Prithviraj Chauhan: The Fearless Warrior King of India

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भारत का इतिहास वीरता और पराक्रम की अनगिनत कहानियों से भरा पड़ा है। लेकिन इन कहानियों में कुछ नाम ऐसे हैं जो समय की धूल में दबे नहीं बल्कि आज भी गूंजते हैं। इन्हीं में से एक नाम सम्राट पृथ्वीराज चौहान का है।

अजमेर और दिल्ली को अपनी राजधानी बनाकर इस युवा सम्राट ने भारत की राजनीति में ऐसी धाक जमाई थी कि उनका नाम सुनते ही दुश्मनों के दिल कांप उठते थे। पृथ्वीराज सिर्फ तलवार और भाले के धनी नहीं थे बल्कि ज्ञान और विद्या में भी माहिर थे। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था। गणित और दर्शन की समझ थी और उनकी सबसे बड़ी कला शब्द भेदी बाण चलाने की थी। यानी बिना देखे वो सिर्फ आवाज सुनकर लक्ष्य को भेद देते थे। उनके शौर्य की कहानियां इतनी मशहूर थी कि पड़ोसी राजों की राजकुमारियां भी उनके नाम पर मोहित हो जाती थी।

लेकिन इतिहास सिर्फ वीरता की गाथा नहीं होता। उसमें राजनीति, चालबाजी और धोखे का खेल भी चलता है। पृथ्वीराज की कहानी में भी यही सब था। एक तरफ उनकी दुश्मनी कन्नौज के राजा जयचंद से थी, जिसकी बेटी संयोगिता से जुड़ी प्रेम कथा आज भी लोकथाओं में अमर है। दूसरी तरफ पश्चिम से मोहम्मद गौरी नाम का एक नया खतरा उठ रहा था जो सिर्फ लूटपाट नहीं बल्कि भारत में परमानेंट राज करना चाहता था। 

साल 1191 में तराइन की धरती पर जब पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी की सेनाएं आमने-सामने आई तो इतिहास ने करवट ली। इस युद्ध में पृथ्वीराज ने अपनी रणनीति और ताकत से गौरी को धूल चटा दी। कहा जाता है कि पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को 16 - 17 बार हराया था और हर बार उसे माफ कर जिंदा छोड़ दिया था। लेकिन उनकी यही उदारता उनके और भारत के लिए आगे चलकर आत्मघाती साबित हुई।

आइए जानते हैं सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पूरी कहानी जिनकी वीरता आज भी भारत की मिट्टी में गूंजती है। 

चौहान वंश की जड़े जयपुर के पास सांभर और आमेर से जुड़ी हुई थी। इसी वंश के राजा अजय राज ने अजमेर शहर की नींव रखी थी जो आगे चलकर चौहान वंश की शक्ति का केंद्र बना। चौहान डायनेस्टी की स्थापना 6th सेंचुरी में वासुदेव चौहान ने की थी। इसी वंश में आगे चलकर 11th सेंचुरी में सोमेश्वर चौहान नाम के एक पराक्रमी राजा हुए। सोमेश्वर ने अपने जीवन काल में कई युद्ध लड़े और अपने एंपायर का एक्सपेंशन किया। माना जाता है कि जब राठौड़ की आर्मी ने दिल्ली के राजा अनंगपाल तोमर पर अटैक किया था तो अजमेर के राजा सोमेश्वर चौहान ने राजा अनंगपाल तोमर का सपोर्ट किया।

उनकी मदद से अनंगपाल तोमर इस युद्ध को जीत गए। जिसके बाद दोनों के बीच गहरी दोस्ती हो गई। यह दोस्ती आगे चढ़कर रिशेदारी में बदल गई जब राजा अनंगपाल ने अपनी बेटी कर्पूरी देवी की शादी सोमेश्वर चौहान से कर दी। अनंगपाल तोमर की दूसरी बेटी रूप सुंदरी की शादी कन्नौज के राजा विजयपाल से हुई जिन्हें बाद में एक बेटा हुआ जिसका नाम जयचंद रखा गया। 1166 में सोमेश्वर चौहान और कर्पूरी देवी के घर भी एक बालक का जन्म हुआ। उस बच्चे के जन्म को चौहान वंश के लिए एक शुभ संकेत माना गया और एस्ट्रोलॉजर्स ने भविष्यवाणी की कि यह लड़का बड़ा होकर एक ग्रेट रूलर बनेगा और पृथ्वी के बड़े हिस्से पर राज करेगा। इसी भविष्यवाणी को ध्यान में रखते हुए उस बच्चे का नाम पृथ्वीराज रखा गया। 

पृथ्वीराज के जन्म से पहले भी इस वंश में पृथ्वीराज नाम से दो राजा हो चुके थे। लेकिन यह वास्तव में पृथ्वीराज थे। उन्हें राय पिथोरा नाम से भी जाना गया। पृथ्वीराज का बचपन किसी साधारण राजकुमार की तरह नहीं था। कहते हैं कि पोत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं। ठीक उसी तरह बचपन से ही उनकी असाधारण प्रतिभा झलकने लगी थी। 

