिजिक्स पर काम करने वाले इस जीनियस फिजिसिस्ट ने ना सिर्फ रिसर्च पेपर्स लिखे बल्कि भारत का एटॉमिक फ्यूचर भी डिजाइन किया। 


1945 में उन्होंने टाटा इंस्टट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च टीआईएफआर की नींव रखी। 1948 में एटॉमिक एनर्जी कमीशन बनाई और इसी विज़न ने भारत के थ्री स्टेज न्यूक्लियर पावर प्रोग्राम को जन्म दिया जो आज भी इंडिया की न्यूक्लियर पॉलिसी की बैकबोन है। यह महान वैज्ञानिक कोई और नहीं बल्कि फादर ऑफ द इंडियन न्यूक्लियर प्रोग्राम कहे जाने वाले डॉक्टर होमी जहांगीर भाबा थे। जिनका सपना भारत को न्यूक्लियर सुपर पावर बनाने का था। उन्होंने ना केवल भारत में न्यूक्लियर प्रोग्राम की नींव रखी बल्कि जब चाइना ने 1962 में हिंदी चीनी भाई-भाई की आड़ में भारत पर हमला करके भारत के 38,000 स्क्वायर कि.मी. एरिया पर कब्जा कर लिया और 1964 में अपना पहला न्यूक्लियर टेस्ट कर लिया। तो भाबा ने साफ शब्दों में कहा कि अगर सरकार इजाजत दे तो मैं केवल 18 महीनों के अंदर देश को न्यूक्लियर बम बनाकर दे सकता हूं। लेकिन किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था। जब डॉक्टर भाबा जेनेवा के रास्ते वियना में एटॉमिक एनर्जी कॉन्फ्रेंस अटेंड करने जा रहे थे। तभी बीच सफर में 24 जनवरी 1966 को एयर इंडिया की फ्लाइट 1001 एल्ब्स की पहाड़ियों में क्रैश हो गई। 

इस हादसे में डॉ. होमी भाबा समेत सभी 117 यात्रियों की मौत हो गई। इसे महज एक दुर्घटना बताया गया। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि सिर्फ 13 दिन पहले ही प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी रहस्यमई परिस्थितियों में मौत हुई थी। और अब भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम की रीड माने जाने वाले होमी भाबा की जिंदगी भी अचानक खत्म हो गई थी। यहीं से सवालों की एक लंबी कतार शुरू हो गई। क्या यह वाकई एक एक्सीडेंट था या फिर भारत की न्यूक्लियर एंबिशंस को रोकने के लिए कोई बड़ी साजिश रची गई थी। आइए जानते हैं डॉ. होमी जहांगीर भाबा की जिंदगी की पूरी कहानी। उनकी मौत से जुड़ी वो कौन सी कॉनस्परेसी थ्योरीज है जिनकी आंच अमेरिका और फ्रांस तक जा पहुंची। 

डॉक्टर होमी जहांगीर भाबा का जन्म 30 अक्टूबर 1909 को मुंबई की एक वेल्थी पारसी फैमिली में हुआ था। उनके पिता जहांगीर होरमुस जी भाबा एक जानेमाने वकील थे और उनकी मां मेहरबाई प्रेमजी पांडे मुंबई के फेमस फिलेंथ्रोपिस्ट डिनशो पेटिड की ग्रैंड डॉटर थी। होमी जहांगीर भाबा का नाम होमी उनके दादा होरमुस जी भाबा के नाम पर रखा गया था जो मैसूर में इंस्पेक्टर जनरल ऑफ एजुकेशन थे। होमी भाबा के परिवार का संबंध भारत के फेमस इंडस्ट्रियलिस्ट टाटा परिवार से भी था। उनकी बुआ मेहरबाई की शादी जमशेद जी टाटा के बड़े बेटे सर दोराब जी टाटा से हुई थी। इतने बड़े परिवार और रिशेदारी का प्रभाव होमी जहांगीर भाबा पर भी पड़ा। उन्होंने अपनी प्राइमरी एजुकेशन मुंबई के कैथड्रल एंड जॉन कैनन स्कूल से पूरी की। स्कूल के दिनों से ही उन्हें साइंस और मैथ्स में काफी रुचि थी जो उम्र बढ़ने के साथ बढ़ती ही चली गई। उन्होंने अल्फिन स्टोन कॉलेज से 12वीं की पढ़ाई की और ग्रेजुएशन करने के लिए मुंबई के रॉयल इंस्टट्यूट ऑफ साइंस में एडमिशन ले लिया। इसी कॉलेज में पढ़ाई करते हुए उन्हें नोबेल प्राइज विनर फिजिसिस्ट आर्थर कॉमटन का एक पब्लिक लेक्चर अटेंड करने को मिला जिसमें उन्होंने कॉस्मिक रेस और उसके इफेक्ट्स के बारे में बताया। 

