हिन्दू महाकाव्यों के अनुसार 10 सबसे बड़े और प्रलयंकारी युद्ध

Sourav Pradhan
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क्या आप जानते हैं कि हमारे सनातन इतिहास में ऐसे भी युद्धों का वर्णन मिलता है जो महाभारत और रामायण जैसे युद्धों से भी अधिक प्रलयंकारी थे। आज के इस आर्टिकल में हम जानेंगे ऐसे ही 10 महायुद्धों के बारे में जो विनाश के प्रतीक बन गए। हम जानेंगे कि यह युद्ध किन के बीच हुए, किस पैमाने पर लड़े गए और उनका क्या परिणाम निकला और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न इन सभी में सबसे प्रलयंकारी युद्ध कौन सा था? 
इसका उत्तर जानने के लिए पोस्ट को अंत तक अवश्य देखें और अगर आपको यह पोस्ट पसंद आए तो एसी आर्टिकल पढ़ने के लिए हमारे दुसरे पोस्ट पर जाएं। 

  • कार्तवीर्य अर्जुन और परशुराम जी का युद्ध 

ब्रह्म वैवर्त पुराण, गणपति खंड, अध्याय 40 के अनुसार कार्तवीर्य अर्जुन दो लाख अक्षौणी सेना के साथ रण के मुहाने पर डटकर खड़ा हो गया। इसके बाद वहां दोनों सेनाओं में युद्ध होने लगा। तब परशुराम जी के शिष्य तथा उनके महाबली भाई कार्तवीर्य से पीड़ित होकर भाग खड़े हुए। राजा के बाण समूह से आच्छादित होने के कारण परशुराम जी को अपनी तथा राजा की सेना ही नहीं दिख रही थी। फिर तो परस्पर घोर दिव्यास्त्रों का प्रयोग होने लगा। अंत में राजा ने दत्तात्रेय के दिए हुए अमोग शूल को परशुराम जी पर छोड़ दिया। उस शूल के लगते ही परशुराम जी धराशाई हो गए। तदंतर भगवान शिव ने वहां आकर परशुराम जी को पुनर्जीवन दान दिया। इसी समय वहां युद्ध स्थल में भगवान दत्तात्रेय शिष्य की रक्षा करने के लिए आ पहुंचे। फिर परशुराम जी ने क्रुद्ध होकर पाशुपदास्त्र हाथ में लिया। परंतु दत्तात्रेय जी की दृष्टि पड़ने से वे रणभूमि में स्तंभित हो गए। तब पुनः भगवान शिव ने परशुराम जी की सहायता की और उन दोनों में फिर से युद्ध आरंभ हो गया। परशुराम जी ने श्री हरि का स्मरण करते हुए ब्रह्मास्त्र द्वारा राजा की सेना का सफाया कर दिया। फिर लीला पूर्वक पाशुपतास्त्र का प्रयोग करके राजा की जीवन लीला समाप्त कर दी। 

  • बाणासुर युद्ध 

बाणासुर जिसके हजार भुजाएं थी उसने महादेव से वरदान प्राप्त किया था कि किसी भी विकट स्थिति में वे बाणासुर की रक्षा करेंगे। जब बाणासुर ने भगवान कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को बंदी बना लिया तो श्री कृष्ण, बलराम और प्रद्युमन ने बाणासुर की नगरी शोितपुर पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध की भयंकरता इतनी थी कि सारी सृष्टि कांप उठी। स्वयं भगवान शिव और उनके पुत्र कार्तिकेय जी और गणपति जी श्री कृष्ण की सेना से युद्ध करने आ पहुंचे थे। उन सभी में बड़ा ही प्रलंकारी युद्ध हुआ। श्री कृष्ण ने जंभणास्त्र नामक शस्त्र चलाकर भगवान शिव को निद्रा में डाल दिया। और फिर श्री कृष्ण ने जब सुदर्शन चक्र से बाणासुर का सिर काटना चाहा तो भगवान शिव निद्रा से बाहर आ चुके थे और उन्होंने श्री कृष्ण से बाणासुर को क्षमा कर देने का आग्रह किया। 

  • तारकासुर युद्ध 

तारकासुर ऋषि कश्यप का पोता और एक महाशक्तिशाली दैत्य था जिसे ब्रह्मा जी से यह वरदान प्राप्त था कि केवल भगवान शिव का पुत्र ही उसका वध कर सकता है। किंतु उस समय शिव योग मगन थे और सती की मृत्यु के बाद वे तप में लीन हो गए थे। तारकासुर ने इस अवसर का लाभ उठाकर स्वर्ग लोक, पृथ्वी लोक और समस्त देवताओं को अपने वश में कर लिया। तब भगवान विष्णु और देवताओं ने माता पार्वती को शिव जी से विवाह करने हेतु प्रेरित किया। उनके योग से कार्तिकेय जी का जन्म हुआ। युवा कार्तिकेय जी ने सेनापति बनकर देवसेना का नेतृत्व किया और एक भयंकर युद्ध में तारकासुर का वध कर दिया। 

