इस वॉर कैंप की सुरक्षा बहुत ही ज्यादा टाइट थी। चारों तरफ ऊंची दीवारें थी। उन पर कांटेदार तार थे और हर मोड़ पर बंदूक थामे पाकिस्तानी सिपाही तैनात थे। जिन सेल्स में इंडियन पायलट्स को कैद किया गया था, उनमें लोहे की मोटी-मोटी सलाखें थी, जिन पर भारीभरकम ताले चढ़े थे। हर कोने पर नजर थी और हर कदम पर बंदिश।
दुश्मन की जमीन पर इतने कड़े बंदोबस्त के बीच जेल से भागने का ख्याल भी मौत को न्योता देने जैसा था। लेकिन भारत के तीन जांबाज पायलट्स, फ्लाइट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर, फ्लाइट लूटिनेंट एमएस ग्रेवाल और फ्लाइंग ऑफिसर हरीश सिंह जी पाकिस्तान की इस जेल को तोड़कर वापस अपने वतन की मिट्टी को चूमने के लिए अपनी जान तक दांव पर लगाने को तैयार थे। तीनों के पास ना तो कोई हथियार था, ना सही नक्शा और ना बाहर से कोई मदद।
लेकिन फिर भी अपनी जान को जोखिम में डालकर यह तीनों कई महीनों से जेल की अंधेरी दीवारों के बीच भागने के एक ऐसे प्लान पर काम कर रहे थे, जो पाकिस्तान के इंटेलिजेंस सिस्टम की नींवह हिला देने वाला था। 13 अगस्त 1972 की रात जब बारिश तेज हो चुकी थी और अंधेरा घना था। तभी तीनों भारतीय पायलट्स पाकिस्तान की उस सुरक्षित जेल की 18 इंच मोटी दीवार को तोड़कर पाकिस्तानी सिपाहियों की नाक के नीचे से फरार हो जाते हैं। पीछे छूटता है तो सिर्फ दीवार में एक बड़ा सा सुराख जो पाकिस्तान की सुरक्षा पर एक करारा तमाचा था। यह कोई फिल्मी कहानी नहीं बल्कि यह एक सच्ची दास्तान है।
भारत के उन तीन वीर पायलट्स की जिनकी हिम्मत के आगे पाकिस्तान की जेल भी ढह गई। आइए जानते हैं कि कैसे भारत के ये शेर पाकिस्तान की हाई सिक्योरिटी जेल से भागने में कामयाब हुए और आखिर जेल से भागने के बाद क्या वो वापस भारत की सरजमीन पर लौट पाए या नहीं।
3 दिसंबर 1971 को जैसे ही पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया दोनों देशों के बीच एक नया युद्ध शुरू हो गया। युद्ध हर गुजरते दिन के साथ भयंकर होता जा रहा था। दोनों तरफ से जमीनी और हवाई लड़ाई लड़ी जा रही थी। भारत हर मोर्चे पर पाकिस्तान को पछाड़ रहा था। लेकिन इस बीच हवाई लड़ाई में लाहौर के ईस्ट में मौजूद जफरवाल शहर के एक वॉच टावर से भारतीय वायुसेना को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया जा रहा था। ऐसे में इस टावर को तबाह करने की जिम्मेदारी आदमपुर बेस के 26 क्वाड्रन के फाइटर्स को सौंपी जाती है।
10 दिसंबर की सुबह फ्लाइट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर सुखोई सेवन जेट फाइटर में बैठकर मिशन के लिए उड़ान भरते हैं। उनका निशाना यही वॉच टावर था। लेकिन इससे पहले कि वो अपने मिशन को अंजाम दे पाते। जफरवाल के ऊपर उड़ते वक्त एक एंटी एयरक्राफ्ट गन का गोला उनके जेट से टकराता है और जहाज आग की लपटों में गिरकर जमीन की ओर गिरने लगता है। अब पारुलकर के पास बस एक ही रास्ता था पैराशूट खोलकर किसी भी तरह जान बचाना। उन्होंने ठीक वही किया और पैराशूट की मदद से घायल अवस्था में नीचे उतर आए लेकिन जहां वह उतरे थे वो दुश्मन की जमीन थी।
पारुलकर नीचे गिरने पर पहले ही बहुत चोटिल हो गए थे और तभी उन्हें अल्लाहू अकबर के नारे लगाती हुई पाकिस्तान के लोगों की भीड़ अपनी तरफ दौड़ती हुई दिखाई दी। भीड़ उन पर टूट पड़ी। किसी ने उनकी वर्दी फाड़ दी। किसी ने उनका सामान चुरा लिया। लोगों ने उन्हें इतना मारा कि पारुलकर बेहोश हो गए। युद्ध के ऐसे समय में पाकिस्तान की आम जनता के दिल में भी भारत के लिए इतना गुस्सा था कि अगर पाकिस्तानी अफसर वहां ना पहुंचते तो शायद भीड़ फ्लाइट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर की जान ले लेती। पाकिस्तानी सिपाहियों ने भीड़ को हटाते हुए कहा, "यह हमारे लिए जिंदा ज्यादा काम का है। इससे हमें जरूरी जानकारी मिल सकती है।