यह पहली बार था जब होमी भाबा ने कॉस्मिक रेस के बारे में सुना था और उन्हें यह टॉपिक इतना एक्साइटिंग लगा कि उन्होंने फिजिक्स को ही अपने करियर के रूप में चुनने का फैसला कर लिया। साल 1927 में वह अपने पिता जहांगीर होरमुस जी और फूफा गौरव टाटा की इच्छा पर आगे की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए। वो कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के गॉनवेल एंड केस कॉलेज में मैकेनिकल इंजीनियरिंग करने लगे। उनके पिता चाहते थे कि वो आगे चलकर एक बढ़िया इंजीनियर बने और टाटा स्टील में एज अ मेटोलर्जिस्ट ज्वाइन करके फैमिली बिजनेस को आगे बढ़ाएं। लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के दौरान होमी भाबा का झुकाव, मैथ और थ्योरेटिकल फिजिक्स की ओर बढ़ता चला गया। ऐसे में उन्होंने एक दिन अपने पिता को एक लेटर लिखा। मेरा एक बिजनेसमैन बनने या फिर इंजीनियरिंग की जॉब में कोई इंटरेस्ट नहीं है। मैं फिजिक्स की पढ़ाई करना चाहता हूं। मुझे इसे पढ़ना काफी सुकून देता है और मैं जानता हूं कि यदि मुझे मौका दिया गया तो मैं इस क्षेत्र में काफी अच्छा करूंगा क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपना बेस्ट उसी फील्ड में दे सकता है जिससे उसका गहरा लगाव हो। अपने बेटे के इंटरेस्ट को देखते हुए उनके पिता ने उन्हें ऐसा करने की परमिशन तो दे दी लेकिन एक शर्त भी रखी कि उन्हें मैकेनिकल ट्राईपोस को फर्स्ट डिवीजन से पास करना होगा। 3 साल बाद होमी भाबा ने ना केवल मैकेनिकल ट्राईपोस बल्कि इसके बाद मैथमेटिक्स ट्राईपोस को भी फर्स्ट डिवीजन से पास कर लिया। 

इस दौरान उन्हें कई स्टूडेंटशिप्स भी मिली। जहां साल 1931 में उन्हें सेलोमोन स्टूडेंटशिप एंड इंजीनियरिंग मिली। तो वहीं अगले साल उन्हें राउस बॉल ट्रैवलिंग स्टूडेंटशिप से नवाजा गया। इसी दौरान सन 1932 में कार्ल एंडरसन द्वारा पोजिट्रॉन की खोज हुई और डायरेक्ट की होल थ्योरी का फॉर्मुलेशन भी किया गया। इससे प्रभावित होकर होमी भाबा फिजिक्स के प्रति इतने फैसिनेट हो गए कि उन्होंने हाई एनर्जी फिजिक्स को ही अपनी जिंदगी बना लिया। इसके बाद उन्होंने थ्योरेटिकल फिजिक्स पर पीएचडी करना शुरू कर दिया। सन 1933 में उन्होंने इलेक्ट्रॉन शावर्स की भूमिका पर अपना पहला पेपर पब्लिश किया जिसमें उन्होंने बताया कि किस तरह इलेक्ट्रॉन शावर्स कॉस्मिक रेडिएशन को अब्सॉर्ब करने में मदद करते हैं। अगले साल होमी भाबा को आइसक न्यूटन स्टूडेंटशिप के लिए चुना गया जिसे उन्होंने लगातार 3 साल तक बरकरार रखा। इस दौरान उन्हें अपनी रिसर्च पूरी करने के लिए यूरोप के कई प्रेस्टीजियस इंस्टीटशंस और बड़े-बड़े साइंटिस्ट के साथ भी काम करने का मौका मिला। जिससे काफी कम उम्रों में उनकी वेस्टर्न कंट्रीज में अच्छी खासी पहचान बन गई। 

उन्हें अर्नेस्ट रदरफोर्ड, नील्स बोर, चैडविक, कॉकरोफ, डायरेक्ट, हाइटलर, क्रमर्स, पॉली और एनरिको फर्मी जैसे दुनिया के महान वैज्ञानिकों के साथ काम करने का मौका मिला। जिससे उन्हें उनकी खोज में काफी हेल्प मिली। अपने टैलेंट और डेडिकेशन की बदौलत होमी भाबा ने 1935 में अपनी थीसिस द अब्सॉर्प्शन ऑफ कॉस्मिक रेडिएशन के लिए कैमब्रिज यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की डिग्री हासिल कर ली। आगे चलकर उन्होंने हाई एनर्जी फिजिक्स पर 50 से अधिक रिसर्च पेपर पब्लिश किए और क्वांटम इलेक्ट्रोडायनेमिक्स की शुरुआती विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। साल 1939 में होमी भाबा को इंग्लैंड की प्रेस्टीजियस रॉयल सोसाइटी ने मैनचेस्टर की एक फेमस लैबोरेटरी में रिसर्च करने का भी ऑफर दिया था। लेकिन कई सालों से यहां रहने की वजह से उन्हें अपनी फैमिली की काफी याद आ रही थी। इसलिए वह एनुअल वेकेशन पर इंडिया चले आए। इसी बीच इंग्लैंड वर्ल्ड वॉर 2 में इनवॉल्व हो गया। जिस वजह से वह वापस इंग्लैंड नहीं जा सके। यह घटना फ्यूचर में भारत के लिए एक बड़ा वरदान साबित हुई। भारत आने के बाद उन्होंने बोर के इंडियन इंस्टट्यूट ऑफ साइंस आईआईएससी में प्रोफेसर के तौर पर पढ़ाना शुरू किया। जिससे नोबेल प्राइज विनर डॉ. सीवी रमन भी फिजिक्स के प्रोफेसर के तौर पर जुड़े हुए थे। आगे चलकर होमी बाबा ने आईआईएससी में कॉस्मिक रेस की खोज के लिए एक अलग डिपार्टमेंट की स्थापना भी की ताकि भारत से भी इस क्षेत्र में नई प्रतिभाएं उभर सके। 