  • महाभारत युद्ध

महाभारत युद्ध सनातन इतिहास का सबसे प्रसिद्ध और निर्णायक युद्ध था जो कुरु वंश के दो शक्तिशाली पक्षों, कौरवों और पांडवों के बीच लड़ा गया। यह युद्ध कुरुक्षेत्र की भूमि पर 18 दिनों तक चला था। युद्ध में कुल 18 अक्षौणी सेनाएं सम्मिलित थी। यह युद्ध केवल अस्त्र-शस्त्रों का नहीं बल्कि नीति, धर्म, भक्ति और मोह का संघर्ष था। अंततः धर्म की विजय हुई। पांडवों ने युद्ध जीता। इस युद्ध में करोड़ों की संख्या में सैनिक और योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए थे। 

  • लंका युद्ध 

रामायण का महान युद्ध लंका में भगवान श्री राम और रावण के बीच लड़ा गया था। जब रावण ने माता सीता का हरण किया तब भगवान राम ने वानर सेना संग लंका की ओर प्रस्थान किया। श्री राम की सेना में वानर राज सुग्रीव, महाबली हनुमान, अंगद और नल, नील जैसे पराक्रमी योद्धा थे। रावण की ओर से मेघनाद, कुंभकरण, अक्षय कुमार आदि जैसे राक्षस युद्ध लड़े। समुद्र पर पुल बनाकर श्री राम ने लंका पर चढ़ाई की और रावण की विशाल राक्षस सेना से भीषण युद्ध हुआ। मेघनाथ, कुंभकरण जैसे शक्तिशाली योद्धा एक-एक कर पराजित हुए। लक्ष्मण और मेघनाथ के बीच का संग्राम अत्यंत घातक था। अंततः रावण भी श्री राम के हाथों मारा गया। 

  • देवी अंबिका और महिषासुर युद्ध 

ब्रह्मा जी और अग्निदेव से वरदान प्राप्त करने के बाद महिषासुर ने इंद्र, सूर्य, वरुण, यम, अग्नि, कुबेर आदि देवों को पराजित कर उनकी शक्तियों को भी छीन लिया था। तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर इंद्रदेव के साम्राज्य की राजधानी अमरावती पर आधिपत्य जमा लिया था। ब्रह्मा जी से उसने यह वरदान भी प्राप्त किया था कि उसकी मृत्यु केवल एक स्त्री के हाथों ही हो सकती है। स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर ने ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर को एक साथ चुनौती दी थी और वे तीनों ही उस असुर को पराजित करने में असफल रहे। उसकी शारीरिक शक्ति अपार थी। वह एक अत्यंत बलशाली मायावी भी था और अपनी शक्ति से अपने जैसे हजारों असुर उत्पन्न करने में सक्षम था। उसका वध तब संभव हुआ जब त्रिदेवों सहित बाकी समस्त देवों की संयुक्त ऊर्जा से देवी अंबिका प्रकट हुई। समस्त देवों ने अपने आयुध भी देवी को दिए। अंततः देवी अंबिका ने पहले अपने शूल से उसे अचेत कर दिया और फिर अपनी तलवार से उसका सिर काट दिया। 