इसके बाद सिपाही उन्हें अपने साथ ले गए। पारुलकर को जब होश आया, तब वो रावलपिंडी में पाकिस्तानी वायुसेना के बेस कैंप में एक अंधेरी कोठरी में बंद थे। उनके सामने एक पाकिस्तानी अफसर था और एक गार्ड राइफल लिए साइड में खड़ा था। सामने बैठे पाकिस्तानी अफसर ने पारुलकर के होश में आते ही एक कागज उनकी तरफ बढ़ा दिया और कहा, "आदमपुर एयरफील्ड का स्केच बनाओ।" आदमपुर एयरफील्ड भारतीय वायुसेना के लिए एक अहम एयरफील्ड है और पाकिस्तान की कोशिश थी कि उस एयरबेस की एकदम सही लोकेशन जानकर उसे पूरी तरह तबाह कर दिया जाए।
लेकिन दिलीप पारुलकर दुश्मन की कैद में होने के बाद भी डरे नहीं। पहले तो उन्होंने स्केच बनाने से मना कर दिया लेकिन जब पाकिस्तानी अफसर ने बहुत जोर डाला तो उन्होंने उसे गुमराह करने के लिए आदमपुर एयरफील्ड की जगह मुंबई के साक्र क्रूज एयरपोर्ट का स्केच बना दिया। पाकिस्तानी अफसर को लगा कि उसका मकसद पूरा हो गया है और वह चेहरे पर एक मुस्कुराहट लिए उस कैच को लेकर कोठरी से बाहर आ गया।
लेकिन 10-15 मिनट बाद वो पाकिस्तानी अफसर फिर से वापस कोठरी में आया और दिलीप पारुलकर पर गुस्से से बरस पड़ा। वो समझ चुका था कि पारुलकर ने उसे गलत जगह का नक्शा दिया है। उसने चिल्लाते हुए पारुलकर से कहा, क्या तुम हमें बेवकूफ समझते हो? अगर हम चाहे तो तुम्हें अभी मार सकते हैं। जाओ आज पूरी रात उसे कोने में खड़े रहो। आज तुम्हें खाना पानी कुछ नहीं मिलेगा। फिर उसने वहां मौजूद गार्ड से कहा कि अगर यह हिले तो इसे तुरंत गोली मार देना। काफी देर तक पारुलकर एक ही जगह खड़े रहे। दर्द के मारे उनके पैरों में कपकपी छा गई थी। जैसे ही उन्होंने थोड़ी राहत पाने के लिए घुटनों को मोड़ा, गार्ड ने तुरंत अपनी राइफल लोड कर ली।
पारुलकर ने उसी दर्द में वापस खुद को सीधा कर लिया। कुछ मिनट गुजरने के बाद पारुलकर के दर्द को देख उस पाकिस्तानी गार्ड का भी दिल पिघल गया और उसने कहा, "साहब आप बैठ जाइए।" अगर कोई आएगा तो मैं खास दूंगा। फिर आप खड़े हो जाना। कुछ इस तरह से दिलीप पारुलकर की पहली रात पाकिस्तान की जेल में गुजरी। अगले कुछ दिन उन्हें इसी तरह एक बंद अंधेरी कोठरी में बिल्कुल अकेला रखा गया। उन्हें पाकिस्तानी अफसरों ने मेंटली काफी टॉर्चर किया। उन्हें कभी खाना नहीं दिया गया तो कभी पानी। बार-बार उनसे एक ही तरह के सवाल पूछे जाते। उन पर मानसिक दबाव बनाया जाता ताकि वह टूट जाए और पाकिस्तान को भारतीय वायुसेना की खुफ़िया जानकारियां दे दे।
लेकिन जब किसी तरह से भी दिलीप पारुलकर का हौसला नहीं डगमगाया तो कुछ दिनों बाद पारुलकर को उनके साथियों से मिलने दिया गया। इस प्रिजनर ऑफ वॉर पीओब्ल्यू कैंप में भारतीय वायुसेना के कुल 12 पायलट युद्धबंदी बनाए गए थे। जब पारुलकर अपने साथियों से मिले तो उन्हें भी अपने साथियों से सुनने को मिला कि किस तरह उन्हें मेंटल टॉर्चर दिया गया था। इन्हीं में से एक स्क्वाड्रन लीडर धीरेंद्र जाफा थे जो पैराशूट से लैंड करते टाइम इतने चोटिल हुए थे कि उनकी कमर में प्लास्टर लगाना पड़ा। उन्हें भी कई दिन तक जेल की कोठरी में बंद करके रखा गया और उनसे रोज सवाल जवाब पूछे जाते। जब उन्हें टॉयलेट जाना होता तो उनके मुंह पर पिलो केस लगा दिया जाता ताकि वह इधर-उधर देखकर जेल का नक्शा ना जान ले।