इसी इंस्टट्यूट में वह भारत के एक और फेमस साइंटिस्ट विक्रम साराभाई से मिले। जिनके साथ मिलकर उन्होंने भारत की साइंस एंड टेक्नोलॉजी को नेक्स्ट लेवल तक ले जाने का काम किया। विक्रम साराभाई भी कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से ही अपनी पढ़ाई कर रहे थे। लेकिन वर्ल्ड वॉर 2 के चलते उन्हें भी साल 1940 में इंग्लैंड से वापस भारत लौटना पड़ा था और डॉक्टर सीवी रमन के बुलाने पर वह भी आईआईएससी से लीडर के तौर पर जुड़ गए थे। तब तक होमी भाबा कॉस्मिक रेस रिसर्च डिपार्टमेंट के प्रोफेसर बन चुके थे। विक्रम साराभाई का इंटरेस्ट भी कॉस्मिक रेज में ही था। इस तरह से कॉस्मिक रेस दोनों को एक दूसरे के करीब ले आई और फिर दोनों में ऐसी दोस्ती हुई जो मरते दम तक कायम रही। 

कहा जाता है कि साल 1941 में होमी भाबा कैल्टेक यूनिवर्सिटी जाकर काम करने की सोच रहे थे क्योंकि उन्हें फेलो ऑफ द रॉयल सोसाइटी के रूप में चुन लिया गया था। लेकिन साराभाई ही वह शख्स थे जिनकी वजह से उन्होंने विदेश जाने का अपना फैसला बदल लिया था। होमी बाबा के योगदान को देखते हुए साल 1942 में उन्हें मैथमेटिक्स फील्ड के प्रेस्टीजियस अवार्ड्स में से एक एडमम्स प्राइज देकर सम्मानित किया गया और इसे पाने वाले वो पहले इंडियन थे। सीवी रमन होमी भाबा के टैलेंट के इतने कायल थे कि उन्होंने इंडियन एकेडमी ऑफ साइंस की एक एनुअल मीटिंग के दौरान उनकी तुलना लनाडो डाविची से की थी। क्योंकि होमी भाबा की साइंस के साथ-साथ संगीत में गहरी रुचि थी। चाहे वह भारतीय संगीत हो या वेस्टर्न क्लासिकल म्यूजिक उन्हें सब पसंद आता था। 

किस पेंटिंग को कहां टांगा जाए और कैसे टांगा जाए, फर्नीचर कैसा बनना है हर चीज के बारे में वो बहुत गहराई से सोचते थे। ओमी बाबा ने साल 1945 तक आईआईएससी में अपनी सेवाएं दी। आईआईएससी में टीचिंग करने के दौरान ही उन्होंने अपने दोस्त और फेमस इंडस्ट्रियलिस्ट जेआरडी टाटा को फंडामेंटल फिजिक्स की एक रिसर्च इंस्टट्यूट खोलने का प्रस्ताव दिया। जिसके लिए जेआरडी टाटा तैयार हो गए। इसके बाद साल 1945 में टाटा के फंड से होमी भाबा ने टाटा इंस्टट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च टीआईएफआर की स्थापना की और वही इसके पहले डायरेक्टर भी बने। 2 साल बाद 1947 में भारत गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर आजाद हुआ और पंडित जवाहरलाल नेहरू देश के पहले प्राइम मिनिस्टर बने। उस दौर में जब भारत अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए भी जूझ रहा था। उस समय न्यूक्लियर एनर्जी को विकसित करने का ख्याल सिर्फ एक दूर का सपना लगता था। उस दौरान सोवियत यूनियन और अमेरिका के बीच सुप्रीमेसी को लेकर कोल्ड वॉर जारी था। उनके पक्ष में दुनिया दो गुटों में बंट गई। लेकिन भारत ने नॉन अलाइनमेंट की नीति अपनाई। इतना ही नहीं जवाहरलाल नेहरू हर ग्लोबल प्लेटफार्म से न्यूक्लियर वेपंस को रोकने की बात करते थे। 

