How Chhatrapati Shivaji Maharaj Defeated the Mughals

Sourav Pradhan
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बात है सन 1646 की, 16 साल के वीर छत्रपति शिवाजी महाराज ने मुगल राजा इनायत खान से तोरना फोर्ट को हासिल करके उस पर केसरी रंग का मराठा ध्वज लहराया और इसी के साथ इतिहास के पन्ने केसरी रंग से रंगने लगे। 
जिन पर जिक्र था महाराज के बस एक ही सपने का हिंदवी स्वराज। जिसे पाने की शुरुआत उन्होंने सिर्फ 4 किलो और 2000 सैनिकों से की थी। पर सिर्फ चंद सालों में यह संख्या 300 किलो और 1 लाख सैनिक जितनी हो गई। लेकिन आखिर महाराज के इस अविश्वसनीय सफलता के पीछे का कारण क्या था? और वैसे एक श्रेय तो जाता है उनके अनोखे रणनीतियों का जिनमें से एक यह थी कि वो अपने सेना में सैनिकों को नहीं बल्कि किसानों को भर्ती करते थे। 

पर किसानों के हाथों से फावड़ा लेकर भला क्यों उन्हें तलवार थमा दिया जाता था? क्या उस समय महाराज के पास सैनिकों की कमी थी? और आखिर ऐसी कौन-कौन सी अनोखी रणनीतियां उन्होंने अपनाई मुगलों को हराने के लिए? 

और आज हम करेंगे हिस्ट्री क्लास यह जानने के लिए कि हाउ शिवाजी महाराज डिफिटेड द मुगल्स। हर महान व्यक्ति के इतिहास की शुरुआत तब से होती है जब से उनका जन्म होता है। पर शिवाजी महाराज की कहानी कुछ अलग थी। उनके इतिहास की बात करने के लिए हमें कहानी शुरू करनी पड़ेगी उनके जन्म के 3 साल पहले यानी साल 1627 से और हमारे बंदरगाहों पर यानी हमारे पोर्ट्स पर पोर्चुगीज़ कब्जा करके बैठे हुए थे। इनसे मुगलों को तब तकलीफ नहीं हुई जब तक उनकी हुकूमत में राज्य ज्यादा और सैनिक कम हो गए थे। ऐसे में पोर्चुगीस के कारण वो नॉर्थ अफ्रीका के सेंट्रल एशिया से भी दूसरे मुसलमानों की सेना को भी नहीं बुला सकते थे। तब जाकर मुगलों ने पहली बार अपनी सेना में हिंदुओं को भर्ती करना शुरू कर दिया। जिसमें से एक थे शिवाजी के पिता शाहजी राजे भोसले। 

जो दरअसल 1637 में आदिल शाह के कब्जे से खुद के पूना जागीर को छुड़ा के अपने परिवार के साथ वहां पर रहना चाहते थे। और बस कुछ ही सालों में उन्होंने अपनी सेवा और वफादारी से पूना जागिर को हासिल कर लिया। पर फिर आदिल शाह ने उन्हें बेंगलुरु भेज दिया वहां का काम संभालने के लिए। उस समय जाते-जाते उन्होंने पूना जागीर और जीजाबाई की जिम्मेदारी अपने प्रशासक दादाजी कोणदेव को सौंप दी। इसके बाद 19 फरवरी 1630 में होती है हमारी कहानी की असल शुरुआत। जिस दिन शिवनेरी किले में जीजाबाई जन्म देती है इतिहास को हमेशा हमेशा के लिए बदल कर रख देने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज को। 

जीजाबाई सिर्फ शिवाजी की मां ही नहीं बल्कि उनकी पहली गुरु भी थी जो उन्हें बचपन से रामायण, महाभारत और महान वीर योद्धाओं की कहानी सुनाया करती थी और उन्हें सिद्धांत सिखाती थी। एक तरफ जहां शिवाजी जीजाबाई से प्रशासन संभालने और अच्छा राजा बनना सीख रहे थे। वहीं दूसरी तरफ दादाजी कोणदेव छोटे शिवाजी को तलवार युद्ध, तीर बाण, कुश्ती और रणनीतियां सिखा रहे थे। इन सारी चीजों की शिक्षा लेते हुए ही शिवाजी ने अपना पूरा बचपन शिवनेरी किले और सह्याद्री के पहाड़ों और जंगलों में घूमते हुए बिताया था। और इसी के कारण आगे चलकर उनका जियोग्यफिकल नॉलेज और पहाड़ों के साथ परिचय इतना ज्यादा बढ़ गया था कि उन्हें माउंटेन रैट के नाम से जाना जाने लगा था। लेकिन कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह नाम उन्हें अपने ज्योग्राफिकल नॉलेज के कारण नहीं बल्कि अपने गोरिल्ला रणनीतियों की वजह से मिला था। 