पृथ्वीराज चौहान को बहुत सारी लैंग्वेज की डीप नॉलेज थी और वह हिस्ट्री, मैथमेटिक्स, मेडिसिन, मिलिट्री, साइंस और फिलॉसोफी जैसे सब्जेक्ट्स में भी प्रोफिशिएंट थे। उनकी सबसे खास कला शब्द भेदी बाण चलाना थी। इसमें वह अपनी आंखें बंद करके केवल आवाज सुनकर लक्ष्य को भेद सकते थे। तीर चलाने में उन्हें इतनी महारत हासिल थी कि बड़े-बड़े योद्धा भी उनका मुकाबला नहीं कर पाते थे। सिर्फ तीर चलाने में ही नहीं बल्कि तलवार और भाला चलाने में भी वह माहिर थे। उनकी ताकत और निडरता का एक उदाहरण युवावस्था की एक घटना में मिलता है। कहते हैं कि युवावस्था में एक बार वह अपने दोस्तों के साथ जंगल में शिकार पर गए थे। इसी दौरान एक खूंखार शेर ने उन पर अटैक कर दिया। 

शेर को देखकर उनके साथी घबरा गए और पीछे हट गए। लेकिन युवा पृथ्वीराज निडरता से वहीं खड़े रहे। उनके पास कोई हथियार भी नहीं था। जैसे ही शेर उन पर झपटा, पृथ्वीराज ने बिजली की तेजी से उसकी गर्दन पकड़ ली और पूरी ताकत से उसके जबड़े को दोनों तरफ से खींच दिया। उनकी अपार शक्ति के आगे शेर टिक नहीं पाया और उसका जबड़ा टूट गया और शेर वहीं पर ढेर हो गया। यह घटना सिर्फ एक शिकार की नहीं थी बल्कि इस बात का प्रमाण थी कि पृथ्वीराज चौहान बचपन से ही फेयरलेस, पावरफुल और क्लेवर थे। लेकिन किस्मत का इम्तिहान जल्दी ही आना था। जब वह सिर्फ 11 साल के थे तभी उनके पिता का निधन हो गया। 

अचानक पूरे राज्य की जिम्मेदारी युवा पृथ्वीराज के कंधों पर आ गई और सोमेश्वर चौहान के उत्तराधिकारी के रूप में उन्हें अजमेर का राज सिंहासन संभालना पड़ा। यह बहुत नाजुक समय था क्योंकि उनकी कम उम्र का फायदा उठाकर उनके अपने रिस्तेदारो और सरदारों ने विद्रोह करना शुरू कर दिया और किंगडम के हिस्सों को हड़पने की कोशिश करने लगे। इस संकट की घड़ी में उनकी मां रानी कर्पूरी देवी ने राजसत्ता की बागडोर संभाली। रीजन के रूप में उन्होंने कंदबवासा जैसे ट्रस्टवर्दी मिनिस्टर्स की मदद से राज्य को स्टेबिलिटी दी। हालांकि हम्मीर महाकाव्य के अनुसार ऐसा माना जाता है कि पृथ्वीराज चौहान के पिता सोमेश्वर चौहान की मृत्यु उस समय नहीं हुई थी बल्कि उन्होंने खुद सिंहासन अपने बेटे पृथ्वीराज को सौंप दिया था और खुद सन्यास लेकर जंगलों में चले गए थे। इसके बाद अपनी मां रानी कर्पूरी देवी की देखरेख में युवा पृथ्वीराज ने शासन की बारीकियों को सीखा। 

वह जल्द ही गवर्नेंस में इतने माहिर हो गए कि दरबार के लोग और राज्य की जनता उनकी तारीफ करते नहीं थकती थी। लेकिन मां के आंचल में बैठकर राज्य नहीं चल सकता था। इसलिए जिस उम्र में बच्चे खेलने में व्यस्त रहते हैं उस उम्र में उन्होंने पूरे राज्य का भार अपने कंधों पर उठा लिया। साल 1180 में सिर्फ 14 साल की उम्र में उन्होंने पूरी तरह से सत्ता अपने हाथों में ले ली और एक इंडिपेंडेंट रूलर के रूप में राज करने लगे। यहीं से शुरू हुई इस वीर योद्धा की यात्रा जिसका नाम आगे चलकर दिल्ली के तख्त से लेकर तराइन के मैदान तक गूंजने वाला था। 