उनके अलावा एक फ्लाइट लूटिनेंट एमएस ग्रेवाल थे जिन्हें चाय बहुत पसंद थी। लेकिन पाकिस्तानी अफसर उन्हें साइकोलॉजिकल टॉर्चर देने के लिए पूछते गैरी क्या चाय पियोगे? वो हां कह देते लेकिन वो चाय उन्हें कभी नहीं मिलती। उस युद्धबंदी कैंप में केवल कैंप के इंचार्ज उस्मान हमीद एक ऐसे पाकिस्तानी ऑफिसर थे जो भारतीय पायलट्स के साथ इज्जत से पेश आते थे। उनसे बाकी पाक अफसर नाराज रहते थे क्योंकि उनका बर्ताव युद्धबंदियों के प्रति काफी नरम था।
उन्होंने इंडियन प्रिजनर ऑफ वॉर्स को गाने सुनने के लिए एक कैसेट प्लेयर और साथ ही दिलीप पारुलकर की रिक्वेस्ट पर उन्हें एक एटलस भी दिया जो आगे चलकर तीनों इंडियन पायलट्स के भागने के प्लान में बेहद काम आया। कैंप इंचार्ज उस्मान हमीद ने 25 दिसंबर 1971 को क्रिसमस के मौके पर सभी युद्ध बंदियों को एक छोटी सी चाय केक पार्टी में भी शामिल किया। यहां पारुलकर और उनके साथियों को पहली बार पता चला कि ढाका में पाकिस्तानी फौज ने सरेंडर कर दिया है और भारत जंग जीत चुका है। इस खबर से भारतीय वायु सैनिकों में खुशी की लहर दौड़ गई। हंसी-खुशी के बीच वहां मौजूद सबसे सीनियर भारतीय अफसर विंग कमांडर बनी कोहेलो ने कैंप के इंचार्ज उस्मान से कहा कि हम लोग मारे गए अपने साथियों के लिए 2 मिनट का मौन रखना चाहते हैं और फिर अपना राष्ट्रगान गाना चाहते हैं। उस्मान ने उन्हें इसकी भी इजाजत दे दी।
25 दिसंबर 1971 की उस शाम पाकिस्तानी जेल में जब भारत का राष्ट्रगान गूंजा तो सभी भारतीयों के सीने गर्व से चौड़े हो गए। सबके दिल में भारत की जीत की खुशी थी और उन्हें यह भी उम्मीद थी कि चूंकि पाकिस्तान के 93,000 सैनिक भारत में युद्ध बंदी है इसलिए भारत सरकार आसानी से बहुत जल्द अपने सभी युद्ध बंदियों को छुड़ा लेगी लेकिन फ्लैट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर ऐसा नहीं सोचते थे। उनको पता था कि भारत भले ही जंग जीत गया है लेकिन युद्ध बंदियों की अदला बदली अभी बहुत दूर है। इस काम में कई साल का वक्त लग सकता था और इस बीच अगर भारत और पाकिस्तान के बीच फिर से तनाव की सिचुएशन बनी तो उनका रिहा होना और भी मुश्किल हो जाएगा।
इसलिए पारुलकर का मानना था कि जेल में हाथ पर हाथ रखकर बैठने से बेहतर जेल को तोड़कर अपने वतन भाग निकलना है। यह एक युद्धबंदी का कर्तव्य भी होता है। जब दुश्मन देश द्वारा किसी सैनिक को पकड़ लिया जाता है तो उसका पहला कर्तव्य यही है कि वह वहां से भागने की कोशिश करें। दिलीप पारुलकर ने तो दो-ती साल पहले अपने एक बड़े अधिकारी से कहा भी था कि पाकिस्तान में उड़ान भरते समय अगर कभी उनका विमान गिरा दिया जाता है और वह पकड़ लिए जाते हैं तो वह जेल में नहीं बैठे रहेंगे। बल्कि वह अपनी जान की बाजी लगाकर वहां से भागने की कोशिश करेंगे। इसके बाद उन्होंने अपने सभी साथियों से भागने के प्लान के बारे में बात की।
लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ। उल्टा सब ने उनको ही समझाया कि जल्द ही भारत सरकार प्रिजनर्स ऑफ वॉर को एक्सचेंज करेगी और वह सब सुरक्षित वापस अपने वतन लौट जाएंगे। ऐसे में भागकर अपनी जान को जोखिम में नहीं डालना चाहिए। लेकिन दिलीप पारुलकर उस दिन के इंतजार में बैठे नहीं रहना चाहते थे। उन्होंने मन ही मन जेल से भागने के कई प्लान बनाए। जब रात में वह कस्टडी में रहते हुए टॉयलेट करने जाते थे तो उनके पीछे एक पाकिस्तानी सिपाही रिवाल्वर लेकर चलता था। पारुलकर का प्लान था कि उस सिपाही से रिवाल्वर छीनकर उसको ढाल बनाकर वहां से भाग निकले। लेकिन इस प्लान के सफल होने की संभावना बेहद कम थी। पाकिस्तानी उन्हें रोकने के लिए अपने सिपाही की जान को भी दांव पर लगा सकते थे। इसलिए उन्होंने इस प्लान को ड्रॉप कर दिया। जब कई हफ्ते और फिर महीने बीत गए और युद्ध बंदियों के भविष्य का कोई फैसला नहीं हो सका तो सभी भारतीय पायलट्स निराश होने लगे।