अब अगर आपको नहीं पता कि गोरिल्ला वॉरफेयर यानी रणनीतियां क्या होती है तो समझिए कि यह बिल्कुल किसी बलून शूटिंग गेम की तरह होता है। जहां भले ही हम प्रोफेशनल शूटर्स ना हो पर फिर भी 100 में से एक बलून तो तुक्के से फोड़ ही लेते हैं। राइट? और यही चीज महाराज ने अपने किसानों की फौज के साथ भी की जो झाड़ियों में छुप कर या पहाड़ों पर से हवा में पत्थर और तीर चलाते थे। और इससे दुश्मनों के आधे सैनिक महल में पहुंचने से पहले ही घायल हो जाते थे। जिन्हें हराना फिर काफी इजी हो जाता था। 

और इस फौज में महाराज किसानों को इसीलिए भर्ती करते थे क्योंकि किसानों को सिपाहियों से ज्यादा जियोग्राफिकल नॉलेज होता है और खेती करने के कारण किसान झाड़ियों में और पहाड़ों में बिना फिसले चल सकते थे। साथ ही महाराज उन्हें अपने स्वराज यानी सेल्फ रूल के लिए खुद लड़वाना चाहते थे ताकि लोगों को आगे चलकर उसकी कदर रहे और किसानों की यह फौज और महाराज की ये शातिर रणनीति ही उनके प्रसिद्ध रणनीतियों में से एक मानी जाती है। पर अब बात करते हैं महाराज और स्वराज के लिए उन्होंने की हुई लड़ाई की। यह लड़ाई उन्होंने महज 15 साल की उम्र से ही शुरू कर दी। की तारीख में हम खुद खुद के फैसले ले सकते हैं कि हमें क्या करना है या कौन से धर्म को अपनाना है। लेकिन उस वक्त लोगों के पास इतनी भी आजादी नहीं हुआ करती थी और यही आजादी उनको दिलाने के लिए महाराज स्वराज की स्थापना करना चाहते थे जिसको पाने के लिए उन्होंने किलों को जीतना चालू कर दिया था क्योंकि किसी किले को जीतना यानी उस पूरे राज्य को जीतना था। उनका पहला किला था तोरणा किला जो उन्होंने 1645 में इनायत खान से हासिल किया था। 

लेकिन यह किला उन्होंने जंग या मारधाड़ से नहीं बल्कि इनायत खान को अपनी बातों से राजी करके हासिल किया था। और इसी तरह फिर शिवाजी ने फिरंगोजी नरसाला से चाकन फोर्ट, बीजापुरी गवर्नर से कुंडाना फोर्ट और फिर ठाणे कल्याण और भिवंडी के भी किले बस कुछ ही सालों में हासिल कर लिए थे। अब इतने कम समय में इतने सारे किले उन्होंने जीते तो जाहिर सी बात है उनके सफलता के चर्चे चारों ओर फैलने लगे थे और यही चर्चे फैल कर मुगलों तक भी पहुंच गए थे और यह सब देखकर आदिल शाह ने शिवाजी के पिता शाहजी राजे को गिरफ्तार कर बंदी बना लिया जिस वजह से सात सालों तक महाराज डायरेक्टली आदिल शाह पर कोई हमला नहीं कर पा रहे थे लेकिन उनके रगों में मराठाओं का खून दौड़ रहा था और इसीलिए वो ऐसे ही चुप थोड़ी ना बैठने वाले थे। भले ही वह आदिल शाह पे कुछ सालों तक सामने से हमला नहीं कर पाए लेकिन उन्होंने तब तक अपने आसपास के सारे राज्यों को स्वराज का हिस्सा बना दिया था और देखते ही देखते उनके पास 40 किले और 6000 सैनिकों की फौज तैयार हो चुकी थी। 