पृथ्वीराज के सत्ता संभालते समय यह साफ हो गया था कि उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती बाहरी आक्रांता नहीं बल्कि उनके अपने ही लोग थे। उनके सगे संबंधी उनकी कम उम्र का फायदा उठाकर विद्रोह कर रहे थे और राज्य के हिस्सों को हड़पने की कोशिश कर रहे थे। यह घटना बताती है कि 12th सेंचुरी में भारत का फ्यूडल सिस्टम कितना कमजोर और अनस्टेबल था। जब कोई स्ट्रांग सेंट्रल रूलर नहीं होता था तो लोकल सरदारों की लॉयल्टी राज्य के बजाय अपने पर्सनल इंटरेस्ट की तरफ मुड़ जाती थी। राज्य अभिषेक के करीब 3 साल बाद युवा पृथ्वीराज चौहान ने अपनी माता रानी कर्पूरी देवी के संरक्षण से बाहर निकलकर एक पावरफुल एम्पायर के रूप में अपनी पहचान बनानी शुरू की। 

उनका पहला और सबसे जरूरी काम नागार्जुन के विद्रोह को कुचलना था। नागार्जुन पृथ्वीराज के चाचा विग्रहराज फोर का बेटा था। उसने पृथ्वीराज की कम उम्र का फायदा उठाते हुए सिंहासन पर अपना दावा पेश कर दिया और गुणपुरा जो आज गुरुग्राम के नाम से जाना जाता है उसका किला हथिया लिया। यह केवल एक विद्रोह नहीं बल्कि चौहान राजवंश के भीतर पावर को लेकर सीधा संघर्ष था। पृथ्वीराज चौहान ने पैदल घुड़सवार ऊंट और हाथी वाली एक बड़ी सेना लेकर गुणपुरा को घेर लिया और नागार्जुन को युद्ध में हराकर किला और उसके आसपास का इलाका वापस अपने कंट्रोल में ले लिया। 

पृथ्वीराज विजय महाकाव्य के अनुसार उन्होंने नागार्जुन के कई सैनिकों को पकड़ कर उनके सिर काटकर अजमेर के किले की दीवारों पर लटका दिए। हालांकि नागार्जुन बचकर भाग निकला लेकिन यह जीत पृथ्वीराज की सत्ता को चुनौती देने वालों के लिए एक कड़ी चेतावनी थी कि भले ही राजा कम उम्र का हो उसकी सत्ता को चुनौती देना आत्मघाती होगा। इस सफलता के बाद पृथ्वीराज ने केवल अपने राज्य की प्रोटेक्शन ही नहीं की बल्कि एक ग्रेट एंपायर का एक्सपेंशन करना भी शुरू कर दिया। इसके बाद 1182 में पृथ्वीराज चौहान ने भदान कास के विद्रोह को खत्म किया। 

जिनकी टेरिटरी आज के हरियाणा के भिवानी, रेवाड़ी और राजस्थान के अलवर तक फैली हुई थी। भदान कास के खिलाफ यह जीत उनके लिए इसलिए भी इंपॉर्टेंट थी क्योंकि भदान कास की टेरिटरी दिल्ली के रास्ते में पड़ती थी। लगभग 1150 से 1164 के दौरान पृथ्वीराज चौहान के चाचा विग्रहराज फोर्थ ने जीत लिया था। इसलिए जब पृथ्वीराज चौहान ने गद्दी संभाली थी तब दिल्ली पहले से ही उनके साम्राज्य का हिस्सा थी। दिल्ली एक बहुत बड़ा ट्रेड और स्ट्रेटेजी सेंटर था और इसलिए इस जीत के बाद पृथ्वीराज ने दिल्ली को अपनी दूसरी राजधानी बना लिया जिसके बाद नॉर्थ इंडिया में उनकी पोजीशन और भी मजबूत हो गई। 

उन्होंने दिल्ली में किला राय पिथौरा भी बनवाया जो उनकी इस कैपिटल के लिए काफी इंपॉर्टेंट जगह बनी। इन शुरुआती विक्ट्रीज के बाद पृथ्वीराज चौहान की सेना ने कई दिशाओं में विजय अभियान चलाए। उनका साम्राज्य तेजी से फैला और जल्द ही इसमें राजस्थान के ज्यादातर हिस्से वेस्टर्न उत्तर प्रदेश, नदर्न मध्य प्रदेश और सदर्न पंजाब शामिल हो गए। इस विशाल साम्राज्य ने उनकी प्रतिष्ठा को दूर-दूर तक फैला दिया और उन्हें उस समय का सबसे शक्तिशाली भारतीय शासक बना दिया। उनके मिलिट्री कैंपेन में सबसे मशहूर और खूनखराबे वाला युद्ध 1182 में चंदेल राजा परमर्दी देव के खिलाफ महोबा में लड़ा गया। 

इसकी वजह यह थी कि चंदेल सैनिकों ने पृथ्वीराज की सेना के कुछ घायल और थके हुए सैनिकों पर हमला कर दिया था क्योंकि वह बिना परमिशन के उनके एरिया में ठहर गए थे। इस घटना से नाराज होकर पृथ्वीराज ने महोबा पर एक विशाल सेना के साथ अटैक कर दिया। यह युद्ध भारतीय लोकथाओं और इतिहास में चंदेल के दो महान सेनापति आला और उदल की अद्भुत वीरता के लिए अमर हो गया। दोनों भाइयों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए चौहानों की सेना को कड़ी टक्कर दी और अपार साहस का प्रदर्शन किया। कहते हैं कि इस युद्ध में उदल की मौत हो गई थी। जिससे गुस्साए आला ने पूरी ताकत के साथ पृथ्वीराज की सेना पर भयंकर हमला कर दिया। आला के सामने उस समय जो भी आया वो मारा गया। लेकिन आखिर में इस युद्ध में चंदेलों की हार हुई। पृथ्वीराज ने महोबा पर विजय प्राप्त की और परमर्दी देव को भागना पड़ा। 