उन्हें लगने लगा कि जंग जीतने के बाद भी भारत सरकार अपने सैनिकों को छुड़ाने के लिए कुछ नहीं कर रही है। ऐसे में एक बार फिर दिलीप पारुलकर ने अपने साथियों से भागने के प्लान के बारे में पूछा। इस बार उन्हें दो लोगों का साथ मिल गया। फ्लाइट लूटिनेंट एमएस ग्रेवाल और फ्लाइंग ऑफिसर हरीश सिंह जी पारुलकर के साथ भागने को तैयार हो जाते हैं। तीनों ही काफी यंग थे और तीनों की ही तब तक शादी नहीं हुई थी। इसलिए वह यह रिस्क लेने को तैयार थे। पाकिस्तानी जेल की चार दीवारी के भीतर जहां हर कोना निगरानी में था और सभी कैदियों की हर एक गतिविधि पर शक की नजर रखी जाती थी। उसी माहौल में ये तीनों जांबाज हिंदुस्तानी अपनी आजादी का नक्शा बनाने में जुट जाते हैं।
तीनों ने सबसे पहले उस्मान हमीद के दिए एटलस से इलाके का नक्शा तैयार किया। उन्हें पता चला कि जेल के पास से ही ग्रैंड ट्रंक रोड गुजरती थी। लेकिन वहां तक पहुंचने के लिए जेल की सेल से निकल कर एक संकरी गली तक पहुंचना था। संकरी गली को पार करके बाउंड्री वॉल को फांद कर मेन रोड तक पहुंचा जा सकता था। इंडोपाक बॉर्डर की तरफ से इंडिया जाने में खतरा था क्योंकि वहां का रास्ता बारूदी सुरंगों और दुश्मन फौजों से भरा था। इसलिए जेल से निकलने के बाद आगे का प्लान पाकिस्तान अफगानिस्तान बॉर्डर तक पहुंचने का बना। अगर तीनों किसी तरह अफगानिस्तान में एंटर होने में सफल हो जाते तो वहां से आसानी से भारत पहुंच सकते थे।
इस तरह तीनों ने बड़ी ही सूझबूझ से द ग्रेट एस्केप प्लान तैयार कर लिया था। लेकिन इस प्लान में सबसे पहला काम एक ऐसी सेल तलाशना था जो कंपाउंड की बाउंड्री के नजदीक हो जहां से भागने का रास्ता मिले और वहां गार्ड्स का पहरा कम हो। सेल नंबर फोर इस क्राइटेरिया पर बिल्कुल फिट बैठती थी। अब अगला काम था इन तीनों का उस सेल में शिफ्ट होना। लेकिन जेल में सेल बदलना कोई फॉर्म भरने जितना आसान नहीं होता। इसके लिए गार्ड्स और स्टाफ से दोस्ती करना जरूरी था। पारुलकर ने अपनी चाम का फायदा उठाया और जल्दी ही गार्ड से ट्यूनिंग बना ली। अच्छे व्यवहार और थोड़ी सी टिप के चलते पारुलकर अपने दोनों साथियों एमएस ग्रेवाल और हरीश सिंह जी के साथ उस सेल में शिफ्ट हो गए। सेल नंबर फोर बड़ा था इसलिए उनके साथ एक और हिंदुस्तानी पायलट विद्याधर शंकर छाटी को भी शिफ्ट कर दिया गया।
चाटी भागने के इस मिशन में शामिल नहीं थे। लेकिन फिर भी उन्होंने अपने साथियों की हर मुमकिन मदद की। प्लान का अगला हिस्सा सेल नंबर फोर की 18 इंच मोटी दीवार में एक बड़ा सुराख करने का था। जिसके जरिए बाहर निकला जा सके। लेकिन यह काम आसान नहीं था। उनके पास ना कोई औजार था और ना ही कोई भारी मदद। इसके लिए भी उन्होंने अपनी होशियारी का इस्तेमाल किया। पारुलकर और उनके साथियों ने कुछ दिनों तक अपनी दाढ़ी बढ़ने दी और फिर कैंप इंचार्ज से दाढ़ी काटने के बहाने एक कैंची मांग ली। इस कैंची और एक चोरी के स्क्रू ड्राइवर की मदद से उन्होंने दीवार के एक कोने में छेद करना शुरू किया।