ऐसे में न्यूक्लियर डेवलपमेंट की बात उनके विचारों से बिल्कुल मेल नहीं खाती थी। मगर होमी भाबा दूरदर्शी थे। वह जानते थे कि आने वाले समय में भारत की सुरक्षा और विकास के लिए न्यूक्लियर पावर जरूरी होगी। इसलिए उन्होंने 1948 में जवाहरलाल नेहरू को एक लेटर लिखकर सुझाव दिया कि न्यूक्लियर रिसर्च के लिए एक डेडिकेटेड इंस्टट्यूट बनाना चाहिए। उन्होंने अपने विज़न से किसी तरह प्रधानमंत्री को इसके लिए राजी कर लिया। इसके बाद अक्टूबर 1948 में एटॉमिक एनर्जी कमीशन एईसी की स्थापना की गई जिसके पहले अध्यक्ष होमी जहांगीर भाबा बनाए गए। यह इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि होमी भाबा जवाहरलाल नेहरू के काफी करीब थे। ओमी भाबा पंडित नेहरू को अपने हर लेटर में माय डियर भाई कहकर संबोधित करते थे। उनकी इस नजदीकी का जिक्र खुद इंदिरा गांधी ने संसद में अपने एक भाषण के दौरान किया था। उन्होंने बताया कि बाबा अक्सर देर रात उनके पिता जवाहरलाल नेहरू को फोन करते थे और दोनों घंटों तक बातें करते थे। जवाहरलाल नेहरू चाहे कितने भी व्यस्त क्यों ना हो भाबा से बातचीत के लिए हमेशा समय निकाल ही लेते थे। 

होमी भाबा ने ट्रॉम्बे में एटॉमिक रिसर्च सेंटर को इस्टैब्लिश करने में भी अहम भूमिका निभाई। उन्होंने भारत की लॉन्ग टर्म एनर्जी नीड्स और देश में थोरियम के 5 लाख टन से भी ज्यादा की अवेलेबिलिटी को ध्यान में रखते हुए देश को एनर्जी प्रोडक्शन में सेल्फ रिलायंस बनाने के लिए थोरियम बेस्ड न्यूक्लियर प्रोग्राम का एक विज़नरी आईडिया दिया। भाबा का आईडिया इतना यूनिक और फ्यूचरिस्टिक था कि सरकार ने जल्दी ही इसे अपने फ्यूचर प्लान का हिस्सा बना लिया और इस पर काम शुरू कर दिया। आज होमी भाबा के चलते थोरियम रिसर्च में भारत दुनिया के लीडिंग नेशंस में गिना जाता है। साल 1954 में भारत सरकार ने साइंस एंड टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में होमी भाबा के योगदान को देखते हुए उन्हें देश के सेकंड हाईएस्ट सिविलियन ऑनर्स पद्म भूषण से सम्मानित किया। यही नहीं उन्हें पांच बार नोबेल प्राइज के लिए भी नॉमिनेट किया गया। लेकिन उन्हें यह सम्मान नहीं मिल सका। साल 1955 में उन्हें यूनाइटेड नेशंस द्वारा आयोजित फर्स्ट इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन द पीसफुल यूजसेस ऑफ एटॉमिक एनर्जी का प्रेसिडेंट चुना गया। 

जिसमें 73 देशों के 10,428 मेंबर्स मौजूद थे। इस कॉन्फ्रेंस के 2 साल बाद ही इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी आईएईए को इस्टैब्लिश किया गया। जिसमें होमी भाबा का भी योगदान था। उन्हीं दिनों भारत में एक न्यूक्लियर रिएक्टर की डेवलपमेंट की बातें भी चल रही थी। जिसे ट्रॉम्बे के एटॉमिक रिसर्च सेंटर में ही इस्टैब्लिश किया जाना था। लेकिन दिक्कत यह थी कि न्यूक्लियर रिएक्टर के लिए एनरच यूरेनियम की जरूरत थी और उस समय भारत के पास यूरेनियम एनरच करने की टेक्नोलॉजी नहीं थी। ऐसे में डॉक्टर होमी भाबा ने कैंब्रिज में साथ पड़े अपने एक दोस्त जॉन कॉक्राफ्ट की मदद ली जो उस समय यूके एटॉमिक एनर्जी अथॉरिटी से जुड़े हुए थे। इसके बाद यूके एटॉमिक एनर्जी अथॉरिटी और इंडिया के डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी के बीच एक एग्रीमेंट हुआ और ब्रिटेन ने भारत को एनरिश यूरेनियम सप्लाई करना शुरू कर दिया। 