यह पृथ्वीराज के साम्राज्य के विस्तार के लिए एक बड़ी जीत थी। हालांकि यह जीत आसानी से नहीं मिली थी। इस युद्ध में पृथ्वीराज को भी भारी नुकसान हुआ था और इसमें उनकी सेना के कई बहादुर सैनिक मारे गए थे। इसी दौरान पृथ्वीराज की एक और ताकतवर राजवंश से राजनीतिक दुश्मनी खुलकर सामने आ गई। यह दुश्मनी कन्नौज के गाढ़वाल राजा जयचंद के साथ थी। दोनों ही राजा अपने-अपने साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाना चाहते थे। इसलिए उनके बीच राइवलरी थी। हालांकि ऐसा भी माना जाता है कि जयचंद दिल्ली की गद्दी पर अपना अधिकार मानते थे क्योंकि दिल्ली पर कभी जयचंद के नाना अनंगपाल तोमर का राज था जिसे चौहानों ने छीन लिया था। इस वजह से दोनों राजवंशों के बीच पावर एंड सुप्रीमेसी को लेकर कई सालों से दुश्मनी चली आ रही थी। यहां तक कि जयचंद ने महोबा की लड़ाई में पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ चंदेल राजा की मदद भी की थी। पृथ्वीराज रासो के अनुसार यह टकराव तब और पर्सनल हो गया जब कहानी में जयचंद की बेटी संयोगिता की एंट्री हुई। 

कहते हैं कि संयोगिता पृथ्वीराज की बहादुरी और शौर्य के किस्से सुन-सुनकर उनसे प्रेम करने लगी थी और उसने मन बना लिया था कि वह सिर्फ उन्हीं से शादी करेगी। जब यह बात जयचंद तक पहुंची तो वह आग बबूला हो गए। पृथ्वीराज से उनकी पुरानी दुश्मनी थी और वे इस रिश्ते को कभी एक्सेप्ट नहीं कर सकते थे। जयचंद ने अपनी बेटी के इस प्रेम को अपनी और अपने राज्य की इंसल्ट के रूप में देखा। इसी इंसल्ट का बदला लेने के लिए जयचंद ने एक चाल चली और एक भव्य स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर प्राचीन भारत की एक प्रथा थी जिसमें शादी के योग्य राजकुमारी के लिए कई वर एक सभा में इकट्ठे होते थे और राजकुमारी अपनी पसंद से उनमें से किसी एक को चुनती थी। 

जयचंद ने भारत के सभी प्रमुख राजाओं और राजकुमारों को इनवाइट किया लेकिन जानबूझकर अपने सबसे बड़े दुश्मन पृथ्वीराज को नहीं बुलाया। इतना ही नहीं जयचंद ने पृथ्वीराज का और भी अपमान करने के लिए उनकी एक स्टैचू बनवाई और उसे दरबार के मेन गेट पर एक द्वारपाल की जगह पर खड़ा कर दिया। किसी तरह इस बात की भनक पृथ्वीराज चौहान को लग जाती है। जब स्वयंवर का दिन आया तो सभी राजा अपनी जगह पर बैठ गए लेकिन संयोगिता ने किसी को भी नहीं चुना। संयोगिता सब राजाओं को नजरअंदाज करती हुई सीधी पृथ्वीराज की मूर्ति के पास गई और माला उस मूर्ति के गले में डाल दी। ठीक उसी मोमेंट पर पृथ्वीराज जो अपने कुछ सैनिकों के साथ गुप्त रूप से वहां मौजूद थे वह सामने आए और उन्होंने सब की आंखों के सामने संयोगिता को अपने घोड़े पर बिठाया और कन्नौज से दिल्ली की ओर निकल गए। रास्ते में जयचंद की सेना ने उनका पीछा किया लेकिन पृथ्वीराज संयोगिता को सुरक्षित दिल्ली ले जाने में सफल रहे और उन्होंने उनसे शादी कर ली। हालांकि संयोगिता और पृथ्वीराज की यह प्रेम कहानी सिर्फ पृथ्वीराज रासों में ही देखने को मिलती है और कई हिस्टोरियंस इस घटना को काल्पनिक मानते हैं। 