पारुलकर और ग्रेवाल रात 12:00 से 1:00 बजे तक आहिस्ता-आहिस्ता बारी-बारी से दीवार के मसाले को कैंची और स्क्रूड्राइवर से हटाते जाते। जबकि हरीश और छाटी निगरानी रखते कि कहीं कोई पहरेदार तो नहीं आ रहा है। इस बीच रेडियो ट्रांजिस्टर के वॉल्यूम को बढ़ा दिया जाता ताकि दीवार खुरचने की आवाज दब जाए। दीवार के इस होल को छुपाने के लिए वहां बिस्तर को लगा दिया गया ताकि होल बिस्तर के नीचे छिप जाए। खुरचे गए मसाले और प्लास्टर को रेड क्रॉस के खाली डिब्बों में भरकर छुपा दिया गया। दीवार में छेद करने के साथ-साथ तीनों भागने के लिए सामान भी इकट्ठा कर रहे थे।
जवा कन्वेंशन के तहत हर युद्धबंदी को हर महीने ₹57 मिलते थे। इन्हीं पैसों से पारुलकर, ग्रेबाल और हरीश ने धीरे-धीरे ड्राई फ्रूट्स, कंडेंस्ड मिल्क के डिब्बे और जरूरी सर्वाइवल सामान जमा करना शुरू किया। उन्हें पता था जेल से निकलते ही उनके सामने खुला रास्ता नहीं बल्कि कई दिनों की थकाने वाली यात्रा होगी। इसलिए खाने-पीने के जरूरी सामान जमा किए गए और उन्हें रखने के लिए उन्होंने फटे हुए पैराशूट का कपड़ा इस्तेमाल कर एक बैग बना लिया। उन्हें सही दिशा जानने के लिए कंपास की भी जरूरत थी। इसलिए उन्होंने जुगाड़ लगाकर ट्रांजिस्टर की बैटरी से कपड़े सिलने वाली सुई को मैग्नेटाइज किया और फिर उन सुइयों को बड़ी चतुराई से एक पेन के खोखले हिस्से में छुपा दिया।
इन पायलट्स की काबिलियत का ही कमाल था कि एक मामूली सा पेन जिसे बिना किसी शक के जेब में लगाकर घूमा जा सकता था। असल में वह अब एक काम चलाऊ कंपास बन चुका था। जब यह सब इंतजाम हो गया तो तीनों ने अपने लिए पठानी सूट सिलवाने का फैसला किया ताकि जेल से भागने के बाद लोकल लोगों में घुला मिला जा सके। इसी दौरान पारुलकर के घर से उनके लिए एक पार्सल आया था। जिनमें तीन जोड़ी शर्ट और पैंट थे। पारुलकर ने जेल में ही एक दर्जी को कुछ पैसे देकर उन कपड़ों से तीन पठानी सूट सिलवा दिए। इस बीच दीवार में सुराख करने का काम भी लगातार जारी था।
चारों बारी-बारी से इस काम को बड़ी सावधानी से करने में लगे हुए थे। उनके इस काम की कानों कान किसी को भनक तक नहीं लगी। नोटिस ना किए जाने के मकसद से वह दीवार के प्लास्टर को रात में ही हटाते थे। लेकिन रात में उनके सेल में लगा एक बल्ब उनके लिए दिक्कत खड़ी कर रहा था। बल्ब की रोशनी में बाहर से देखे जाने का खतरा था। इसलिए उन्होंने उस बल्ब का फ्यूज उड़ा दिया। जेल में बल्ब बदलने के लिए भी एक लंबा प्रोसेस होता था। इसलिए कई दिनों तक यह अंधेरे का फायदा उठाकर अपने काम में लगे रहे। कई दिनों तक काम बिना किसी रुकावट के चलता रहा। लेकिन एक रात जब एमएस ग्रेवाल बेड के नीचे दीवार को खुरचने में लगे हुए थे। तभी अचानक एक गार्ड सेल के दरवाजे पर खड़े होकर अंदर झांकने लगा। बल्ब की रोशनी ना होने के बावजूद उसने देख लिया था कि सेल में चार की जगह केवल तीन लोग हैं। उसने आवाज लगाई, लेकिन बेड पर मौजूद तीनों पायलट सोने का नाटक करने लगे और ग्रेवाल ने भी सतर्क होकर बेड के नीचे काम रोक दिया। गार्ड को कुछ गड़बड़ी का एहसास हुआ और वह सीधा गार्ड रूम की तरफ भागा।
चंद सेकंड्स के बाद वह दौड़कर अपने साथ सलाखों की चाबी और इंचार्ज गार्ड को लेकर लौटा। इंचार्ज गार्ड ने ताला खोलकर जब अंदर टॉर्च मारी तो बेड पर चारों पायलट्स मौजूद थे। गार्ड के चाबी लेने जाने और वापस आने के बीच ही ग्रेवाल बड़ी तेजी से बेड के नीचे से निकल कर ऊपर आ चुके थे और बाकियों की तरह सोने का नाटक करने लगे थे। चारों को सेल में देखकर इंचार्ज गार्ड ने पहरा देने वाले गार्ड को ही डांट लगा दी और इस तरह वो लोग पकड़े जाने से बाल-बाल बच गए।