होमी भाबा के प्रयासों से ही कनाडा भारत में एक 40 मेगावाट का रिसर्च रिएक्टर इस्टैब्लिश करने के लिए सहमत हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1956 में भारत ने अपना पहला न्यूक्लियर रिएक्टर डेवलप कर लिया जिसे अप्सरा के नाम से जाना जाता है। यहीं से भारत में न्यूक्लियर वेपंस बनाने के दरवाजे खुल गए। मगर फिर भी भारत उस समय न्यूक्लियर वेपन नहीं बनाना चाहता था और पीसफुल न्यूक्लियर एनर्जी पर ही फोकस कर रहा था। लेकिन इसी बीच साल 1962 में जब चाइना ने भारत पर हमला करके भारत को युद्ध में हरा दिया और अक्साई चीन समेत भारत के 38,000 स्क्वायर किमी एरिया पर अपना कब्जा कर लिया तो भारत को अपनी कमजोरियों का जल्द ही एहसास हो गया। अक्टूबर 1964 में चीन ने न्यूक्लियर बम का भी टेस्ट कर लिया जिसने भारत की सुरक्षा को और भी बड़े खतरे में डाल दिया। यह दो ऐसे इंसिडेंट्स थे जिन्होंने भारत को जल्द से जल्द न्यूक्लियर पावर बनने की दिशा में सोचने को मजबूर कर दिया था। 
डॉक्टर होमी भाबा खुद को रोक नहीं सके और उन्होंने इसके कुछ दिन बाद ऑल इंडिया रेडियो पर कहा 50 एटम बम बनाने में 10 करोड़ और 2 मेगा टन के इतने ही एटम बम बनाने में 15 करोड़ का खर्चा होगा और यह खर्च एक देश के तौर पर काफी मामूली है। इसलिए हमारी सरकार अगर इजाजत दे तो मैं केवल 18 महीने के अंदर देश को एटम बम तैयार करके दे दूंगा। उस समय तक जवाहरलाल नेहरू की मौत हो चुकी थी और लाल बहादुर शास्त्री नए प्रधानमंत्री बन चुके थे। जिनका शुरुआत में न्यूक्लियर डेवलपमेंट के प्रति नजरिया ज्यादा पॉजिटिव नहीं था। उनको वो सब समझने में दिक्कत हो रही थी जो भाबा उन्हें समझाना चाह रहे थे। लेकिन भाबा ने जल्दी ही लाल बहादुर शास्त्री को परमाणु शक्ति के शांतिपूर्ण इस्तेमाल के लिए मना लिया और इसी के चलते अप्रैल 1965 में भारत में न्यूक्लियर एक्सप्लोजन फॉर पीसफुल पर्पसेस नाम से एक न्यूक्लियर इनिशिएटिव शुरू हुआ। इसे आगे बढ़ाने के लिए न्यूक्लियर फिजिसिस्ट राजा रमन्ना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों की एक डेडिकेटेड टीम बनाई गई। 

इसी बीच अगस्त 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया। उस समय भारत जिओपॉलिटिकली काफी कमजोर मोड़ पर था। एक तरफ पाकिस्तान के सर पर अमेरिका का हाथ था जो उसे भर-भर के एडवांस वेपंस, एयरक्राफ्ट्स और टैंक्स दे रहा था। और दूसरी ओर पाकिस्तान को यह भी लग रहा था कि 1962 की जंग में चीन से हारने के बाद भारत इतना कमजोर हो गया है कि वह भारत से कश्मीर छीन लेगा। हालांकि उसकी ये गलतफहमी जल्दी ही दूर हो गई और उसे सितंबर 1965 में अपनी नाकामी के साथ युद्ध विराम के लिए राजी होना पड़ा। लेकिन इस युद्ध ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को न्यूक्लियर वेपंस की आवश्यकता का गहरा एहसास करा दिया था। इसी वजह से दिसंबर 1965 में उन्होंने खुद होमी भाबा से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु विस्फोट के काम को तेज करने के लिए कहा। कहा जाता है कि लाल बहादुर शास्त्री ने होमी भाबा को अपने कैबिनेट में शामिल होने का प्रस्ताव भी दिया था। लेकिन भाबा ने किसी राजनीतिक पद को स्वीकार करने के बजाय एक वैज्ञानिक के रूप में ही देश की सेवा करने को सही समझा। 

क्योंकि डॉक्टर होमी बाबा पहले ही कह चुके थे कि वह केवल 18 महीनों में न्यूक्लियर वेपंस बना सकते हैं और अब प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का भी उन्हें पूरा सपोर्ट था। इसलिए काफी संभावना थी कि 1966 के अंत या 1967 के शुरुआत तक भारत एक न्यूक्लियर पावर बन सकता था। लेकिन जब भारत इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा था। उसी बीच पाकिस्तान से शांति वार्ता करने ताशकंद गए प्राइम मिनिस्टर लाल बहादुर शास्त्री की 11 जनवरी 1966 को रहस्यमई परिस्थितियों में मौत हो जाती है। प्रधानमंत्री की मौत के केवल 13 दिन बाद फिर से कुछ ऐसा होता है जो भारत के न्यूक्लियर प्रोग्राम को बैकफुट पर धकेल देता है। जनवरी 1966 के लास्ट वीक में ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में साइंटिफिक एडवाइज़री कमिटी ऑफ द इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी की एक कॉन्फ्रेंस होने वाली थी और इसे इंडिया के रिप्रेजेंटेटिव के तौर पर ओमी भाबा भी अटेंड करने वाले थे। उन दिनों बॉम्बे से वियना की कोई सीधी फ्लाइट नहीं होती थी और ऐसे में स्विट्जरलैंड के जेनेवा में फ्लाइट बदलकर वियना जाना पड़ता था। ओमी भाबा 22 जनवरी 1966 को एयर इंडिया की फ्लाइट 1001 यानी कंचनजंगा में सवार होते हैं। जिसे मुंबई से बेरूट और जेनेवा होते हुए लंदन जाना था। होमी भाबा इस प्लेन से जेनेवा में ही उतर कर दूसरी फ्लाइट लेकर वियना पहुंचने वाले थे। लेकिन 24 जनवरी की सुबह 7:02 पर जैसे ही यह प्लेन फ्रांस के हवाई क्षेत्र में एल्प्स की पहाड़ियों में पहुंचा, अचानक वहां की ऊंची चोटियों के मॉन ब्लैंक से टकराकर क्रैश हो गया। इसमें सवार सभी 117 यात्री मारे गए जिनमें डॉक्टर होमी भाबा का नाम भी शामिल था। 