लेकिन इतना तो तय है कि पृथ्वीराज और जयचंद के रिश्ते कभी अच्छे नहीं रहे। यह टकराव इतना गहरा था कि जब भारत पर फॉरेन इनवेडर्स का खतरा मंडरा रहा था तब भी यह दोनों राजा एक दूसरे का साथ देने को तैयार नहीं हुए। इसके अलावा महोबा का युद्ध जीतने के बाद पृथ्वीराज ने एक शक्तिशाली पड़ोसी को अपना परमानेंट एनिमी बना लिया था। इसका नतीजा यह हुआ कि इस आपसी रंजिश के कारण कभी एक ऐसा पावरफुल अलायंस नहीं बन पाया जो विदेशी शक्तियों को भारत की धरती पर कदम रखने से रोक पाता और यही राइवलरी आगे चलकर भारतीय इतिहास की दिशा को हमेशा के लिए बदलने वाली थी। एक तरफ सम्राट पृथ्वीराज चौहान अपने एंपायर का एक्सपेंशन कर रहे थे। वहीं दूसरी तरफ पश्चिम में एक नया और खतरनाक दुश्मन उभर रहा था। यह दुश्मन था ए्बिशियस एंड रूथलेस इनवेडर मोइज अलदिन मोहम्मद इब्न साम जिसे भारत में मोहम्मद गौरी के नाम से जाना जाता है। 

मोहम्मद गौरी घुरिद डायनेस्टी का रूलर था जिसका साम्राज्य आज के अफगानिस्तान में फैला हुआ था। उसका मकसद भारत में केवल लूटपाट करना नहीं था बल्कि वह इंडिया में अपना परमानेंट एंपायर एस्टैब्लिश करना चाहता था। इसी ख्वाहिश में गोरी ने 1178 में गुजरात के चालुक्य शासक भीम सेकंड के राज्य पर बड़ा हमला कर दिया। लेकिन यहां उसे एक पावरफुल रेजिस्टेंस फेस करना पड़ा जिसका नेतृत्व भीम द्वितीय की मां रानी नायकी देवी कर रही थी। उन्होंने गोरी की सेना को इतनी बुरी तरह से हराया कि वह बैटल फील्ड से जान बचाकर भाग खड़ा हुआ। यह गौरी के लिए एक बड़ी हार थी जिसने उसे अपनी स्ट्रेटजी बदलने पर मजबूर कर दिया। 

उसे समझ आ गया कि दक्षिणी रास्ते से भारत में घुसना बेहद मुश्किल है। इसलिए उसने अपना रास्ता बदला और नॉर्थ पर फोकस किया। उसकी यह नीति काम कर गई और उसने जल्द ही सिंध, पेशावर और सियालकोट पर कब्जा कर लिया और 1186 में लाहौर के शासक खुसरो शाह मलिक को हराकर उसे भी हथिया लिया। इन लगातार विक्ट्रीज़ के बाद गौरी रुकने वाला नहीं था। अब उसका अगला निशाना चौहान साम्राज्य था। 1191 में उसने अचानक हमला करके तबारह हिंद यानी आज के भटिंडा के किले को अपने कब्जे में ले लिया और उसे अपने सेनापति जियााउद्दीन और 1200 घुड़सवारों के हवाले कर दिया। 

यह एक ऐसा स्टेप था जिसने दो शक्तिशाली साम्राज्यों को सीधे क्लैश के रास्ते पर ला खड़ा किया। मोहम्मद गौरी का भटिंडा पर कब्जा करना पृथ्वीराज के लिए एक सीधी चुनौती थी जिसे वो इग्नोर नहीं कर सकते थे। इसके रिस्पांस में पृथ्वीराज ने एक विशाल सेना तैयार की और गौरी की ओर मार्च कर दिया। 1191 में हरियाणा के तराइन के मैदान में पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी की सेनाएं आमने-सामने आ जाती है। इस युद्ध में दोनों सेनाओं की अपनी-अपनी स्ट्रेंथ्स थी। गौरी की सेना के पास घुड़सवार धनुर्धर थे जो अपनी स्पीड के लिए जाने जाते थे। जबकि पृथ्वीराज चौहान की सेना मुख्य रूप से पैदल सेना थी। लेकिन उनके पास हाथियों की शक्ति थी और उनकी सेना आमने-सामने की लड़ाई में बेहद माहिर थी। 

युद्ध की शुरुआत में मोहम्मद गौरी की सेना ने अपनी सबसे बड़ी ताकत का इस्तेमाल किया। उसके घुड़सवार तीरंदाजों ने पृथ्वीराज चौहान की पैदल सेना पर दूर से ही तीर बरसाने शुरू कर दिए। यह एक ऐसी रणनीति थी जिसमें वह हमला करके तेजी से पीछे हट जाते थे ताकि सीधे मुकाबले से बचा जा सके। इसके उलट राजपूत योद्धा आमने-सामने की लड़ाई में विश्वास रखते थे जहां वो अपनी तलवारों और भालों से दुश्मन का सामना कर सके। पृथ्वीराज चौहान की सेना ने तुरंत दुश्मन के सामने आकर एक स्ट्रांग इनडायरेक्ट अटैक करते हुए उसे धूल चटाना शुरू कर दिया। 