कई हफ्तों तक लगातार 18 इंची मोटी दीवार को तोड़ने की कोशिश में वो उसकी काफी ईंटें निकाल चुके थे। ईंटों से मसाला छुड़ाकर उन्हें फिर से लगा दिया जाता ताकि गार्ड्स को शक ना हो। अगली रात फिर से उन ईंटों को निकालकर आगे की ईंटों और मसाले को निकाला जाता। इस तरह हर रात काम करने से दीवार में एक छोटा सुराग हो गया था। लेकिन यह सुराख बाहर निकलने के लिए काफी नहीं था और जब तक बाहर निकलने लायक होल नहीं हो जाता तब तक उसे छुपाना भी जरूरी था। इसलिए दिलीप पारुलकर ने एक कपड़ा उस सुराख में ठूस दिया ताकि अंदर का हिस्सा ना दिखे। अगली रात जब पारुलकर फिर से काम पर लगे और उन्होंने जैसे ही ईंटें हटाकर पीछे के प्लास्टर को खरोचना शुरू किया तभी अचानक किसी ने बाहर से उस छोटे सुराख में लगा वह कपड़ा खींच लिया। पारुलकर की सांस अटक गई। वह तुरंत बेड के नीचे से निकले और अपने साथियों को बताया कि किसी ने बाहर से कपड़ा खींच लिया है। अब चारों की हालत खराब थी। उन्हें डर था कि उनका प्लान अब चौपट हो चुका है और किसी भी पल पाकिस्तानी अफसर उनकी सेल में आने वाले होंगे।
लेकिन जब काफी देर तक कोई नहीं आया तो पारुलकर फिर से बिस्तर के नीचे दीवार के सुराग के पास गए। उन्होंने देखा कि सामने बाहर की तरफ बिल्ली खड़ी थी जिसके मुंह में वह कपड़ा था। यह देखकर उनकी जान में जान आई कि कपड़ा किसी सिपाही ने नहीं बल्कि बिल्ली ने खींचा था। कई महीने की मेहनत के बाद तीनों के भागने का सारा इंतजाम हो चुका था। दीवार में से निकलने का एक बड़ा सा सुराग भी किया जा चुका था। उन्होंने उस सुराख को भागने वाले दिन के लिए बिना मसाले की ईंटों से ढक दिया था। भागते वक्त उन ईटों को बड़ी आसानी से निकाला जा सकता था। नक्शे तैयार थे, कपड़े सिलवाए जा चुके थे, रास्ता रटा जा चुका था और छोटी से छोटी चीज की प्लानिंग भी पूरी हो चुकी थी। अब बस सही मौके का इंतजार था।
यह सही मौका 13 अगस्त 1972 की रात को आता है। एक दिन बाद 14 अगस्त को पाकिस्तान का इंडिपेंडेंस डे था। पारुलकर को यकीन था कि उस दिन गार्ड्स ढीले रहेंगे और सतर्कता कम होगी। 13 अगस्त की रात को जब बिजली चमकी, आसमान में कड़कती आवाजें गूंजी और आंधी चलने लगी तो पारुलकर के हौसले और भी बढ़ गए। उन्हें एहसास हुआ कि ऐसे खराब मौसम में सिपाहियों की नजर से बचकर निकलना सबसे सही मौका होगा। प्लान के मुताबिक आधी रात को फ्लैट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर, फ्लाइंग ऑफिसर हरीश सिंह जी और फ्लैट लूटिनेंट एमएस ग्रेवाल ने पठानी सूट पहने अपनी एस्केप किट उठाई। अपने चौथे साथी विद्याधर शंकर छठी से गले मिलकर विदा ली और एक-एक करके तीनों दीवार के सुराग से रेंगते हुए बाहर निकल आए। बाहर निकलते ही धूल भरी आंधी के थपड़े उनके मुंह पर लगना शुरू हो गए।
वह आगे बढ़कर संकरी गली में पहुंच गए। जहां एक गार्ड चारपाई पर धूल से बचने के लिए मुंह पर कंबल डालकर बैठा हुआ था। तीनों संकरी गली से गुजरे। हवा का शोर इतना ज्यादा था कि उनके कदमों की आहट दब गई। कुछ ही पलों में वह जेल की बाहरी दीवार तक पहुंच गए। लेकिन तभी अचानक बारिश शुरू हो गई। बारिश की बूंदों से चौकीदार ने अपने मुंह के ऊपर से कंबल हटाया और चारपाई समेत वायु सेना के रोजगार दफ्तर के बरामदे की तरफ दौड़ लगा दी। इस बीच वह गार्ड उन तीनों को देख नहीं सका और तीनों एक बार फिर से बच गए। पल भर की झिझक के बाद उन्होंने तेज बारिश में दीवार को फांद दिया।
जैसे ही उनके पैर जेल से बाहर जमीन पर पड़े हरीश सिंह जी के मुंह से जोश में एक शब्द निकला आजादी। हालांकि आजादी अभी करीब 250 कि.मी. दूर थी। उन्हें पाकिस्तान-अफगानिस्तान बॉर्डर तक जाने के लिए सबसे पहले पेशावर पहुंचना था। भीगते हुए वह तेज कदमों से चलकर बस स्टेशन पहुंच गए। वहां से उन्होंने पेशावर के लिए बस पकड़ी और सुबह के करीब 6:00 बजे तक वह पेशावर पहुंच गए। आगे के रास्ते के लिए तीनों ने तय किया कि वह अपना नाम बदलेंगे और खुद को ईसाई बताएंगे। क्योंकि ना तो उन्हें कलमा पढ़ना आता था और ना ही उनमें से किसी का खतना हुआ था।