  • देवी त्रिपुर सुंदरी और भंडासुर का युद्ध

फंडासुर का जन्म स्वयं कामदेव के भस्म से हुआ था। भगवान शिव से उसने यह वर प्राप्त किया था कि जो कोई भी मेरे विरुद्ध युद्ध करें उसका आधा बल क्षीण होकर उसमें आ जाए। फंडासुर ने 300 अक्षोणी की एक शक्तिशाली सेना बना ली थी। देवता, ऋषि, यज्ञ और वेद सब उसके आतंक से भयभीत हो गए थे। इसी के वध के लिए ललिता त्रिपुर सुंदरी की उत्पत्ति हुई थी। देवी ने एक विशाल देवी सेना संगठित की जिसमें राजमातंगी, भैरवी, थूमावती, बगलामुखी, श्यामला और अनेक महाविद्याएं सम्मिलित थी। देवी ललिता और भंडासुर के बीच महान युद्ध हुआ था। फंडासुर ने मायावी अस्त्र, यंत्र और अंधकार फैलाने वाले शस्त्रों का प्रयोग किया। लेकिन त्रिपुर सुंदरी ने महाविद्याओं, कवचों और मंत्रों से उसका प्रतिकार किया। भंडासुर ने फिर अपनी शक्ति और माया से 10 दिव्य अस्त्र माता की ओर चलाए थे। जिनसे अरणव, हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप, असुर राज बलि, कार्त्वी, अर्जुन, रावण और काली नामक अन्य कई विख्यात राक्षस उत्पन्न हो गए। इनके तोड़ के लिए देवी ललिता ने अपनी 10 उंगलियों के नाखूनों से भगवान विष्णु के 10 अवतारों को उत्पन्न कर दिया। जैसे कि मत्स्य, वामन, कुर्म वाराह, नरसिम्हा, परशुराम, राम लक्ष्मण, कृष्ण बलराम, कल्कि अवतार आदि। और अंत में देवी ललिता ने महाकामेश्वर नामक दिव्यास्त्र से भंडासुर का वध कर दिया। 

  • महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र का युद्ध

विश्वामित्र और वशिष्ठ जी का युद्ध धरती पर हुई सबसे विनाशकारी भिड़ंतों में से एक था। हार के बाद विश्वामित्र जी ने बार-बार कठोर तपस्या की। हर बार नए दिव्यास्त्र प्राप्त किए। उन्होंने देवताओं से पर्वतास्त्र, चक्र, गदा और ना जाने कितने लोक विनाशक शस्त्रों की शक्ति प्राप्त की। सिर्फ शिष्ट को हराने के लिए। पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र और यहां तक कि ब्रह्मशीर जैसे प्रलयंकारी अस्त्र भी प्राप्त किए। लेकिन हर बार जब उन्होंने यह महान अस्त्र चलाए, महर्षि वशिष्ठ ने केवल ब्रह्मदंड उठाया और उसी क्षण सारे अस्त्र शांत हो गए। जैसे पूरी सृष्टि उस दंड के सामने नतमस्तक हो गई हो। यही था शास्त्र बल और ब्रह्म तेज के टकराव का सबसे भीषण स्वरूप। अंततः विश्वामित्र जी ने मान लिया कि असली शक्ति तप और ज्ञान में ही है। 

  • तारकामय युद्ध देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं

बृहस्पति की पत्नी का नाम तारा है। एक समय चंद्रदेव ने तारा का अपहरण कर लिया। देवताओं और ऋषियों ने चंद्रदेव से तारा को लौटाने की प्रार्थना की। परंतु चंद्रदेव नहीं माने। तब तारा को लेकर एक भयंकर युद्ध छिड़ गया। यह संग्राम बृहस्पति के पक्ष में देवताओं और चंद्र के पक्ष में असुरों के मध्य हुआ। असुरों के गुरु शुक्राचार्य ने चंद्र का साथ दिया। भगवान शिव, देवराज इंद्र, सूर्य, अग्नि और अन्य देवता बृहस्पति की ओर से लड़े। वहीं शुक्राचार्य दैत्यों और असुरों की पूरी सेना चंद्रदेव की ओर से लड़ी। यह युद्ध तारा के कारण हुआ था। इसीलिए इसे तारकामय संग्राम कहा गया। देवग और दैत्यग दोनों तरफ से बड़ी भारी संख्या में प्राणों की क्षति हुई। अंत में ब्रह्मा जी ने हस्तक्षेप किया और युद्ध को विराम दिया। इनके अतिरिक्त भगवान शिव द्वारा जालंधर, अंधक और त्रिपुर सुरों से लड़े गए युद्ध भी बहुत ही प्रलंकारी थे। हर एक युद्ध बहुत बड़े पैमाने पर लड़ा गया। जिनमें त्रिदेवों से लेकर अन्य कई देव सम्मिलित हुए थे। 

देवी दुर्गा के रूपों का महिषासुर शुंभ निशुंभ चंडमुंड से हुआ युद्ध भी इतना प्रलंकारी था कि जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। और भी ऐसे कई और युद्ध थे जिनका हम इस पोस्ट में वर्णन नहीं कर पाए किंतु प्रयास करेंगे कि आगे कभी इसके दूसरे भाग में उन सभी को सम्मिलित करें। आप भी अपने सुझाव हमें दे सकते हैं। जय श्री कृष्ण। प्रेम पूर्वक परमपिता परमात्मा को मन में धारण करें और बोले वैदिक सनातन धर्म की सदा ही जय।

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