पृथ्वीराज के अचानक हमले ने गौरी की सेना को चौंका दिया। इसके अलावा पृथ्वीराज चौहान की सेना के विशालकाय हाथी भी दुश्मन की सेना पर कहर बनकर टूट पड़े और उनकी पंक्तियां तोड़ डाली जिससे विरोधी खेमे में भगदड़ मच गई। राजपूत सैनिकों की सामने की जबरदस्त लड़ाई और हाथियों की ताकत ने गौरी के सैनिकों के हौसले पूरी तरह से तोड़ दिए और वह मैदान छोड़कर भागने लगे। युद्ध के बीच अपने सैनिकों को रिकॉग्नाइज करने की कोशिश में मोहम्मद गौरी खुद भी मैदान में उतर आया। उसका सामना राजपूत सेना के कमांडर और दिल्ली के गवर्नर गोविंद राय से हुआ। गौरी ने भाले से उन पर अटैक किया लेकिन गोविंद राय ने गौरी के भाले को रोक दिया और पलटवार करते हुए गौरी को घायल कर दिया। गौरी लगभग बेहोश होकर गिर पड़ा। 

किसी तरह उसके एक सोल्जर ने उसे बैटल फील्ड से बाहर निकालकर उसकी जान बचाई। अपने कमांडर को पीछे हटते देख गौरी के सेना का मोराल पूरी तरह टूट गया और बचे कुचे सैनिक भी मैदान छोड़कर भाग गए। पृथ्वीराज की सेना ने वापस तबार हिंद फोर्ट को कैप्चर कर लिया। लेकिन इस जीत के बाद पृथ्वीराज ने एक ऐसी रणनीतिक भूल की जिसकी कीमत आगे चलकर उन्हें और पूरे भारत को चुकानी पड़ी। उन्होंने भागते हुए दुश्मन का पीछा नहीं किया और मोहम्मद गौरी को जीवन दान दे दिया। 

ऐसा माना जाता है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गौरी को इसी एक युद्ध में नहीं बल्कि 16-17 बार हराया था और हर बार उसे छोड़ दिया था। यह राजपूतों की वॉर एथिक्स और जेनेरोसिटी का प्रतीक था। वो भागते हुए दुश्मन पर वार नहीं करते थे। मॉडर्न हिस्टोरियंस इसे पृथ्वीराज सिंड्रोम कहते हैं। जहां दया दिखाने की आदत दुश्मन को दोबारा ताकतवर बनने का मौका दे देती है। लेकिन यही उदारता बाद में आत्मघाती साबित होने वाली थी। पृथ्वीराज चौहान से बार-बार हार मिलने के बाद मोहम्मद गौरी अपमानित होकर वापस गजनी लौट गया था। 

वहां उसने अपनी फोर्स के उन कैप्टेंस और कमांडर्स को पब्लिकली बेइज्जत किया जिन्होंने युद्ध में कायरता दिखाई थी। गोरी ने कसम खाई कि जब तक वह अपनी हार का बदला नहीं लेगा तब तक अपनी अय्याशी भरी जिंदगी से दूर रहेगा। इसी संकल्प के साथ उसने अपनी सेना को फिर से ऑर्गेनाइज किया। इस बार उसने डिसिप्लिन, मोबिलिटी और डिसेप्शन पर ज्यादा से ज्यादा जोर दिया। पूरी तैयारी करने के बाद 1192 में उसने फिर से बठिंडा पर कब्जा कर लिया जिसे सिर्फ 1 महीने पहले ही चौहानों ने वापस हासिल किया था। इस खबर से पृथ्वीराज चौहान गुस्से से भर उठे। उन्होंने सेना तैयार की और गौरी का सामना करने के लिए एक बार फिर तराइन की ओर मार्च कर दिया। लेकिन इस बार उनकी सेना पहले से कमजोर थी क्योंकि उनके कई सेनापति पिछले महीनों से अलग-अलग अभियानों में व्यस्त थे। तराइन के मैदान में एक बार फिर दोनों सेनाएं आमने-सामने थी। पृथ्वीराज ने संदेश भेजा कि अगर गोरे बिना लड़ाई के वापस लौट जाए तो उसे जाने दिया जाएगा। वरना इस बार उसे मिट्टी में मिला दिया जाएगा। 