ऐसे में तलाशी और पूछताछ होने पर पकड़े जाने का खतरा था। दिलीप पारुलकर ने अपना नाम फिलिप पीटर रखा। एमएस ग्रेवाल ने अली अमीर और हरीश सिंह जी ने हेरल जेकब। पेशावर से उन्होंने जमरूद रोड जाने के लिए तांगा किया। तांगे से उतरने के बाद वह कुछ दूर पैदल चले और फिर उन्हें रास्ते में एक लोकल बस मिल गई। बस भरी हुई थी इसलिए आगे के सफर के लिए तीनों को बस की छत पर बैठना पड़ा। बस की छत पर बैठकर वह सुबह 9:30 बजे तक लंडी कोतल पहुंच गए। उन्हें जेल से भागे हुए अब 9 घंटे से भी ज्यादा हो गए थे और अफगानिस्तान में एंटर करने के लिए उन्हें अब तोरखम बॉर्डर क्रॉस करना था जो वहां से सिर्फ 5 किलोमीटर दूर था लेकिन
उन्हें तोरखम बॉर्डर तक का रास्ता नहीं पता था और अगर वो वहां का रास्ता किसी पाकिस्तानी से पूछते तो जरूर वो शक के दायरे में आ जाते। उन्होंने अपने मैप में देखा कि तोरखम बॉर्डर के पास एक लंडीखाना रेलवे स्टेशन है। उन्हें लंडी खाने से होते हुए अफगानिस्तान जाना सेफ लगा। इसलिए वह वहां एक चाय की दुकान पर पहुंचे और वहां काम करने वाले से पूछने लगे कि लंडी खाना यहां से कितनी दूर है? सवाल सुनते ही वहां बैठे लोग उन्हें ऐसे देखने लगे जैसे किसी ने उनसे किसी मुश्किल इंग्लिश वर्ड का स्पेलिंग पूछ लिया हो। किसी को नहीं पता था कि लंडीखाना क्या है और कहां है। असल में लंडीखाना नाम का रेलवे स्टेशन अंग्रेजों के टाइम में 1932 में ही बंद हो चुका था। वहां के बहुत से लोगों ने तो उसका नाम तक नहीं सुना था।
लेकिन तीनों भारतीय अफसरों को उस पुराने नक्शे की वजह से वही नाम रटा हुआ था और अब वही नाम उनकी पहचान का भांडा फोड़ने वाला था। जब वह लंडी खाना के बारे में पूछ रहे थे तभी वहां अचानक से एक शख्स आ जाता है। उसने सीधा सवाल तीनों पर दागा कौन हो तुम लोग? कहां से आ रहे हो और कहां जा रहे हो? पारुलकर ने आगे बढ़कर जवाब दिया। हम पाकिस्तान एयरफोर्स के अफसर हैं।
छुट्टियों पर है और लंडीखाना घूमने जा रहे हैं। बदकिस्मती से वह आदमी तहसीलदार का क्लर्क था। उसे यह जवाब सुनकर उन तीनों पर और भी ज्यादा शक हो गया। उसने ताव में आकर कहा, यहां तो इस नाम की कोई जगह ही नहीं है। 1971 में जब से इंडोपाक वॉर हुआ था और जब से ईस्ट पाकिस्तान वेस्ट पाकिस्तान से आजाद होकर बांग्लादेश बना था, तब से पाकिस्तान के लोग टूरिस्ट को बड़ी शक की निगाह से देखते थे। यहां टी स्टॉल पर जो बहसबाजी चल रही थी, उसके चलते वहां जरा देर में भीड़ इकट्ठा हो गई थी। उस आदमी ने आगे उन तीनों से कहा, "तुम तीनों बंगाली हो ना? जो अफगानिस्तान भाग रहे हो। यह सुनकर तीनों एक झूठी हंसी-हंस पड़े।
गरेवाल ने उससे हंसते हुए कहा, क्या हम आपको बंगाली दिखते हैं? आपने कभी बंगाली देखे भी हैं अपनी जिंदगी में? उनके इस जवाब से वह आदमी और भी गुस्सा हो गया और उसने लोकल लोगों की मदद से तीनों को घेर कर वहां के तहसीलदार के हवाले कर दिया।
जेल से भागे तीनों भारतीय पायलट्स ने तहसीलदार को अपनी झूठी कहानी में फंसाने की खूब कोशिश की, लेकिन तहसीलदार भी उनकी बातों से संतुष्ट नहीं हुआ। वहां मौजूद लोगों का गुस्सा गरमाता जा रहा था। तीनों को डर था कि कहीं गुस्से में सब मिलकर उनकी जान ना ले लें। ऐसे में दिलीप पारुलकर ने बचने के लिए बहुत चालाकी से काम लेते हुए कहा कि हम पाकिस्तान एयरफोर्स के एयर मैन है।