केवल 56 साल की उम्र में होमी भाबा की मौत की खबर ने पूरे भारत को गहरे सदमे में डाल दिया। क्योंकि दुर्घटना फ्रांस के हवाई क्षेत्र में हुई थी इसलिए इस विमान हादसे की जांच का जिम्मा भी फ्रांस की सरकार ने उठाया। एक रेस्क्यू टीम बनाकर जल्दी ही दुर्घटना स्थल की ओर रवाना किया गया। लेकिन रेस्क्यू टीम को वहां से ना तो प्लेन का कोई मलबा मिला, ना ब्लैक बॉक्स मिल सका और ना ही वह किसी भी पैसेंजर की डेड बॉडी खोद सके। उनके मुताबिक उनके वहां पहुंचने तक प्लेन का मलबा पूरी तरह से ग्लेशियर में समा चुका था। जल्दी ही फ्रांस ने खराब मौसम का हवाला देकर इस ऑपरेशन को भी रोक दिया। ताज्जुब की बात यह थी कि यह क्रैश एग्जैक्ट उसी जगह पर हुआ था जहां नवंबर 1950 में एयर इंडिया का एक और विमान मालाबार प्रिंसेस क्रैश हुआ था। 

और दोनों ही विमानों का मलबा और उस पर सवार लोगों को खोजा नहीं जा सका। फ्रांस की सरकार ने इस प्लेन क्रैश की जांच की एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें कहा गया कि इस प्लेन के वीओआर में खराबी के चलते यह हादसा हुआ। दरअसल वीओआर द्वारा भेजे गए सिग्नल से ही कोई पायलट अपनी करंट पोजीशन, डायरेक्शन और हाइट का अंदाजा लगाता है। अथॉरिटीज के मुताबिक उस दिन हादसे के केवल 2 मिनट पहले पायलट ने कंट्रोल रूम को बताया था कि प्लेन 19,000 फीट की ऊंचाई पर ट्रैवल कर रहा है जो एल्प्स की सबसे ऊंची चोटी से करीब 3,000 फीट ऊपर था। ऐसे में कंट्रोल रूम ने प्लेन की पोजीशन को क्लियर कर पायलट से प्लेन की पोजीशन चेंज करने को कहा। फ्रांस के जांच अधिकारियों के मुताबिक यही पायलट ने एक गलती कर दी। पायलट को लगा कि उसने यहां की सबसे ऊंची चोटी को क्रॉस कर लिया है। लेकिन असलियत में प्लेन अब भी एल्ब्स की पहाड़ियों में ही था। इसी कंफ्यूजन में पायलट ने प्लेन को नीचे उतारने की कोशिश की जिससे प्लेन पहाड़ियों से टकरा कर क्रैश हो गया। लेकिन लोगों को यह बात हजम नहीं हो पा रही थी कि आखिर जो प्लेन एल्प्स की पहाड़ियों की सबसे ऊंची चोटी से 3000 फीट की ऊंचाई पर उड़ान भर रहा था वो आखिर केवल 2 मिनट बाद पहाड़ी से कैसे टकरा गया। 

इसलिए जल्दी ही इस प्लेन क्रैश के पीछे किसी गहरी साजिश की आशंका जताई जाने लगी। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत के केवल 13 दिन बाद यह प्लेन क्रैश हुआ था। जिसमें डॉ. होमी बाबा की भी मौत हुई। किसी को भी यह सिर्फ एक संयोग नहीं लग रहा था। प्राइम मिनिस्टर लाल बहादुर शास्त्री की मौत के पीछे भी किसी बड़ी साजिश के होने की बात उभर कर आ रही थी। केवल 1 महीने पहले ही लाल बहादुर शास्त्री ने होमी भाबा को न्यूक्लियर बॉम्ब के डेवलपमेंट में तेजी लाने को कहा था और ऐसे में केवल 13 दिनों के भीतर ही दोनों की मौत ने संदेह को और गहरा दिया था। क्या कोई ऐसी विदेशी ताकत थी जो भारत को न्यूक्लियर पावर नहीं बनने देना चाहती थी। इस बीच फ्रांस पब्लिक ब्रॉडकास्टर यानी ओआरटीएफ के एडिटर फिलिप रियाल भी कंचनजंगा क्रैश को लेकर अपनी गवर्नमेंट की बात पर यकीन नहीं कर पा रहे थे। उन्हें बार-बार यही लगता कि उनकी गवर्नमेंट इस एक्सीडेंट से जुड़ा कोई बड़ा सच छुपा रही है। यही बेचैनी उन्हें चैन से बैठने नहीं दे रही थी। आखिरकार उन्होंने रिस्क उठाते हुए अपने कैमरा क्रू को इटालियन साइट से मॉन ब्लांक की ओर इन्वेस्टिगेशन के लिए भेजा। 