अब इस बात की भनक जैसे ही आदिल शाह को लगी, उसने तुरंत अफजल खान को अपने 10,000 सैनिकों के साथ महाराज को गिरफ्तार करने के लिए भेज दिया था। और जब अफजल खान महाराज को गिरफ्तार करने निकले, तब उन्होंने महाराज के मुख्य मंदिर, टुलझा भवानी टेंपल और पंढरपुर के प्रसिद्ध बिठोबा मंदिर को तोड़फोड़ के पूरी तरह नष्ट कर दिया था। तब शिवाजी अपने प्रतापगढ़ के किले में थे और अफजल खान ने की तबाही और उसकी सेना को देख उनके मंत्री उन्हें आत्मसमर्पण यानी सरेंडर करने के लिए कह रहे थे। लेकिन महाराज तो सरेंडर करने से रहे और इतनी तबाही करके भी अफजल खान ना तो किसी किले को जीत पा रहा था और ना ही शिवाजी महाराज को पकड़ पा रहा था और इसीलिए ऐसे में अफजल खान ने महाराज को समझौते के लिए मिलने का न्योता भेजा। लेकिन उसी के साथ अफजल खान ने एक शर्त भी रखी कि महाराज को वहां पर अकेले और बिना किसी शस्त्र के आना होगा। अब महाराज मुगलों को इतना तो जानते ही थे कि उन्होंने इस षड्यंत्र के आर-पार देख लिया। 

उन्हें पता था कि अगर वह ऐसे ही गए तो अफजल खान उन्हें गिरफ्तार कर लेगा या उन पर हमला कर देगा। और इसीलिए उन्होंने मिलने से मना नहीं किया। लेकिन उन्होंने अपने कपड़ों के नीचे कवच पहना और अपने बाए हाथ में बाघना यानी कि टाइगर क्लॉ जैसा एक हथियार छुपा लिया और फिर जब वो अफजल खान से मिले उनका शक बिल्कुल सही साबित हुआ क्योंकि अफजल खान ने शिवाजी को गले लगाते ही तुरंत उन पर चाकू से हमला किया लेकिन महाराज के कवच ने उस वार को रोक लिया और फिर महाराज ने सीधे अपने बाघनाक से अफजल खान को चीर फाड़ डाला। बिल्कुल एक बाघ की तरह साहस दिखाकर और आज की 10th नवंबर 1659 को प्रतापगढ़ में जीत हासिल हुई। अफजल खान के मौत की खबर सुनते ही गुस्से में आदिल शाह ने अपने सेनापति सिद्धि जौहर को लाखों सैनिकों के साथ पन्हाला फोर्ट पर भेज दिया। जहां महाराज और उनके सिर्फ 5000 सैनिक थे। और इस बात का फायदा उठाते हुए सिद्धि जौहर ने किलों को चारों ओर से घेर लिया और ऐसे में महाराज को यह भली-भांति पता था कि यहां पर शारीरिक बल नहीं बल्कि बुद्धि बल का इस्तेमाल करना होगा। उन्होंने सिद्धि जौहर को महल में मिलने बुलाया। पर जैसे ही वह वहां पर आया महाराज ने आदिल शाह को संदेशा भेजा कि तुम्हारा सेनापति गद्दारी कर रहा है। 

और फिर जैसा महाराज ने सोचा बिल्कुल वैसा ही हुआ। आदिल शाह और सिद्धि जौहर आपस में लड़ते रहे और मौके का फायदा देख महाराज और उनके आदमी विशालगढ़ के लिए रवाना हो गए और उन्होंने अपने हमशक्ल शिवा काशिश को दूसरी ओर भागने कहा ताकि आदिल शाह और उसकी सेना भ्रमित हो जाए। लेकिन अफसोस आधे रास्ते से पहले ही शिवा पकड़ा गया। जिसके बाद और गुस्से में आदिल शाह तेजी से शिवाजी के ओर बढ़ता गया। यह देख उनके सेनापति बाजी प्रभु ने उनसे 4,700 सैनिक लेकर आगे जाने को कहा और कहा कि बाकी के आदमियों के साथ वो आदिलशाह को रोकेंगे। पर महाराज ने इससे साफ इंकार कर दिया लेकिन उनकी हिफाजत के लिए सभी ने उन पर बहुत दबाव डाला जिसके कारण वो विशालगढ़ के लिए रवाना हो गए। बाजी प्रभु और उनके 300 आदमी जी जान से लड़ते रहे। लेकिन 1 लाख के सामने 300 की सेना बहुत ही कम थी। फिर भी वह लड़ते रहे। खुद बाजी प्रभु भी जख्मों से और खून से लथपथ तब तक लड़ते रहे जब तक उन्होंने विशालगढ़ के तोपों की आवाज नहीं सुनी। 