हमने इस वतन के लिए अपना खून पसीना बहाया है और आप हमें इस तरह जलील कर रहे हैं। अगर आपको हमारा यकीन नहीं है तो अभी मेरी बात पाकिस्तान एयरफोर्स के एडीसी उस्मान हमीद से कराइए। यह वही उस्मान थे जो रावलपिंडी जेल के इंचार्ज रहे थे और जो भारतीय युद्ध बंदियों के लिए क्रिसमस का केक लाए थे। उस्मान का नाम सुनकर तहसीलदार चौंक गया। उसने तुरंत उन्हें फोन किया और दिलीप पारुलकर की बात कराई। दिलीप ने सारा माजरा इस तरीके से बताया कि पास बैठे तहसीलदार को कुछ समझ नहीं आया।
लेकिन फोन की दूसरी तरफ मौजूद उस्मान हमीद जान गए कि वह तीनों कैंप से भागकर लंडी कोतल आ गए हैं। इसके बाद उस्मान हमीद ने तहसीलदार से बात की और कहा यह हमारे आदमी है। इन्होंने कुछ गड़बड़ की है इसलिए जब तक वहां हमारे सैनिक नहीं आ जाते इन्हें अपनी हिफाजत में रखो लेकिन इन्हें कोई नुकसान मत पहुंचाना। उधर 11:00 बजे रावलपिंडी वॉर कैंप में हड़कंप मचा हुआ था। सेल नंबर चार में बड़ा सुराख पाकिस्तानी गार्ड्स को अपने गाल पर एक तमाचे की तरह महसूस हो रहा था। सेल के अंदर चार में से केवल एक वीएस छाटी बचे थे।
ऐसे में उन्हें दूर से दो पाकिस्तानी गार्ड्स की बात सुनाई दी जो कह रहे थे कि इस चौथे कैदी को गोली मार देते हैं। बोल देंगे चारों एक साथ भाग रहे थे। वो तीनों भाग निकले लेकिन इसे शूट कर दिया गया। यह सुनकर छठी के रोंगटे खड़े हो गए। उनका मरना लगभग तय था। लेकिन तभी उन्हें दूर से एक और आवाज सुनाई दी। बड़े अफसरों को पता चल चुका है कि कितने लोग भागे हैं और कितने बचे हैं। ऐसे में हमने उसे मारा तो हम भी नहीं बचेंगे।
यह सुनकर छठी की जान में जान आई। जेल से भागे तीनों इंडियन पायलट्स को वापस रावलपिंडी लाया गया और उन्हें 30 दिन की सॉलिटरी कनफाइनमेंट की सजा दी गई। इसके बाद उन्हें रावलपिंडी वॉर कैंप के अपने सभी साथियों समेत फैसला की जेल में भेज दिया गया। वहां भारतीय फौज के 500 से ज्यादा प्रिजनर्स थे। इसी दौरान भारत सरकार और पाकिस्तान सरकार के बीच प्रिजनर्स ऑफ वॉर के एक्सचेंज को लेकर नेगोशिएशंस तेज हो चुके थे। जिसके चलते दिसंबर 1972 में पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने सभी भारतीय युद्ध बंदियों की रिहाई का ऐलान कर दिया।
सभी भारतीय युद्ध बंदियों ने जब वाघा बॉर्डर के पार भारत की मिट्टी पर कदम रखा तो वहां लोगों का जुलूस उनके स्वागत के लिए खड़ा था। वहां मौजूद हजारों लोगों ने उन्हें मालाएं पहनाकर और गले लगाकर उनका स्वागत किया। पंजाब के मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह खुद वहां मौजूद थे। वाघा से अमृतसर के 22 कि.मी. रास्ते में उनके स्वागत में सैकड़ों फूलों की झालरें सजी हुई थी। लोगों का प्यार देखकर सभी भारतीय जवानों की आंखों में खुशी के आंसू भर आए। अगले दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में उनका भारी भीड़ के साथ स्वागत किया गया।
रिहाई के कुछ महीने बाद फ्लाइट लूटिनेंट दिलीप पारुलकर ने वायुसेना प्रमुख पीसी लाल को तोहफे में एक फाउंटेन पेन दिया। पीसी लाल ने फाउंटेन पेन का ढक्कन खोला तो देखा वह एक कंपास था। यह वही कंपास था जिसे पारुलकर और उनके साथियों ने जेल में सुइयों से बनाया था। भारत वापस लौटने के 5 महीने बाद ही दिलीप पारुलकर के माता-पिता ने उनकी शादी करा दी। शादी पर पारुलकर को पाकिस्तानी जेल में उनके साथ रहे स्क्वाड्रन लीडर अर्जुन विट्ठल कामत का टेलीग्राम मिला जिसमें मैसेज था नो एस्केप फ्रॉम द स्वीट कैप्टिविटी।