गोरी ने यहां पर एक जाल बिछाया और उसने एक चाल चलते हुए शर्त मानने का नाटक किया और कहा कि वह यह फैसला अपने भाई से सलाह लेकर करेगा। असल में गोरी इस दौरान अपनी सेना को तैयार कर रहा था और चौहान सेना पर नजर रख रहा था। इस धोखे ने पृथ्वीराज को गलतफहमी में डाल दिया और उनकी सेना निश्चिंत हो गई और अपनी सतर्कता खो बैठी। यही उनकी सबसे बड़ी गलती साबित हुई। गौरी को पता था कि राजपूत आमने-सामने के लड़ाई में बेहद ताकतवर है। इसलिए उसने अपनी सेना को छोटी-छोटी यूनिट्स में बांटा और उन्हें निर्देश दिया कि उन पर दूर से हमला करें और जैसे ही राजपूत सेना पलटवार करें वैसे ही लड़ाई छोड़कर वह पीछे हट जाए। गोरी की चाल काम कर गई। जैसे ही उसकी सेना ने राजपूतों पर दूर से हमला किया पृथ्वीराज चौहान की सेना दुश्मन का पीछा करने लगी। लेकिन यह एक ट्रैप था। लगातार पीछा करने से राजपूत सेना के हाथी, घोड़े और पैदल सैनिक थक गए। रात भर उन्हें आराम करने को नहीं मिला। जब अगली सुबह राजपूत सेना अपने डेली रूटीनंस में बिजी थी और डिसऑर्गनाइज्ड थी। तब गोरी की सेना ने उन पर अचानक डिसाइसिव अटैक कर दिया। 

इस धोखेबाजी और स्ट्रेटेजिक लेबरनेस के सामने राजपूत सेना टिक नहीं पाई। सम्राट पृथ्वीराज चौहान की हार हुई और उन्हें प्रिजनर बना लिया गया। इस तरह तराइन का दूसरा युद्ध गोरी की डिसाइसिव विक्ट्री के साथ खत्म हो गया। यह हार पृथ्वीराज चौहान की वीरता की कमी के कारण नहीं बल्कि उनकी स्ट्रेटेजिक चूक और दुश्मन को अंडरएस्टीमेट करने के कारण हुई। उनका तरीका जिसके तहत भागते दुश्मन को भी जीवन दान दिया जाता था। गोरी जैसे रूथलेस इन्वेडर के सामने बेअसर हो गया। जिसका एकमात्र लक्ष्य किसी भी तरह जीत हासिल करना था। इस हार ने भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना का रास्ता खोल दिया और इंडियन हिस्ट्री की डायरेक्शन हमेशा के लिए बदल दी। 

ऐसा माना जाता है कि कन्नौज के राजा जयचंद ने इस युद्ध में मोहम्मद गौरी का सीक्रेटली साथ दिया था। यही कारण है कि बाद की लोकथाओं में जयचंद नाम गद्दार का पर्यायवाची बन गया। हालांकि कई इतिहासकार इस कहानी को झूठा मानते हैं। उनके अकॉर्डिंग जयचंद ने भले ही पृथ्वीराज का साथ ना दिया हो लेकिन वह गौरी के साथ भी नहीं था। हालांकि आगे चलकर मोहम्मद गौरी ने जयचंद को भी हराया और उनकी हत्या कर दी। 

सेकंड बैटल ऑफ तराइन में हार के बाद सम्राट पृथ्वीराज चौहान का अंत कैसे हुआ? 

यह आज भी हिस्टोरियंस के बीच डिबेट का सब्जेक्ट है। इस विषय पर कई कंट्राडिक्टरी व्यूज है। कुछ हिस्टोरिकल सोर्सेस का मानना है कि पृथ्वीराज बैटल फील्ड में ही वीरगति को प्राप्त हो गए थे। वहीं कुछ अकाउंट्स के अनुसार उन्हें प्रिजनर बनाकर अजमेर ले जाया गया। जहां मोहम्मद गौरी ने उन्हें अपने अधीन एक शासक के रूप में बहाल करने का प्रयास किया। 

लेकिन बाद में कास्परेसी के आरोप में उनकी हत्या कर दी गई। इसके अलावा पृथ्वीराज की मृत्यु के बारे में सबसे पॉपुलर स्टोरी महाकाव्य पृथ्वीराज रासो में मिलती है। इस स्टोरी के अनुसार तराइन के युद्ध में हार के बाद गौरी पृथ्वीराज को प्रिजनर बनाकर गजनी ले गया। वहां उसने उन्हें बहुत यातनाएं दी। लेकिन फिर भी जब सम्राट पृथ्वीराज चौहान की आंखें गौरी के सामने नहीं झुकी तो मोहम्मद गौरी ने हुकुम दिया कि पृथ्वीराज चौहान की आंखें निकाल ली जाए। उसके हुकुम की तामीर हुई और हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़े निहत्ते पृथ्वीराज चौहान की आंखों में गर्म सलाखें उतार कर उन्हें अंधा कर दिया गया। 

सम्राट पृथ्वीराज को आंखों का बलिदान स्वीकार था लेकिन आंखें झुकाना मंजूर नहीं था। इसी दौरान पृथ्वीराज के कोर्ट पोएट चंद्रबरदाई भी किसी तरह गजनी पहुंचे। उन्होंने देखा कि गोरी पूरे नगर के सामने पृथ्वीराज को अपमानित कर मारने की योजना बना रहा है। चंद्रबरदाई ने एक चाल चली और गोरी से कहा सुल्तान तुम जिसे मृत्युदंड देने जा रहे हो वो कोई सामान्य राजा नहीं बल्कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान है जिन्होंने तुम्हें युद्ध के मैदान में दर्जनों बार धूल चटाई है। गौरी ने पृथ्वीराज चौहान का मजाक बनाते हुए कहा कि अब यह अंधा किसी काम का नहीं। इस पर चंदबरदाई ने मोहम्मद गौरी से कहा कि तुम्हें नहीं पता। 