इसके बाद 1843 मैगजीीन में इस इन्वेस्टिगेशन से जुड़ी एक रिपोर्ट पब्लिश की गई जिसमें बताया गया कि फिलिप रियाल की टीम को वहां प्लेन का एक टुकड़ा मिला था जिस पर 1 जून 1960 लिखा था। लेकिन हैरान करने वाली बात यह थी कि कंचनजंगा साल 1961 में सर्विस में आया था। इसके अलावा उन्हें वहां पीले रंग के प्लेन का सामने के हिस्से का एक टुकड़ा भी मिला और वह भी क्रैश हुए कंचनजंगा के कलर से मेल नहीं खाता था। ऐसे में फ्रेंच गवर्नमेंट की रिपोर्ट का झूठा होने का शक और गहरा गया। इससे फ्रांस की सरकार पर जांच अच्छे से ना करने और इस प्लेन एक्सीडेंट से जुड़े सच को दबाने के आरोप लगने लगे।

इसके बाद ओआरटीएफ ने अपनी एक और टीम को प्लेन के ब्लैक बॉक्स की तलाश में मॉन ब्लॉक भेजा। लेकिन जैसे ही इसकी खबर फ्रांस के इंटीरियर मिनिस्टर तक पहुंची, उन्होंने तुरंत ओआरटीएफ के हेड को फोन करके आदेश दिया कि उनकी टीम तुरंत मॉन ब्लॉक से वापस लौट आए। सरकार के दबाव के बाद टीम को नीचे आना पड़ा। लेकिन जैसे ही जांच टीम पहाड़ से नीचे उतरी उसके एक मेंबर ने चुप्पी तोड़ दी। उसने खुलकर कहा कि एयर इंडिया की फ्लाइट पहाड़ी से नहीं बल्कि एक दूसरे विमान से टकराने के बाद क्रैश हुई थी। उसके हिसाब से यह दूसरा विमान वही था जिसका मलबा उनको वहां मिला था। इस बयान ने सबको हिला कर रख दिया। संदेह तब और बढ़ गया जब उनकी खोज में मिली चीजों को फ्रांस सरकार ने तुरंत अपने कब्जे में ले लिया और किसी को भी इसकी जानकारी नहीं दी। 

ओआरटीएफ की जांच के बाद भले ही होमी भाबा की मौत से जुड़ी अलग-अलग थ्योरीज पर चर्चा होती रही लेकिन उनमें से कोई भी इतनी मजबूत नहीं थी कि बड़ी हेडलाइंस बना सके। लेकिन करीब चार दशक बाद साल 2008 में एक किताब कॉन्वर्सेशंस विद द क्रो पब्लिश हुई और इसमें होमी बाबा की मौत से जुड़े ऐसे दावे किए गए जिसने सबके होश उड़ा दिए और शक की सुई अमेरिका की ओर घूम गई। यह बुक सीआईए के पूर्व अधिकारी रॉबर्ट क्राउली और फेमस जर्नलिस्ट ग्रेगरी डग्लस के बीच हुई बातचीत का एक कलेक्शन थी। सीआईए में क्राउली को क्रो के नाम से जाना जाता था और उन्होंने अपना पूरा करियर वहां के डायरेक्टेट ऑफ प्लांस ने बिताया था जिसे डिपार्टमेंट ऑफ डर्टी ट्रिक्स भी कहा जाता है। क्रोली और डगलस के बीच गहरे संबंध थे। इसी वजह से क्रौली ने उनसे कई सीक्रेट इशूज़ पर खुलकर बातें की थी। इतना ही नहीं उन्होंने डगलस को सीक्रेट डॉक्यूमेंट से भरे दो बक्से भी सौंपे और निर्देश दिया कि इनका खुलासा केवल उनकी मौत के बाद ही किया जाए। यही वजह थी कि ग्रेगरी डगलस ने रॉबर्ट क्राउली की मौत के 8 साल बाद इस किताब को पब्लिश किया। इस किताब में 5 जुलाई 1996 को ग्रेगरी डगलस और रॉबर्ट क्राउली के बीच हुई एक टेलीफोनिक कॉन्वर्सेशन भी दर्ज है।