दरअसल तोपों की आवाज एक सिग्नल था कि महाराज सही सलामत पहुंच चुके हैं और जैसे ही उन्हें यह सिग्नल मिला बाजी प्रभु ने जोर से जय भवानी चिल्लाकर वहीं पर अपना दम तोड़ दिया। इसी बलिदान के कारण बाजी प्रभु को स्वराज के लिए लड़ने वाले सबसे बहादुर योद्धाओं में से एक माना जाता है। लेकिन यह अकेले नहीं थे। इनके जैसे ना जाने कितने लोगों ने अपने जान की आहुति दी थी स्वराज के सपने को पूरा करने के लिए। क्योंकि स्वराज के लिए जो जुनून और जज्बा महाराज में था उतना ही उनके आदमियों में भी था और इसीलिए महाराज के जीत में इनका भी बहुत बड़ा हाथ था ऐसा माना जाता है।

नाउ गेटिंग बैक टू दी स्टोरी, दो बार आदिल शाह को नाकाम होता देख औरंगजेब ने मसलों को खुद के हाथों में लेने का तय किया। उन्होंने अपने मामा शाहिस्त खान को ₹1,50,000 की सेना लेकर भेजा। शस्त खान ने पुणे पर बड़ी आसानी से कब्जा कर लिया और महाराज के लाल महल में अपना बसेरा डालकर बैठ गए। अब भले सेना छोटी क्यों ना हो लेकिन जज्बा और दिमाग मराठाओं में भर-भर कर था। शिवाजी ने अपने 400 सैनिकों को बारातियों का भेस लेने के लिए कहा और खुद घोड़ी पर सवार हो गए। और जैसे ही उनकी यह बारात महल के पास पहुंची, उन्होंने सीधा महल पर और शाहिस्ता खान पर हल्ला बोल दिया। अब ऐसे में अचानक हुए हमले से बचने के लिए शाहिस्त खान ने खिड़की से छलांग मारी भागने के लिए। लेकिन उसी वक्त महाराज ने अपनी तेज तलवार से वार किया जिसके कारण शाहस्त खान ने अपनी तीन उंगलियां तो खो ही दी। लेकिन घायरों की तरफ भागने के कारण उन्होंने मुगलों के सामने खुद की इज्जत भी गवा दी। और मुगलों के इस घाव पर नमक डालते हुए महाराज ने सन 1664 में सूरत जहां मुगलों की मेजर ट्रेनिंग होती थी उस पे भी हमला कर दिया और यह सब देखकर औरंगजेब गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने फिर एक बार जय सिंह वन को हजारो सिपाहियों के साथ शिवाजी के खिलाफ युद्ध लड़ने भेज डाला। 

लेकिन उस दौरान महाराज की तबीयत नाजुक थी। जिस वजह से उस युद्ध में उनकी हार हो गई और उन्हें सरेंडर करना पड़ा। जिसके बाद उन्हें अपने 35 में से 23 किले और 4 लाख मुद्रा मुआवजे के तौर पर देना पड़ा और साथ ही उनको अपने 9 साल के पुत्र संभाजी को लेकर आगरा जाना पड़ा जहां औरंगजेब ने उन्हें घर पर ही कैद कर रखा था और जिंदगी भर उनको गुलाम बनाने का सोच लिया था। पर महाराज को कैद करना इतना आसान था क्या? 

भले वह बीमार थे लेकिन उनकी चतुराई बिल्कुल वैसी की वैसी ही थी। उन्होंने अपनी बीमारी का फायदा उठाते हुए औरंगजेब से मांग की कि वह अपनी सलामती के लिए रोजाना साधु संतों को फल और मिठाइयां भेजना चाहते हैं। औरंगजेब ने उनकी इस मांग को मंजूर तो कर दिया था लेकिन उसे नहीं पता था कि वो अपनी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल करने जा रहा है क्योंकि फल मिठाई भेजने के बहाने एक दिन महाराज अपने बेटे को लेके उन्हीं फल मिठाई के बक्सों में बैठ वहां से रवाना हो गए। वो वहां से भागकर रायगढ़ पहुंचे और उसके बाद साल 1674 में उन्होंने अपनी इसी चतुराई और अनोखी रणनीतियों से कई लड़ाईयां जीती और फिर से अपने राज्यों को मुगलों से आजाद करवा लिया। 

इस दौरान औरंगजेब ने कई साजिशें चली और कई बार हमले भी किए पर वो हर दफा असफल ही रहे। पर फिर कुछ ही सालों बाद 1680 में मराठा साम्राज्य और मानो काले बादल मंडराने लगे। क्योंकि तब महाराज की तबीयत दिन-बदिन बिगड़ने लग रही थी। और फिर बुखार और लगातार बीमार होने के कारण 3rd अप्रैल 1680 में उनकी मृत्यु हो गई।
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