हमारे सम्राट शब्द भेदी बाण चलाने की कला में माहिर है। वह सिर्फ आवाज सुनकर लक्ष्य को भेज सकते हैं। गोरी ने इस बात पर भी पृथ्वीराज चौहान का मजाक उड़ाया और कहा कि अगर ऐसा है तो पूरा नगर यह तमाशा देखेगा। इसके बाद एक दिन सभा का आयोजन हुआ और भारी भीड़ जमा हो गई। पृथ्वीराज की बेड़ियां खोल दी गई और उनके हाथ में धनुष बाण थमा दिए गए। गोरी ने चंद्रबरदाई के सामने एक शर्त रखी थी कि अगर पृथ्वीराज शब्द भेदी बाण नहीं चला पाए तो उनका भी सर कलम कर दिया जाएगा। चंद्रबरदाई ने मुस्कुराकर जवाब दिया कि ऐसी नौबत नहीं आएगी। 

इसके बाद करतब शुरू होता है और चंद्रबरदाई एक दोहा पढ़ते हैं। चार बास 24 गज अंगुल अष्ट प्रमाण ताऊ पर सुल्तान है मत चूको चौहान। 

इस दोहे से पृथ्वीराज को गोरी की एग्जैक्ट पोजीशन का सटीक अनुमान हो गया। जो एक ऊंची गद्दी पर बैठा हुआ था। उन्होंने अपने धनुष पर तीर साधा और तीर सीधे गोरी के सीने में जा धंसा और वो वही ढेर हो गया। इसके बाद जैसे ही गौरी के सैनिक चंद्रबरदाई और पृथ्वीराज को मारने के लिए दौड़े, उन्होंने एक दूसरे को खंजर मारकर अपनी जान दे दी ताकि उनकी मौत पर भी उनका नाम लिखा हो उनके दुश्मनों का नहीं। यह कहानी पीढ़ियों तक ब्रेवरी और रिवेंज का प्रतीक बनकर सुनाई जाती रही है। लेकिन हिस्टोरिकली इसे सही नहीं माना जाता है। 

यहां तक कि पृथ्वीराज रासो की क्रेडिबिलिटी को लेकर भी काफी सवाल उठते हैं और माना जाता है कि पृथ्वीराज रासो को पृथ्वीराज चौहान के समय से करीब 400 साल बाद 16th सेंचुरी में लिखा गया था। इसके अलावा हिस्टोरिकल एविडेंस के हिसाब से मोहम्मद गौरी की हत्या साल 1206 में हुई थी। जबकि पृथ्वीराज की मृत्यु 1192 में ही हो गई थी। इस कारण बहुत से स्टोरियंस पृथ्वीराज चौहान के अंत की इस कहानी को काल्पनिक मानते हैं। पृथ्वीराज की मौत के बाद उनका साम्राज्य जिसमें अजमेर, दिल्ली, राजस्थान के हिस्से शामिल थे, वो गौरी की सेना के कंट्रोल में आ गए। दिल्ली मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक के कंट्रोल में आई। जिसके नाम पर आज भी दिल्ली में कुतुब मीनार है। 

इसके अलावा अजमेर में गौरी ने पृथ्वीराज के नाबालिक बेटे गोविंदराज फोर्थ को कठपुतली पपेट रूलर बनाया जो गोरी को टैक्स देता था। पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने इसे स्वीकार नहीं किया और गोविंद राज फोर को हटाकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। इस विद्रोह से क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ गई जिसका लाभ उठाते हुए मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने अजमेर पर हमला कर दिया और हरिराज को हरा दिया। इससे रही सही कसर भी पूरी हो गई और जो अजमेर कभी राजपूतों की शान हुआ करता था वह अब दिल्ली सल्तनत का हिस्सा बन गया। साम्राज्य के अन्य हिस्से जैसे महोबा लोकल डायनेस्टीज में बट गए या उन्हें मोहम्मद गौरी ने जीत लिया। 

इस तरह पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद भारत में मुस्लिम इन्वेशन काफी बढ़ गया था जिससे मुस्लिम रूल की नीव पड़ी जो सदियों तक चला लेकिन सम्राट पृथ्वीराज चौहान की वीरता, साहस और शौर्य की कहानियां इतिहास में अमर हो गई। उनकी कहानी ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया और उन्हें नेशनल प्राइड का प्रतीक बनाया। 

उनकी विरासत हमें यह याद दिलाती है कि भले ही युद्ध में हार हो जाए लेकिन वीरता, सम्मान और साहस की कहानी कभी नहीं मरती।

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