जिसमें क्राउली ने कहा 1960 में अमेरिका और भारत के रिश्ते अच्छे नहीं थे। उस समय इंडिया अपने परमाणु बम पर काम करना शुरू कर चुका था। भारत यह दिखाने की कोशिश कर रहा था कि वह कितना चालाक है और जल्दी ही दुनिया की एक बड़ी ताकत बनने जा रहा है। क्राउली ने आगे बताया कि भारत सोवियत यूनियन के और करीब आता जा रहा था और इस पूरी पहल के पीछे होमी भाबा का दिमाग था। उनके पास ना सिर्फ परमाणु बम बनाने की पूरी क्षमता थी बल्कि उन्होंने साफ कर दिया था कि दुनिया की कोई भी ताकत उन्हें और भारत को न्यूक्लियर पावर देशों की बराबरी करने से नहीं रोक सकती। कााउली के मुताबिक सोवियत से भारत की बढ़ती नजदीकी और होमी भाबा के नेतृत्व में देश के परमाणु शक्ति बनने की संभावना ने अमेरिका को चिंतित कर दिया था। इसलिए सीआईए ने होमी भाबा की मौत की साजिश रची और उन्हें मारने के लिए एयर इंडिया की फ्लाइट 1001 जिसमें होमी भाबा सवार थे उसके कारगो होल्ड में बम लगा दिया। इसी कन्वर्सेशन में क्राउली ने यह भी दावा किया कि लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में हुई रहस्यमई मौत के पीछे भी सीआईए का हाथ था। क्राउली के इस दावे में इसलिए भी वजन था क्योंकि पास्ट में सीआईए कई देशों के इंपॉर्टेंट पर्सनालिटीज की जान ले चुकी थी। बाबा की मौत से कुछ साल पहले सीआईए ने इटली के एक तेल व्यापारी एंड्रिको मैटाई को सिर्फ इसलिए मरवा दिया था क्योंकि उसने अपने पैसों से इटली के पहले न्यूक्लियर रिएक्टर का काम शुरू करवाया था। 

इसलिए होमी बाबा की मौत की साजिश रचने में अमेरिका के हाथ होने के दावे में लोगों को सच्चाई नजर आई और इस पर काफी बातें होने लगी। लेकिन उस समय तक रॉबर्ट क्राउली की मौत हो चुकी थी। इसलिए धीरे-धीरे यह मामला दबने लगा। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। इस कहानी में नया मोड़ तब आया जब हादसे के लगभग 50 साल बाद 2017 में फ्रांस के मशहूर बिजनेसमैन और स्पोर्ट्समैन डेनियल रोश एयर क्रशेस की जांच में अपनी गहरी दिलचस्पी के चलते एल्प्स की बर्फीली पहाड़ियों में जा पहुंचे। रॉश ने अपनी टीम के साथ गहन खोजबीन की और जल्द ही उन्होंने वहां से कुछ सीट बेल्ट, कॉकपेट का एक हिस्सा और एक फ्लेयर पिस्टल, एक कैमरा और डॉक्यूमेंट से भरा एक बैग खोज निकाला। 

उन्होंने जब खोजबीन का दायरा बढ़ाया तो उन्हें दुर्घटना स्थल के 25 कि.मी. के दायरे में कुछ मलबे के साथ-साथ कंचनजंगा का इंजन भी मिल गया। डेनियल रश के मुताबिक कंचनजंगा किसी दूसरे विमान से टकराने की वजह से क्रैश हुआ था जो आरटीएफ के एडिटर फिलिप रियाल की थ्योरी से मैच करती थी। इस दौरान रश ने फ्रांस के अधिकारियों पर उनकी जांच को बार-बार रोकने का आरोप भी लगाया था। भले ही होमी भाबा की मौत से जुड़ी अलग-अलग थ्योरीज दी जाती रही है लेकिन उनकी डेथ एक ऐसा अनसुलझा राज है जो आज भी लोगों के मन में रह-रह कर कई तरह के सवाल पैदा करता है। होमी भाबा की मौत के बाद भारत सरकार ने एटॉमिक रिसर्च सेंटर का नाम बदलकर उनके सम्मान में भाबा एटॉमिक रिसर्च सेंटर बीएआरसी कर दिया। उनके बाद एटॉमिक एनर्जी कमीशन के अध्यक्ष पद को उनके सबसे करीबी दोस्त और महान वैज्ञानिक विक्रम साराभाई ने संभाला और देश के दो और प्रतिष्ठित न्यूक्लियर साइंटिस्ट राजा रमन्ना और होमी सेठना के साथ मिलकर भारत के परमाणु कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। इसका नतीजा यह हुआ कि भारत 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा के तहत न्यूक्लियर टेस्ट करने में सफल रहा। और इस तरह से होमी भाबा का वो सपना भी साकार हुआ जिसका वादा उन्होंने 1964 में किया था। 

आज भाबा के फ्यूचरिस्टिक विज़न की वजह से भारत न्यूक्लियर एनर्जी एंड न्यूक्लियर वेपंस के मामले में बेहद मजबूत स्थिति में है। अगर उन्होंने आजादी के तुरंत बाद प्राइम मिनिस्टर जवाहरलाल नेहरू को इसकी जरूरत के बारे में नहीं बताया होता तो शायद आज भी हम न्यूक्लियर फील्ड में स्ट्रगल कर रहे होते। आज भारत के पास 180 न्यूक्लियर वेपन्स मौजूद है जो भारत की सुरक्षा को ना केवल मजबूत बनाते हैं बल्कि दुश्मनों को भारत की तरफ आंख उठाने से पहले 100 बार सोचने पर मजबूर भी करते हैं।
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    Untold story of Homi Bhabha: The Genius Who Made India’s Nuclear Dream Possible

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